Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): K R Chandra, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
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सम्पादकीय
श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित प्राचीनतम अर्धमागधी आगम-ग्रंथ आचारांग के पाठ और पाठान्तरों का ध्यान से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि हस्तप्रतों में भाषिक दृष्टि से पाठान्तरों की बहुलता है और इस संस्करण में कई स्थलों पर प्राचीन शब्द-रूप पाठान्तरों में रखे गये है । ऐसा भी देखने को मिला कि एक ही शब्द के प्राचीन और परवर्ती काल के अलग अलग रूप एक साथ प्रयुक्त हुए हैं। अलग अलग संस्करणों में भी पाठों की एक रूपता नहीं है । कहीं पर प्राचीन शब्द-रूप का प्रयोग है तो कहीं पर परवर्ती काल का शब्द है । हस्तप्रतों में भी इसी तरह की विषमता पायी जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा की प्राचीनता अक्षुण्ण नहीं रह सकी है। इस पर से ऐसा विचार आया कि अर्धमागधी के यथाशक्य मौलिक स्वरूप को स्थापित किया जाय और उसके आधार से नमूने के रूप में आचारांग के एक अध्ययन का भाषिक दृष्टि से सम्पादन किया जाय ।
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इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अर्धमागधी की प्राचीनता और उसके स्वरूप के विषय में तीन ग्रंथ प्रकाशित किये गये । प्रथम ग्रंथ 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में, १९९२ ' प्रकाशित किया गया । इसमें मुख्यतः अर्धमागधी प्राकृत के काल और उसके प्रदेश पर प्रकाश डाला गया है। दूसरे ग्रंथ ' रेस्टोरेशन ऑफ दी ओरिजिनल लैंग्वेज ऑफ अर्धमागधी टेक्स्ट्स, १९९४' में दश शब्दों के हस्तप्रतों में उपलब्ध विविध स्तर के अनेक शब्द-रूपों का अध्ययन किया गया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि कभी कभी प्राचीन ताड़पत्र की प्रतियों में परवर्ती काल के शब्द-रूप मिलते हैं तो कभी कभी परवर्ती काल की कागज़ की प्रतों में प्राचीन शब्द-रूप प्राप्त होते हैं । ऐसी अवस्था में जहां पर भी प्राचीन शब्द-रूप मिलता हो उसे ही क्यों नहीं स्वीकृत किया जाना चाहिए ? तीसरे ग्रंथ 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी, १९९५' में यह दर्शाया गया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का प्रायः लोप और महाप्राण व्यंजनों का 'ह' कार में प्रायः परिवर्तन प्राकृत वैयाकरणों के नियम अर्धमागधी प्राकृत पर कितने प्रमाण में लागू हो सकते हैं तथा जिन जिन कारकों के एक से अधिक विभक्ति-प्रत्यय प्राकृत
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