Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 13
________________ और प्रत्येक विषय का बहुत ही सुन्दर तथा सागोपाग वर्णन इस शास्त्र मे है। वर्णन शैली भी इसकी * अनूठी है। इसके कुछ विषय अन्य सूत्रो मे भी आ गये है, जैसे अवगाहना व स्थिति प्रकरण प्रज्ञापनासूत्र * मे है। काल व पल्योपम आदि का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा भगवतीसूत्र मे है। किन्तु यहाँ पर प्रसंग आने से वह विषय अनुक्रम मे प्रस्तुत है। __ प्रमाण प्रकरण, काल प्रकरण का विषय तो काफी विस्तृत है तथा रोचक और ज्ञानवर्द्धक भी है। मैने ध्यान रखा है जहाँ पर आवश्यक था वहाँ विवेचन मे उस विषय का विस्तार भी किया है। हमारे सम्पादन का आधार ___ अनेक टीकाओ के अवलोकन पश्चात् हमने अनुवाद व विवेचन की भाषा-शैली सरल, सुबोध तथा मध्यम विवेचन वाली रखी है, क्योकि अधिक लम्बा विवेचन करने से तो इसका विस्तार और अधिक हो जाता। ____ अस्तु, अन्य आगमो से अनुयोगद्वारसूत्र की शैली तथा प्रतिपाद्य कुछ भिन्न है। इसमें पारिभाषिक शब्दो की बहुलता होने से अर्थ-बोध इतना सरल नही है। इसलिए हमने अनुवाद तथा विवेचन में ही विशेष पारिभाषिक शब्दो को भिन्न टाइप मे देकर वही पर अर्थ व व्याख्या करने का ध्यान रखा है जिससे कि पाठक को बार-बार पृष्ठ पलटने नही पडे। अग्रेजी अनुवाद में भी पारिभाषिक शब्दों के अर्थ वहीं पर कोष्ठक मे दिये गये हैं। इसके अनुवाद विवेचन मे हमने निम्नलिखित पुस्तकों को अपना आधार माना है जैनागम रत्नाकर श्रमण संघ के प्रथम आचार्यसम्राट् आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने सर्वप्रथम प्राचीन टीका आदि के आधार पर हिन्दी मे अनुयोगद्वार की हिन्दी टीका लिखी थी, जो बहुत ही सरल और सुबोध शैली में है। दो भागो मे उसका प्रकाशन हुआ। प्रथम भाग का प्रकाशन सन् १९३१ मे श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेस, मुम्बई से तथा उत्तरार्ध का प्रकाशन पटियाला से हुआ। परन्तु वर्तमान मे उसकी उपलब्धता बहुत ही दुर्लभ हो रही है। __आचार्यसम्राट श्री आत्माराम जी महाराज के विद्वान् शिष्यरल आगमो के गम्भीर अध्येता श्री ज्ञान मुनि जी महाराज ने आचार्यश्री की सम्पादित टीका को अति विस्तृत रूप देकर पुनः सम्पादित किया है, जो एक प्रकार से सर्वथा नया व्याख्या ग्रन्थ ही बन गया है। यह आत्मज्ञान पीयूषवर्षिणी टीका नाम में से प्रकाशित है। इसका सम्पादन मुनि श्री नेमीचन्द्र जी महाराज ने किया है। दो भागो मे यह ग्रन्थ आज उपलब्ध है और व्याख्याकार के गम्भीर व्यापक ज्ञान का साक्षीभत है। हमने विवेचन मे इस ग्रन्थ को आधारभूत माना है। ___ आगम समिति, ब्यावर से प्रकाशित युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी के निर्देशन मे श्री केवल मुनि जी द्वारा अनूदित तथा पं. शोभाचन्द जी भारिल्ल द्वारा सशोधित अनुयोगद्वारसूत्र भी हमारे लिए मूल पाठ व विवेचन मे उपयोगी बना है। अणुओगदाराइं नाम से आचार्य महाप्रज्ञ जी द्वारा सम्पादित जैन विश्वभारती, लाडनूं द्वारा प्रकाशित * ग्रन्थ भी हमारे विवेचन मे काफी उपयोगी तथा सहायक बना है। (13) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 627