Book Title: Acharanga Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 837
________________ ६७५ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०९ उ. ६ सु. ८ उपसंहारः ज्ञपरिज्ञापूर्विका मत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति तं प्रकारं दर्शयति-तत् परिज्ञाये'-त्यादि । त-सकायारम्भणम् , परिताय कर्मवन्धस्य कारणं मवतीत्यवयुध्य, मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं उसकायशस्त्रं समारमेत व्यापारयेत् , अन्यैवां नैव उसकायशवं समारम्भयेद , प्रसकायशस्वं समारभामाणान् अन्यान् वा न समनुजानीयात्म्नानुमोदयेत् । ___ यस्यैते त्रसकायसमारम्भावसकायोपमर्दकसावद्यच्यापाराः, परिज्ञाता:ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः, प्रत्याख्यानपरिजया च परिहता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा-त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसापद्यव्यापारः, मुनिर्भवति । 'इति ब्रवीमि ' इति । अस्य व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ ०८॥ ॥ इत्याचाराममूत्रस्याचारचिन्तामगिटीकायां मथमाध्ययने पप्ठ उद्देशकः संपूर्णः ॥ ज्ञपरिज्ञापूर्वक होने वाली प्रत्याख्यानपरिज्ञा का स्वरूप शास्त्रकार दिखलाते हैं उसकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर बुद्धिमान् अर्थात् हैय-उपादेय का विवेकी पुरुष स्वयं बसकाय के शस्त्र का उपयोग न करे, दूसरों से उसकाय के शस्त्र का उपयोग न करावे और उसकाय के शन का उपयोग करनेवाले का अनुमोदन न करे । जिसने उसकाय का घात करने वाले सावध व्यापारों को परिक्षा से बंध का कारण समझ लिया है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण तीन योग से सर्व सावध व्यापारों का ज्ञाता पुरुप मुनि होता है । त्ति बेमि' पदको व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए ।। सू० ८॥ श्री आचाराङ्गमूत्रके प्रथम अध्ययन का छठा उद्देश समाप्त १-६॥ રૂપરિક્ષાપૂર્વક થવાવાળી પ્રત્યાખ્યાનપરિસાનું સ્વરૂપ શાસ્ત્રકાર બતાવે છેત્રસકાયના આરંભને કર્મબંધનું કારણ જાણીને બુદ્ધિમાન અર્થાત્ હેય-ઉપાદેયનો વિવેકી પુરૂષ પિતે ત્રસકાયના શસ્ત્રને ઉપયોગ કરે નહિ, બીજા પાસે ત્રસકાયના અને ઉપગ કરાવે નહિ, અને ત્રસકાયના અને ઉપયોગ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જેણે ત્રસકાયને ઘાત કરવાવાળા સાવધ વ્યાપારને જ્ઞપરિણાથી બંધનું કારણ સમજી લીધું છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી ત્યજી દીધું છે. તે ત્રણ કરણ, ત્રણ ચોગથી सर्वसावधयापारीना ज्ञात-mst२ ५३५ मुनि डाय छे. 'त्ति वेत्ति' पनी व्याया પહેલાં પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. સૂ૮ શ્રી આચારાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનનો છઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત, ૧દા

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