Book Title: Acharanga Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 805
________________ AA - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ सू. १ सजीवपरिमाणम् ६५३ "पडप्पना तसकाइया केवइकालस्स निल्लेवा सिया ? गोयमा! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्तपुहत्तस्स, उक्कोसतएवि सागरोरमसयसहसपुहत्तस्स" ॥ इति । विरहापेक्षया प्रसानां निष्क्रमणमुपपातच जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु मतरस्यासंख्येयभागप्रदेशपरिमाणाः । वसेपु जीवानां नैरन्तर्येणोत्पत्तिनिष्क्रमो वा जघन्येनैक समयं द्वौ समयौ त्रीन् वा समयान् भवति । उत्कृष्टतस्त्वावलिकाया असंख्येयमागपरिमितं कालं सततमेवोत्पत्तिनिष्क्रमो वा भवति। नैरन्तर्येणेकजीवस्यावस्थानं तु जघन्यतोऽन्तमुहूर्त उसकाये भवति, तदनु स पृथिव्यायेकेन्द्रियेषु समुत्पद्यते । उत्कृष्टत: सातिरेकं सागरोपमसहस्रद्वयं सततं नैरन्तर्येण सकाये तिष्ठति । ततः "पत्युत्पन्न उसकायिक जीव कितने काल के बराबर हैं ? गौतम ! जघन्य पद में एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम के बराबर और उत्कृष्ट पद में भी इतने ही है। विरह की अपेक्षा स जीवों का निष्क्रमण और उपपात जघन्य एक, दो या तीन हैं, और उत्कृष्ट प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के बराबर है। उसकाय में जीयों को निरन्तर उत्पत्ति या ध्यवन जघन्य एक समय, दो समय, तीन समयतक है। उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग परिमित काल तक निरन्तर उत्पत्ति और व्यवन होता रहता है । निरन्तर एक जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तक उसकाय में होती है और उसके बाद वह पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय में उप्तन्न होता है। उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार सागरोपमतक निरन्तर सकाय में ठहर सकता है। तत्पश्चात પ્રત્યુત્યને ત્રસકાયિક જીવ કેટલા કાલની બરાબર છે ? ગૌતમ! જઘન્ય પદમાં એક લાખથી નવલાખ સુધીનો સાગરેપમની બરાબર અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એટલાં જ છે.” વિરહની અપેક્ષા ત્રસ જુનું નિષ્ક્રમણ અને ઉપપાત જઘન્ય એક, બે અથવા ત્રણ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પ્રતરના અસંખ્યાતમ ભાગવત્તી પ્રદેશોની બરાબર છે. ત્રસકાયમાં જીની નિરંતર ઉત્પત્તિ અથવા નિષ્ક્રમણ (યવન) જઘન્ય એક સમય, બે સમય અથવા ત્રણ સમય સુધી છે. ઉત્કૃષ્ટ આવલિકાના અસંખ્યાતમા ભાગ પરિમિત કાલ સુધી નિરંતર ઉત્પત્તિ અને નિષ્ક્રમણ (નિકળવું) થતું રહે છે. નિરંતર એક જીવની સ્થિતિ જઘન્ય અનહીં સુધી ત્રસકાયમાં હોય છે. અને તે પછી તે પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ કાંઈક અધિક બે હજાર સાગરોપમ સુધી

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