Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 05
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
View full book text
________________ श्रीजीवाजीवाभिगम-सूत्रम् :: अ० 1 तृतीया प्रतिपत्तिः ] [ 353 लवणे णं भंते ! समुद्दे किं ऊसितोदगे कि पत्थडोदगे कि खुभियनले कि श्रखुभियजले ?, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे ऊसियोदगे नो पत्थडोदगे खुभियजले नो अवखुभियजले 1 / जहा णं भंते ! लवणे समुद्दे श्रोसितोदगे नो पत्थडोदगे खुभियजले नो अक्खुभियजले तहा णं बाहिरगा समुद्दा कि ऊसियोदगा पत्थडोदगा खुभियजला अक्खुभियजला ?, गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सितोदगा पत्थडोदगा नो खुभियजला अक्खुभियजला, पुराणा पुराणप्पमाणावोलट्टमाणावोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति 2 / अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो अोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति वा ?, हंता अत्थि 3 / जहा णं भंते ! लवणममुद्दे बहवे अोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छति वासं वासंति वा तहा णं बाहिरएसुवि समुद्देसु बहवे अोराला संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति ?, णो तिण8 समढे 4 / से केण?णं भंते ! एवं वुञ्चति बाहिरगा णं समुद्दा पुराणा पुराणप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडियाए चिट्ठति ?, गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्रमति विउकमंति चयंति उवचयंति, से तेण?णं एवं उच्चति-बाहिरगा समुद्दा पुराणा पुराणप्पमाणा जाव समभरघडताए चिट्ठति 5 ॥सू० 161 // लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उब्वेहपरिवुडीते परागत्ते ?, गोयमा ! लवणस्स गण समुदस्स उभोपासिं पंचाणउति 2 पदेसे गंता पदेसं उव्वेहपरिवुडीए पगणत्ते, पंचाणउति 2 वालग्गाई गंता वालग्गं उव्वेहपरिवुड्डीए पराणत्ते, पचाणउति 2 लिक्खायो गंता लिक्खा उव्वेहपरिवुड्डीए पराणत्ते, पंचाणउइ जवानो जवमज्झे अंगुलविहत्थि-रयणी-कुच्छी धणु गाउय-जोयण-जोयणसत-जोयणसहस्साई गंता जोयणसहस्सं उब्वेहपरिवुड्डीए 1 / लवणे णं भंते ! समुद्दे केवलियं उस्सेहपरिवुड्डीए पराणत्ते ?, गोयमा ! लवणरस .णं. समुदस्स उभश्रोपासिं

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456