Book Title: Ahimsa ki Prasangikta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ अहिंसा परमोयज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्। अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।। ___ -महाभारत अनुशासन पर्व ११६/२८-२६ अर्थात् अहिंसा सर्वश्रेष्ठधर्म है, वही उत्तम इन्द्रिय निग्रह है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ दान है, वही उत्तम तप है। अहिंसा ही सर्वश्रेष्ट यज्ञ है और वही परमोपलब्धि है। अहिंसा परममित्र है, वही परमसुख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक एवं हिन्दुधर्म में ऐसे अगणित संदर्भ हैं, जो अहिंसा की महत्ता को स्थापित करते हैं। बौद्ध धर्म में अहिंसा __ मात्र यही नहीं भारतीय श्रमण परम्परा के प्रतिनिधिरूप जैन एवं बौद्ध धर्म भी अहिंसा के सर्वाधिक हिमायती रहे हैं। वौद्धधर्म के पंचशीलों, जैनधर्म के पंच महाव्रतों और योगदर्शन के पंचयमों में अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है । भगवान बुद्ध ने कहा है - न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति। अहिंसा सव्वपाणानं अरियोति पवुच्चति।। -धम्मपद धम्मट्ठवग्ग १५ अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य (सभ्य) नहीं होता, अपितु जो सर्व प्राणियों के प्रति अहिंसक होता है, वही आर्य कहा जाता है। अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवुता। ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गत्वा न सोचरे।। -धम्मपद कोधवग्ग ५ अर्थात् जो मुनि काया से संवृत होकर सदैव अहिंसक होते हैं, वे उस अच्युत स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् शोक नहीं रहता। धम्मपद में अन्यत्र कहा गया है - निघाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेसु च। यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।। अर्थात् जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों को पीड़ा नहीं देता है, न उनका घात करता है और न उनकी हिंसा करता है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार पिटक ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों बुद्धवचन हैं, जो बौद्ध धर्म में अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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