Book Title: Acharanga Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 827
________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ . ६ त्रसहिंसाया ग्रन्थादिता ६६७ मारे, एस खलु णरए, इच्चत्यं गढ़िए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेदि तसकायसमारंभेण, तसकायसत्यं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ || सू० ६ ॥ छाया--- स तद् संबुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतोsनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेषां ज्ञातं भवति - एष खलु ग्रन्थः एप खलु मोहः, एष खलु मारः, एप खलु नरकः । इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शनैः senteenमेण सकायशस्त्रं समारभमाणोऽन्यान् अनेकरूपान माणान् विहिनस्ति || सू० ६ ॥ टीका यः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्प, अनगाराणां वदीयश्रमण निर्ग्रन्थानां वा अन्तिके श्रुत्वा, आदानीयम् उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं, समुत्थाय = अङ्गीकृत्य, विरहति स तत् सकायसमारम्भणं संयुध्यमानः = अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन् एवं विभावयति--- ग्रन्थ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । लोलुप लोग नाना प्रकार के शत्रों द्वारा काका आरंभ करके, सकायका आरंभ करते हुए अनेक प्रकारके अन्य प्राणियोंका ( भी ) विराधाता करते हैं || सू० ६ ॥ टीकार्थ जो पुरुष भगवान् तीर्थंकर के मुख से अथवा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ श्रमणों के मुख से सुनकर सर्व सावद्य के व्यागरूप चारित्र को अंगोकार करके विचरता है, वह साय के समारंभ को अहितकर और अयोधिजन समझता है । वह इस प्रकार सोचता है ----- ગ્રન્થ છે, આ મેહુ છે, આ માર છે; આ નરક છે, લાલુપ લેાક નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રાદ્વારા ત્રસકાયના આરંભ કરીને, ત્રસકાયને! આરંભ કરતા થકા અનેક પ્રકારના અન્ય પ્રાણીઓને પણ ઘાત કરે છે. સૂ॰ ૬| ટીકા? પુરૂષ ભગવાન તીર્થંકરના મુખથી અથવા તેમના અનુયાયી નિગ્રન્થ શ્રમણેાના મુખથી સાંભળીને સ સાવધ ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે તે ત્રસકાયના સમારલને અહિતકર અને અધિકર-અએધિ ઉત્પન્ન नार समते मा प्रभा पियार घरे छे

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