Book Title: Ahimsa Darshan Ek Anuchintan
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Lal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham

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Page 10
________________ प्रास्ताविक धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं णमंति, जस्स धम्मे सयामणो। अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। वास्तव में अहिंसा मानवता की उपलब्धि है, उसका श्रृंगार है। भारतीय परम्परा में अहिंसा को मात्र धर्म ही नहीं बल्कि परमधर्म कहा गया है। नीतिकारों ने एक छोटे से सूत्र में अहिंसा को समझाने का विपुल पुरुषार्थ किया है 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' जो-जो आचरण हमें प्रतिकूल लगता है वह हम दूसरे के प्रति भी न करें। आज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष 'हिंसा' एक ऐसी विशाल समस्या बनकर उभर चुकी है कि उसने अन्य सभी समस्याओं को गौण कर दिया है। अन्य समस्याओं की जड़ भी इसी 'हिंसा' में मिल रही है। आश्चर्य तो यह भी है कि इस समस्या का एक मात्र समाधान भी प्रतिहिंसा ही मान लिया गया है। किन्तु यह स्थायी समाधान नहीं है। यदि ऐसा होता तो अब तक हिंसा का जनाज़ा निकल गया होता। प्रतिहिंसा से हिंसा भड़कती है। उसका स्थायी समाधान है अहिंसा। हिंसा की तरह अहिंसा के बीज भी मनुष्य के मस्तिष्क में हैं। अतः समाधान वहाँ खोजना है। जिस प्रकार पानी मथने से घी नहीं मिलता, वैसे ही हिंसा से शांति नहीं होती। शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं। आवश्यकता है इस सन्दर्भ में कुछ नया खोजने तथा प्रयोग करने की। जब तक हम (xii )

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