Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 5
________________ प्रकाशकीय जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषि पं० दलसुखभाई मालवणिया की पाण्डित्यपूर्ण लेखिनी से निसृत "प्रागम-युग का जैन दर्शन' पुस्तक प्राकृत भारती के ६६वें पुष्प के रूप में प्रकाशित हो रही है। यह भी प्राकृत भारती अकादमी और श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ का संयुक्त प्रकाशन है। जैन दर्शन के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली अनेकों पुस्तकें अभी तक प्रकाशित हो चुकी हैं तदपि तत्कालीन समस्त दर्शन मान्य विचारणामों/निष्कर्षों को सोदाहरण उपस्थित कर, पागम युग के आधार पर जैन दर्शन के स्वरूप का प्रस्थापन जिस मौलिक चिन्तन के साथ इसमें हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। यही कारण है कि न्याय-दर्शन के अध्येताओं के लिये यह पुस्तक दीपस्तम्भ की तरह मार्गदर्शक बनी हुई है और रहेगी। प्रस्तुत पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में आगम साहित्य की रूपरेखा का विस्तार से प्रतिपादन है। दूसरे और तीसरे अध्याय में जैन सम्मत प्रमेय और प्रमाण का सांगोपांग विशद विवेचन है। चौथे अध्याय में न्यायशास्त्र के आधार पर जैन आगमों में वाद और वादविद्या का सविस्तार प्रतिपादन है। पांचवें अध्याय में आगमोत्तर कालीन वाचक उमास्वाति, प्राचार्य कुन्दकुन्द और सिद्धसेन के ग्रन्थों के आधार पर प्रमेय, प्रमाण और स्याद्वाद का अनुपम निरूपण है। पुस्तक के अन्त में ३ परिशिष्ट भी हैं। पहला परिशिष्ट दार्शनिक साहित्य का विकास क्रम है; जो आगम, अनेकान्त व्यवस्था, प्रमाण व्यवस्था और नव्यन्याय युगों में विभक्त है। दूसरा परिशिष्ट प्राचार्य मल्लवादी और उनके नयचक्र ग्रन्थ पर आधारित है। तीसरा परिशिष्ट विस्तृत नामानुक्रमणिका का है। यह साधिकार कह सकते हैं कि यह पुस्तक मौलिक है और गहन अध्ययन/चिन्तन के साथ अनेकान्त का सांगोपांग प्रस्थापन समन्वय के साथ करती है। इस पुस्तक के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि मालवणियाजी ने जिस गहन अध्ययन/चिन्तन के साथ प्रांजल शैली में इसका लेखन किया है वह वस्तुतः अनूठा है और उनकी अमित प्रतिभा का द्योतक भी। प्रस्तुत पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् १९६६ में सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा से प्रकाशित हुआ था, जो आज अप्राप्त है। अध्येताओं की दृष्टि से इसकी उपयोगिता देखकर और हमारे अनुरोध पर श्री मालवणिया जी ने इसके प्रकाशन की औदार्य के साथ स्वीकृति देकर हमें अनुगृहीत किया है। अतः हम निःस्पृह एवं निश्छल व्यक्तित्व के धनी पण्डितवर्य श्री दलसुखभाई का हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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