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(३५) १-विशेषावश्यकसूत्र, [ आवश्यकसूत्र मूल (सामायिकाध्ययन) का विशेष परिकर है ] मूलसंख्या ५००० है। श्री. जिनभद्रगणितमाश्रमण कृत है, और इसकी बृहवृत्ति २८००० मलधारिहेमचन्धमूरिकृत है, लघुवृति १४००० कोटाचार्यकृत, या घोणाचार्यकृत है. बृहबृत्ति की टीका तर्कानुविद्या जैनस्थापनाचार्य कृत है। १-पाखी ( पाक्षिक ) सूत्र, मूल ३६०, सं० ११८० में यशोदेवमूरिकृत टीका २७००, चूर्णि ४०० है । २-पतिपतिक्रमणसूत्रवृत्ति ६०० है। श्-दशबैकालिक सूत्र, सय्यंभवसूरिकृत, मूल ७००, वृत्ति तिलकाचार्यकृत 90००, दूसरी वृत्ति हरिमंत्रमूरिकत ६०१०, और मलयागिरिकृत वृत्ति ७७००, चूर्णि ७५००, लघुवृत्ति ३७०० है । नियुक्तिगाथा-४५० है । आधुनिक सोमसुन्दरमरिकृत बघुटीका ४२००, तथा समयसुंदरउपाध्यायकृत लघुटीका २६०० है।
५-पिएडनियुक्ति, भद्रबाहुस्वामिकृत, मूलसंख्या ७००, इसपर टीका मलपगिरिकृत ७०००, दूसरी प्रति में ६६०० है, वि० सं० ११६० में वीरगणिकृत टीका ७५०० है और महामूरिकृत लघुवृत्ति ४००० है, संपूर्णसंख्या १५२००है।
३-भोपनियुक्ति, नद्रबाहुस्वामिकृत, मूलगाथा ११७० हैं, घोणाचार्यकृत टीका ७०००, और इसका भाष्य २००० है, चूर्णि ७००० है, संपूर्णसंख्या १८४५० है ।
४-उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३६ हैं,मनसंख्या २००० है,वादिवेताल शान्तिप्रिकृत बृवृत्ति [पाईटीका]१८००० है, दूसरी प्रति में १७६४५ [ बदमीवबजी टीका ] है, सं० ११२६ में नेमिक्मसूरि से कृत लघुवृत्ति १३६०० है, भद्रबाहुस्वामिकृत गाथानियुक्ति ६०७ है, और चूर्णि ६००० है, संपूर्णसंख्या ४०३०० ।
अब दो चूलिकासूत्र की संख्या और नाम१-नन्दीसूत्र, देवर्षिगणिक्षमाश्रमणकृत, मूलसंख्या ७०० है, इसपर मलयगिरिकृत वृत्ति ७७३५, चूर्णि सं० ७३३ में बनी हुई २००० है, हरिजद्रमूरिकृत लघुटीका २३१५ है, संपूर्णसंख्या १२७४७ है । चन्छसारिकत टिप्पण ३००० है।
५-अनुयोगद्वारसूत्र, गाया १६०० हैं, उसपर ममधारिहेमचन्धसूरिकृत वृत्ति ६००० है । जिनदासगणिमहत्तर कत चूर्णि ३०००, और हरिभद्रसूरिकृत लघुवृत्ति ३५०० है, इसतरह संपूर्णसंख्या १४३०० है ।
छ इस तरह ग्यारह अङ्ग, बारह उपाङ्ग, दस पइमा, उबेदमूत्र, चारमूलमूत्र, और दो चूलिकासूत्र मिलकर इस समय पैंतालीस भागमों की संख्या ली जाती है। इत्यसं विस्तरेण ।
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विशेष विज्ञापनइस पुस्तक के संशोधन में हमारे सतीर्थ्य मुनि श्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने पूर्ण परिश्रम किया है किन्तु लेखकों की लिखी हुई पुस्तकों के अत्यन्त जीर्ण होने से और प्रायः एकही एक प्रति के मिलने से भी कहीं कहीं त्रुटित गाथाएँ टीका का अवलम्बन लेकर प्रकरण और विषय के अविरोध से पूरी की गयी हैं उनमें यदि कहीं पर पाठ भेद हो गया हो तो सज्जनों को उसे ठीककर लेना चाहिये ।
निवेदक उपाध्याय मुनि श्री १०८ मोहनविजयजी
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