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गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बडे बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता है।
इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समान | खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजांची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कर्म करता हैं । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद ।
इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है ।
संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । 'सब धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं ब्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि......धम्म सरणं गच्छामि ।' और 'केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पञ्चज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत
दरवाजे खले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है। जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है।
परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यावाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है ।
आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुरुजी तलाश रहे थे जो सारे रहस्य खाल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके।
ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे-उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज | उन्हेंनि जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री
जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुलजीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलनी रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है-'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैनागमों में निर्दिष्ट
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