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इस नियुक्तिगाथा को चूमि है कि-एवंविधो काहितो जवति'। यहाँ पर नी कायिक के ककार को तकार किया हुआ है, इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये । यकार को धकार तो ' यो धः ' ।। ४ । २६७॥ और 'अनादौ स्वरादसंयुक्तानां कगतयपफां गपदधबभाः' | GI8| ३५६ । इत्यादि सूत्रों से होता है।
ए-संस्कृत शब्दों की सिधि तो पचास अक्षरों से है, परन्तु प्राकृत शब्दों की मिछि चालीस ही अक्षरों से होती है, क्योंकि स्वरों में तो ऋ,लऐ, औका अनाव है और व्यञ्जन में श, ष, तथा असंयुक्त , व मादि कई व्यञ्जनों का अनाव है।
१०-व्यञ्जनान्त शब्दों के व्यञ्जन का 'अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक' ।।८।२।११॥ इस सूत्र से लुक होजाने पर किसी शब्द का तो व्यञ्जनान्तत्वही नष्ट हो जाता है और किसी किसी का अजन्त में विपरिणाम हो जाता है, इसीनिये हलन्त शब्दों की सिधि के लिये कोई विशेष नियम नहीं है, केवल 'आत्मन् ' शब्द और 'राजन् ' शब्द की सिधि के लिये जो थोड़े से नियम नन्हींसे अन्य नकारान्त शब्दों की जी व्यवस्था की जाती है।
११-यदि किसी अन्य का पाठ कुछ बीच में जमकर फिर लिया है तो जहाँ से पाठ बूटा है वहाँ पर उसी अन्य का नाम इस बात की सूचना के लिये चलते हुए पाठ के मध्य में जी दे दिया है कि पाठक जम में न लें।
१२-माकृत लाषा में हिन्दी नाषा की तरह द्विवचन नहीं होता, किन्तु " द्विवचनस्य बहुवचनं नित्यम् " ॥ ८। ३।१३०॥ स सत्र से टिवचन के स्थान में बहवचन हो जाता है, इसलिये दित्वबोधन की जहाँ कहीं विशेष प्रावश्यकता होती है वहाँ द्वि शब्द का प्रयोग किया जाता है; और चतुर्थी के स्थान में षष्ठी “ चतुर्थ्याः षष्ठी" ।। ३ । १३१ ।। इस सूत्र से होती है।
१३-गाथाओं में पाद पूरे होने पर यदि सुबन्त अथवा तिडन्त रूप पद पूरा हो जाता है तो (,) यह चिह्न दिया नाता है और जहाँ पाद पूरा होने पर भी पद पूरा नहीं हुआ है वहाँ [-] ऐसा चिह्न दिया है ।
१४-बहुतसी जगह गाथाओं में शुरू या व्यञ्जनमिश्रित एकार स्वर आता है किन्तु उसकी दीर्घाझर में परिगणना होने से जो किसी जगह मात्रा बढ़ जाती है, उसको कम करने के लिये [ • ] ऐसा चिन्ह दिया गया है । यद्यपि 'दीर्घइस्वौ मिथो वृत्तौ' ।।७।१।४॥इस मूत्र से हस्व करने पर एकार को इकार हो सकता है, किन्तु वैसा करने से सर्वसाधारण को उसकी मूल प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये हत्ववोधक संकेत किया गया है, इसीतरह व्याकरणमहाभाष्य में जी लिखा है कि-" अर्थ एकारः, अर्ध ओकारो वा इति राणायनीयाः पठन्ति" । और वाग्लटविरचित प्राकृत पिङ्गलसूत्र में भी लिखा है कि
"दीहो संजुत्तपरो, विन्दुजुओ पामित्रो अचरणंते ।
स गुरू वंक उमनो, अमो बहु होइ सुध एक्ककझो"। इस तरह गुरु लघु की व्यवस्था करके लिखते हैं कि
'कत्य वि संजुत्तपरो, वप्लो बहु होइ दंसणेण जहा ।
परिसइ चित्तधिज्ज, तरुणिकडक्खम्मिणिबुत्तं ॥ दूसरा अपवाद- 'इहिकारा विन्दजुश्रा, एप्रो सुखा अवस्ममिलि पा विलह ।
रहवंजणसंजोए, परे असेस पि सविहासं'* ॥ उदाहरण- 'माणिणि ! माणहिँ काइँ फल, ऍओं में चरण पमु कन्त ।
सहले नुअँगम जइ णमइ, किं करिए मणिमन्त ?' ॥ दसरा विकल्प- 'जइ दीहो वि अवएणो, सह जीही पढइ सो वि बहू ।
वमो वितरियपढिो , दो तिमि वि एक जाणेद" ॥ उदाहरण- 'अरेरे वाहहिं कान्ह ! णाव गोटि डगमग कुगति ण देहि ।
तइ इयि एदिहि सतार दे, जो चाहसि सो बेहि" ॥ * इकारहिकारौ बिन्ध्युतौ एपी शुकौ च वर्णमिलितावपि लघू । रेफहकारी, व्यञ्जनसंयोगे परेऽशेषमपि सविभापम् ॥ * यदि दीर्घमपि वर्ण बघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः । वौँ अपि त्वरितपवितौ द्वौ त्रयो वा पकं मानीत ॥
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