Book Title: Acharanga Sutra Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 882
________________ ७१२ इति प्रवीमि इति तत्सर्वं प्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथया " मीत्यर्थः ॥ ०६ ॥ अथ पजीवनिकायारम्भकरणेन कर्मबन्धो भवतीत्याह-' एत्यपि इत्यादि । मूलम् एपि जाण उपादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणाविणयं वयंति, छन्दोवणीया अज्झोववरण आरंभसत्ता पकरंति संगं ॥ सू० ७ ॥ छाया - " अवापि जानीहि उपादीयमानाः ये आचारो न रमन्ते, आत्ममाणा विनयं वदन्ति छन्दोपनीता अध्युपपन्नाः, आरम्भसक्ताः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् ॥ सू० ७ ॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं - यह सब भगवान् के समीप जैसा सुना है, वैसा कहता हूँ || सू० ३ ॥ 2 are यह कहते हैं कि-पड़जीवनिकाय का आरंभ करने से कर्मबंध होता है:-- 'पत्थपि . ' इत्यादि । मूकार्थ--वायुकाय के विषय में भी आरंभ करने वाले, कर्मों से बद्ध होते हैं, ऐसा समझो। जो आचार में रमण नहीं करते आरम्भ करते हुए भी अपने को चिनय (चारित्र) वाले मानते है, इच्छानुसार चलते है, गृद्ध हैं और आरम्भ में आसक्त हैं वे कर्मों उपार्जन करते हैं || सू० ७ ॥ સુધાં સ્વામી કહે છેઃ~~~આ સ* ભગવાનની સમીપમાં જેવું સાંભળ્યું છે તેવુંજ કહું છું. If ૬ In - હવે એ કહે છે કે-જીવનિકાયના આરલ, કરવાથી કમખલ થાય છેઃ'grify.' Jule, ; મૂલા વાયુકાયના વિષયમાં પણ આરંભ કરવાવાળા, કર્મોથી ખદ્ધ થાય છે એ પ્રમાણે સમજો. જે આચારમાં સ્મણુ કરતા નથી, આરંભ કરતા થકા પણ પેાતાને विनय (यारित्र) वाणा भाने छे, छानुसार थाले छे, शुद्ध छे, मने सारसभां भासहत छे, ते भान पुरे हे ॥ सू० ७ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915