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(३१) राज ने अनुग्रह करके सिपहेम सूत्रों पर श्लोकवक विवरण रचकर सरल कर दिया, जो कि कोश के प्रथम भाग के परिशिष्टों में संकलित कर दिया गया है। क्योंकि जिस भाषा का ज्ञान अपेक्षित होता है उसके व्याकरण की बझी श्रावश्यकता होती है, अर्थात विना व्याकरण के किसी भाषा का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। इस लिये परिले उसको एक वार खूब मनन करके पीछे कोश को देखने से विशेष आनन्द आवेगा।
६-यद्यपि महानिशीथ सूत्र में टीका या चूर्णि नहीं पायी जाती, तथापि हमारी पुस्तक में चतुर्थाध्ययन की समाप्ति में लिखा है कि-"अत्र चतुर्याध्ययने बहवः सघान्तिकाः, केचिदालापकान सम्यक् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानरस्माकमपि न सम्यक श्रद्दधानमित्याह हरिजद्रसूरिः,न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनमन्यानि वाऽध्ययनानि । अस्यैव कतिपयैः परिमितैरामापकैरश्रद्दधानमित्यर्थः । यतः स्यानसमवायनीवाभिगमप्रझापनादिषु न कथञ्चिदिदमाचके, यथा प्रतिसंतापस्थलमस्तितद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु च परमाधार्मिकाणां पुनः सप्ताष्टवारान यावदुपपत्नस्तषां च तैर्दारुणैर्वजशिलाघरदृसंपुटैगिलितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत् पाणव्यापत्तिर्न नवतीति। वृक्षवादस्तु पुनर्यथा-तावदिदमार्षसूत्र, विकृतिर्न तावदत्र प्रविष्टा, अनूताश्चात्र श्रुतस्कन्धे अर्थाः, शुघातिशयेन सातिशयानि गणधरोक्तानि चेह वचनानि, तदेवं स्थिते न किश्चिदाशनीयम् ।।" इसके बाद फिर ' एवं कुशीलसंमगि सव्वोपाएहिं पयहियं' इत्यादि एञ्चमाध्ययन का प्रारम्भ है । इसीतरह कहीं ५ चर्णि जी मिलती है जैसे इसी कोश के प्र० भा० 'अरहंत' शब्द पर ७५६ पृष्ठ में मूल और चूणि दोनों हैं । और 'एस समासत्यो' 'वित्यरत्यं तु श्मं ' ऐसा हमारे पुस्तक के ६ पत्र २ पृष्ठ २६ पति में लिखा है।
७-सूत्रकृता की गाथाएँ कई अध्ययनों में ऐसी टूटीसी मालूम पड़ती हैं जैसे उन्दोभङ्गवाली हों, किन्तु प्रायः वे नी बन्दालक्षणविहीन नहीं हैं, क्यों कि बहुत से ऐसे भी बन्द हैं जो पढ़ने में असगत से मालूम होते हैं किन्तु लक्षण से पूर्ण सङ्गत हैं। क्योंकि प्राकृत पिङ्गलसूत्र में चन्द्रलेखा-चित्र-नाराच-नील-चञ्चला-ऋषभगविलसित-चकिता-मदनललिता-वाणिनी-प्रवरललित-गरुमरुत-अचलधृति बन्द जी विलक्षण हैं। जैसे मदन ललिता का यह उदाहरण है
" विष्टलग्गलितचिकुरा धौताधरपुटा, म्लायत्पत्त्रावलिकुचतटोच्छासोर्मितरला । राधाऽत्यर्य मदनललिताऽऽन्दोलालसवपुः,
कंसाराते रतिरसमहो चक्रे तिचटलम्" ॥१॥ और यदि कहीं पर किसी भी बन्द का लक्षण सङ्कत न हो तो वहाँ आर्ष उन्द समझना चाहिये।
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पैंतालीस आगमों के नाम, और उनकी मूबश्लोकसंख्या, और हर एक पर पृथक् पृथक् आचार्यों की निर्मित बृहद्वृत्ति, लघवृत्ति, नियुक्ति और नाष्यादिक, और उनका सोकसंख्याप्रमाण इस रीति से है
श्रीसुधर्मास्वामीकृत ग्यारह अङ्गो के नाम और व्याख्यासहित ग्रन्थप्रमाण१-प्राचाराङ्ग सूत्र, अध्ययन २५, मलइलोकसंख्या २५००, और उसपर शीलानाचार्यकृत टीका १२०००, चूणि ८३००, तथा भद्रबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा ३६७, श्लोक ४५०, (नाष्य और लघुवृत्ति इस पर नहीं है ) । संपूर्णसंख्या २३२५० है।
-सूत्रकृताङ्ग सूत्र, श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन २३, मूलश्लोकसंख्या २१००, और उसपर शीलाझाचार्यकृत टीका १२८५०, चूणि १००००, तथा भबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा २०७, श्लोक २५०, (लाष्य नहीं है ) संपूर्ण संख्या २५३०० है । संवत् १५७३ में नवीन श्रीहेमविमलसूरि ने दीपिका टीका बनायी है, किन्तु वह पूर्वाचार्यों की गिनती में नहीं है।
३-स्थानाङ्ग सूत्र, अध्ययन ( ठाणा ) १०, नूललोकसंख्या ३७७० , और उसपर संवत् ११३० में अभयदेवसूरि ने टीका बनायी है, उसका मान १५२५० है, संपूर्ण संख्या १५०२० है।
४-समवायाङ्ग सूत्र, (१०० समवाय तक समवाय मिन्नते हैं ) मूलश्लोकसंख्या १६६७, और उसपर अजयदेयमूरिकृत टीका ३७७६, चूर्णि पूर्वाचार्य कृत ४००, संपूर्ण संख्या ५०४३ है।
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