________________
यह अनुभव हुआ हो कि मैं ही सब में फैला हुआ हूँ या सब मुझसे ही जुड़े हुये जीवन हैं, जीवन एक है, आत्मभाव एक है-उसके व्यवहार में अहिंसा फलित होती है।
'अहिंसाभूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं "
जो इस अनुभव में नहीं उतरा कि मैं जिसे मार रहा हूँ वह मैं ही हूँ-वह भ्रम में जी रहा है।
इसलिए वह दूसरों को कष्ट पहुँचाने में आनन्द मान रहा है। उसे यह इल्म नहीं है कि
शायद इसीलिए यह सूत्र आया कि दूसरों का वध करना दरअसल खुद का वध है। दूसरे पर दया दरअसल खुद पर दया है।
परेशां होने वाले तो परेशानी सह भी जाते हैं। परेशां करने वालों की परेशानी नहीं जाती ॥
हिंसा की स्थिति इतनी अधिक भयावह तथा विकराल है कि स्वयं के अहित की कीमत पर भी दूसरों का अहित करना मंजूर है। मेरी जान चली जाये पर दूसरों का जीवन जरूर लेना है। मानव बम की अवधारणा इसका जीवन्त उदाहरण है। अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर वह हवाई जहाज ले जाकर टकरा दिया जिसमें वे आतंकी स्वयं सवार थे। खुद की परवाह नहीं की, माँ-बाप, पत्नी-बच्चों को क्या याद करते? हजारों निर्दोष लोगों की जान के प्रति करुणा का तो क्रम ही नहीं आता। फिर पशु-पक्षियों के जीवन की रक्षा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी स्थिति में भी अहिंसा की बात कहना आशा की एक किरण है।
वो जितना समर्पण और पुरुषार्थ हिंसा को फैलाने के लिये कर रहे हैं, हमें अहिंसक चिन्तन और व्यवहार को फैलाने का कार्य उतने
1.
2.
3.
स्वयंभूस्तोत्र - आचार्य समन्तभद्र, श्लोक- 119
तुमसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि'- आचारांग, 5/5/101
जीव वहो अप्पवहो, जीव दया अप्पणो दया हो । समणसुत्तं, गाथा-151
(xiv)