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छः बेदग्रन्थों के नाम और उनकी ग्रन्थसंख्या
११ - निशीथ सूत्र, उद्देश २०, मूलश्लोकसंख्या ८१५, और इस पर लघुजाष्य ७४००, और जिनदासगणिमहसर बिरचित चूर्णि २८०००, बृहद्भाष्य १२००० है, यह टीका के नाम से ही प्रसिद्ध है। बादुस्वामी की बनायी हुई नि युक्ति गाथाएँ है । संपूर्ण ग्रन्थसंख्या ४८३१५ है । शीलभसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ने वि० सं० १९७४ में व्याख्या की है । जिनदासगण महत्तर ने अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथचूर्णि, बृहत्करूपजाप्य, आवश्यकचूर्णि आदि कई एक ग्रन्थ बन. ये हैं ।
2- महानिशीथ सूत्र, अध्ययन 9, चूलिका २, मूल श्लोकसंख्या ४५००, मतान्तर में इसकी तीन वाचनाएँ हैं-१ लघुवाचना; ४२००; २ - मध्यवाचना ४५००; ३ बृहद्बाचना ११८०० है । किन्तु हमारी पुस्तक के अन्त में लिखा है कि" चत्तारि सरसहस्सा, पंचसयाश्रो तहेब पंचासं ॥
चारि सिल्लोगावी, महानिसीहम्मि पाएणं " ॥ १ ॥ ४५५४ ॥
३- बृहत्कल्पसूत्र, उद्देश ६, मूझसंख्या ४७३ है । इसपर सं ० १३३२ में बृहच्छालीय श्री क्षेमकीर्तिमूरिने ४२००० संख्यापरिमित टीका बनायी हैं । जाष्य जिनदासगणिमहत्तरकृत १२०००, लघुज्ञाप्य ८००, चूर्णि १४३२५, संपूर्ण ग्रन्थसंख्या ७६७०८ हुई। टीका में लिखा हुआ है कि - [ कः सूत्रमकार्षीत्, को वा निर्युक्ति, को वा जाष्यामिति १ । उच्यते - पूर्वेषु यन्नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्व तस्य यत्तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन विंशतिनाममानृते मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वाऽपराधेषु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितं, कालक्रमेण च दुष्षमानुभात्रतो धृतिबलवीर्यमुख्यायुः प्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि ततो मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेद इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण जगवता भाषाहुस्वामिना कल्पसूत्रं, व्यवहारसूत्रं चाकारि; उज्जयोरपि च सूत्रस्पर्शिक नियुक्ती ]
४- व्यवहारदशाकल्पच्छेद सूत्र, उदेश १०, दो खण्ड, मूलश्लोकसंख्या ६००, टीका मलयगिरिकृत ३३६२५, चूर्णि १०३६१, जाष्प ६००० हैं । निर्युक्ति की संख्या अज्ञात है। संपूर्ण ग्रन्य संख्या ५०७८६ है ।
५- पञ्चकल्पच्छेद सूत्र, अध्ययन १६, मूझसंख्या ११३३, चूर्णि २१३०, और दूसरी टीका की संख्या ३३००, जाय ३१२५, संपूर्ण संख्या ६३०८, और गाथासंख्या २०० है ।
६-दशाश्रुतस्कन्धवेदसूत्र, मूझसंख्या १०३५, अध्ययन १०, चूर्णि २२४५, नियुक्तिसंख्या १६८, संपूर्णसंख्या ४२४८ है । टीका श्रीब्रह्मविरचित है, इसका आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र १२१६ है जिसकी टीका कल्पसुबोधिका है * ।
9- जीतकल्पच्छेदसूत्र, मूलसंख्या १००, टीका १२०००, सेनकृत चूर्णि १०००, भाष्य ३१२४, संपूर्ण संख्या १६२३२ है, और चूर्णि की व्याख्या ११२० है, और इसकी लघुवृत्ति श्रीसा धुरत्नकृत ५७००, और तिलकाचार्यकृत वृत्ति १५०० है ।
साधुतिकल्पविस्तार ३७५, धर्मघोषसरिकृत वृत्ति २६५० है, और उसपर पृथ्वीचन्द्रकृत टिप्पण ६७०, और नियुक्तिगाथा १६८ वाहुस्वामीकृत है, इसकी चूर्णि और टीकाएँ बहुत है, परंतु प्रायः करके वि० सं० १२०० के पीछे की बनी हुई हैं ।
चार मूलसूत्रों की संख्या इस तरह है
१ - आवश्यक सूत्र, मूत्रगाथा १२५, टीका हरिजप्रसूरिकृत २२०००, निर्युक्ति भडवादुस्वामिकृत ३१००, चूर्णि १०००० है । दूसरी आवश्यकवृत्ति [ चतुर्विंशति ] २२००० है, उसकी लघुवृत्ति तिलकाचार्य कृत १२३२१ है, और अञ्चलगच्छाचार्यकृत दीपिका १२००० है, इसका भाष्य ४००० है, आवश्यक टिप्पण मलधारि हेमचन्द्रसूरिकृत ४६०० है | संपूर्ण संख्या ए८१४६ है, नियुक्ति की टीका हरिजसूरिकृत २२५०० है ।
* अर्थतो जगवता वर्डमानस्वामिना श्रसमाधिस्थानपरिज्ञानपरमार्थ उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वनेषु गणधरैः, ततोऽपि च मन्दमेघसामनुग्रहाय अतिशायिनिः प्रत्याख्यानपूर्वादुद्धृत्य पृथक् दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः । दशाध्ययनप्रतिपाद को ग्रन्थो दशा, स चासौ श्रुतस्कन्धः । दशाकल्य इति पर्य्यायनाम । अयं च प्रन्थोऽसमाधिस्थानादिपदार्थशासनाच्छास्त्रम् । - स्याष्टमाध्ययनं कल्पसूत्रमुच्यते, टीका चास्य कल्प-सुबोधिकेति ।
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