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आलोचना का समय, तथा किमके निकट श्रासोचनालेनी चाहिये इस पर विचार, आमत्रमरण जीव केजी पालोचना लेने में ब्राह्मण कादष्टान्त, अदत्तालोचन पर व्याध का शान्त, आलोचना के प्राव और दश स्थानक, कृत कर्मों की क्रम से मालोचना लेनी चाहिये, पालोचना न लेकर मृत होने पर दोष, और पालोचना का फला इत्यादि विषय प्रावश्यकीय हैं। १२-'पासायणा' शब्द पर अाशातना करने में दोष, और आशातना का फल इत्यादि विवेचन देखने के योग्य है। १३-'भाहार' शब्द पर 'सयोगी केवली, अनाहारक होते हैं। इस दिगम्बर के मत का खान, केवनियों के आहार और नीहार प्रच्छन्न होते हैं इस पर विचार, प्रथिवीकायिकादिकों के आहार का निरूपण, तथा वनस्पतियों का, कोपरिस्थ वृक्षों का, मनुष्यों का, तिर्यग्नलचरों का, स्थायर सादिकों का, खेचरों का, विकलोन्धियों का, पञ्चेन्द्रियों के मत्र पुरीषों से उत्पन्न जीवों का माहार तेजस्कायिक और वायुकायिक के आहार का निरूपण.और मचित्ताहार का प्रतिपादन. यावग्जीव पाणी कितना श्राहार करता है इसका परिमाण, आहार के कारण, माहारत्याग का कारण. और आहार करने का प्रमाण, भगवान ऋषभ स्वामी के द्वारा कन्दाहारी युगलियों का अनाहारी होना इत्यादि विषय हैं।
१४- इंदिय ' शब्द पर इन्द्रियों के पाँच नेद होने परजी नामादि भेद से चार लेद, नथा व्यादि भेद से दो जेद, और इन्द्रियों के संस्थान (रचना), इन्द्रियों के विषय, नेत्र और मन का अप्राप्यकारित्व, अवशिष्ट इन्श्यिों का प्राप्यकारित्व, और इन्धियों के गुप्तागुप्त दोष का निरूपण आदि विषय द्रष्टव्य हैं।
१५-इत्यी' शब्द परस्त्री के लक्षण, स्त्रियों के स्वभाव जानने की आवश्यकता, और उनके कृत्यों का वर्णन, स्त्रीसंबन्धमें दोष, स्त्रियों के साथ विहार नहीं करना, स्त्री के साथ संबन्ध होने से इसी लोक में फस, स्त्री के संसर्ग में दोष, भोगियों की विमम्बना, विश्वास देकर स्त्रियों के अकार्य करने का निरूपण, स्त्रियों के स्वरूप और शरीर की निन्दा, वैराग्य उत्पन्न होने के लिये स्त्रीचरित्र का निरीक्षण, स्त्रियों की अपवित्रता, प्राणी का सर्वस्व हरण करने वाली और बन्धन में विशेष कारण स्त्रियां हैं, उनके स्नेह में फसे हुए पुरुष को दुःखप्राप्ति, स्त्री का संबन्ध सर्वथा त्याज्य है इमका निरूपण, और नसके त्याग के कारण, स्त्री के हस्तस्पर्श करने का निषेध, तया स्त्री के साथ विहार, स्वाध्याय, आहार, उच्चार, प्रस्रवण, परिष्ठापनिका, और धर्मकथादि करने का भी निषेध इत्यादि बहुत अच्छे २० विषय अष्टव्य हैं।
१६-'इस्सर' शब्द पर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का खएमन, तथा ईश्वर के एकत्व और विजुत्व का खण्डन, अन्य तीर्थकों के माने हुए ईश्वर का खएकन आदि विषय विचारने के योग्य हैं।
१७-'उरणा' शब्द भी इष्टव्य है, और 'उववाय' शब्द पर ३० विषय ध्यान रखने के योग्य हैं, जैसे-देवता देवलोक में क्यों उत्पच होते हैं, अविराधित श्रामण्य होने पर देवलोक में उपपात होता है, और नैरयिक कैसे उत्पन्न होते हैं इत्यादि विषयों पर विचार है।
१८-'उचसंपया' शब्द पर प्राचार्यादि के काल कर जाने पर साधु के अन्यत्र गमन करने पर विचार, हानि और वृद्धि की परीक्षा करके कर्तव्याकर्तव्य का निरूपण, भिक्षु का एक गण से निकल कर दूसरे गण में प्राप्त हो के विहार, तथा इसीका दूसरा प्रकार, कुगुरु होने पर अन्यत्र गमन करना इत्यादि विचार है ।
१५-'उवसग्ग' शब्द पर उपसर्ग की व्याख्या, उपसर्गकारी के भेद से नपसर्ग के नेद, और उपसर्ग का सहन, तथा संयमों का रूक्षत्व आदि विषय हैं।
२०-'उहि शब्द पर नपधि के भेद, जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिकों के उपधि, जिन कहिपक और गच्छ. वासियों के उपधि में उत्कृष्ट विभाग प्रमाण, उपधि के न्यूनाधिक्य में प्रायश्चित्त, प्रथम प्रव्रज्या के ग्रहण करने पर उपधि, प्रव्रज्या को ग्रहण करती हई निग्रन्थी के उपधि, रात्रि में अथवा विकाल में उपधि का ग्रहण, भिक्षा के लिये गये हुए साधु के उपकरण गिर जाने पर विधि, स्थविरों के ग्रहण योग्य उपधि, माध्वियों को जो उपधि देता हो उसे उनके प्राने के माग में रख देना चाहिये इत्यादि विषय उपयोगी हैं। १-उसन' शब्द पर पभस्वामी के पूर्व नव का चरित्र, ऋषभस्वामी के तीर्थङ्कर होने में कारण, ऋषजस्वामी का जन्म और जन्ममहोत्सव, ऋषजस्वामी के नाम, और उनकी वृद्धि, और उनका विवाह, पुत्र, नीतिव्यवस्था. राज्यालिषेक, राज्यसंग्रह, लोकस्थिति के लिये शिस्पादि का शिक्षण, वास, तदनन्तर ऋषजस्वामी के पुत्र का
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