Book Title: Agam Suttani Satikam Part 06 Bhagvati
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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भगवतीअङ्गसूत्रं (२) २६/-/१/९७९ भावान्नान्तिम इत्यत आह
'नाणस्से'त्यादि, एवं सर्वत्र यत्रायोगित्वं संभवति तत्र चरमो यत्र तु तन्नास्ति तत्राद्यौ द्वावेवेति भावनीयाविति ॥ आयुष्कर्म्मदण्डके
मू. (९८०) जीवेणंभंते ! आउयं कम्मं किंबंधी बंधइ ? पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिए बंधी चउभंगो सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा अलेस्से चरिमो भंगो।
कण्हपक्खिए णं पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगतिए बंधी न बंधइबंधिस्सइ, सुक्मक्खिएसम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारिभंगा, सम्मामिच्छादिट्ठीपुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ अत्यंगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ।
नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भंगा, मणपजवनाणीपुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, अत्यंगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ, केवलनाणे चरमो भंगो । एवं एएणं कमेणं नोसन्नोवउत्ते बितियविहूणा जहेव मनपज्जवनाणे, अवेदएअकसाईय तितियचउत्थाजहेव सम्मामिच्छते, अजोगिम्मिचरिमो, सेसेसुपदेसुचत्तारि भंगा जाव अनागारोवउत्ते। - नेरइए णं भंते ! आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए चत्तारि भंगा एवं सव्वत्थविनेरइयाणंचत्तारि भंगानवरं कण्हलेस्सेकण्हपक्खिएयपढमततियाभंगा, सम्मामिच्छत्ते ततियचउत्था।
असुरकुमारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्सेवि चत्तारि भंगा भाणियव्वा सेसं जहा नेरइयाणं. एवं जाव थणियकुमाराणं।
पुढविक्काइयाणं सव्वत्थवि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपक्खिए पढमततिया भंगा। .
तेऊलेस्से पुच्छा, गोयमा ! बंधी न बंधई बंधिस्सइ सेसेसु सव्वत्थ चत्तारि भंगा, एवं आउक्सइयवणस्सइकाइयाणवि निरवसेसं, तेउकाइयवाउमइयाणं सव्वत्थवि पढमततिया भंगा
बेइंदियतेइंदियचउरिदियाणंपि सव्वत्थवि पढमततिया भंगा, नवरं सम्मत्ते नणे आभिनिबोहियनाणे सुयनाणे ततिओ भंगो।
पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणंकण्हपस्खिएपढमततिया भंगा, सम्मामिच्छत्तेततियचउत्थो भंगो, सम्मत्ते नाणे आभिनिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे एएसुपंचसुवि पदेसु बितियविहूणा भंगा, सेसेसु चत्तारि भंगा।
मणुस्साणंजहाजीवाणं, नवरंसम्मत्तेओहिएनाणे अभिनिबोहियनाणेसुयनाणे ओहिनाणे एएसु बितियविहूणा भंगा, सेसंतं चेव, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा, नामं गोयं अंतरायंच एयाणि जहा नाणावरणिज्जं । सेवं भंते ! २ त्ति जाव विहरति ।
वृ. 'चउभंगो'त्ति तत्र प्रथमोऽभव्यस्य द्वितीयो यश्चरमशरीरो भविष्यति तस्य, तृतीयः पुनरुपशमकस्य, स ह्यायुर्बद्धवान् पूर्वं उपशमकाले न बघ्नाति तत्प्रतिपतितस्तु भन्त्सयति, चतुर्थस्तु क्षपकस्य, स ह्यायुर्बद्धवान् न बघ्नाति नच भन्स्यतीति।
‘सलेस्से' इह यावत्करणात् कृष्णलेश्यादिग्रहस्तत्र यो न निस्यिति तस्य प्रथमः, यस्तु चरमशरीरतयोत्पत्स्यतेतस्य द्वितीयः,अबन्धकालेतृतीयः,चरमशरीरस्य चचतुर्थः, एवमन्यत्रापि 'अलेस्सेचरमो'त्तिअलेश्यः-शैलेशीगतः सिद्धश्च, तस्य चवर्तमानभविष्यत्कालयोरायुषोऽबन्ध
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