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( १० ) अभिषेक ऋष स्वामी का दीक्षा कल्याणक, और उनके चीवरधारी होने का कालप्रमाण, जिज्ञाकाल का प्रमाण, ऋषभस्वामी केा भव का श्रेयांसकुमार के द्वारा कथन, ऋषभनाथ का श्रामण्य के बाद प्रवर्तनप्रकार, श्रामण्यावस्थावर्णन, केवलोत्पस्यनन्तर धर्मकथन, ऋषभस्वामी के बन्दनार्थ मरुदेवी के साथ जरत का गमन, और जरत का दिग्विजय, ब्राह्मणों की उत्पत्ति का प्रकार, ऋष स्वामी की सङ्घमङ्ख्या, और उनके केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद कितने कालानन्तर का सिद्धिगमन प्रवृत्त हुवा, और कब तक रहा, ऋषजस्वामी के जन्मकल्याणकादि के नक्षत्र, और उनके शरीर की संपत्ति, शरीर का प्रमाण, कुमारावस्था में तथा राज्य करने के समय म और गृहस्यावस्था में जितना काल है उसका मान, ऋषभस्वमी का निर्वाण इत्यादि विषय स्थित हैं ।
इस से अतिरिक्त भी विषय इस भाग में स्थित हैं जिनका विस्तार के भय से निरूपण नहीं हो सकता ।
द्वितीय भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें माई हुई हैं उनकी नामावली
‘आउ' ‘नाणंद,' 'आधाकम्म' 'आपई,' 'आभीरचंचग,' 'प्रायरिय,' 'आराढ्णा, 'आरुगदिय' 'आलंबण' 'आलोयणा.' 'आसाकनृइ,' 'इंद्रदत्त' 'इंदज़इ,' 'इच्छकार ' 'इत्थिपरिसह, ' 'इत्थी' 'इलापुत्त' 'इसिभद्दपुत्त' 'इसि भासिय,' 'इस्सर,' 'उनंभरदत्त' 'नक्कम,' 'नवघायमाण,' 'उज्जयंत,' उज्जुमतित्रवहार,' 'उज्जुववहार' 'उज्झियय,' 'उएहपरीसह,' 'उदयश्ण,' 'उदय'पनसूरि,' 'उद्देसिय, 'उप्पत्तिय', 'उप्पत्तिया, 'उन्न,' 'उबवूह' 'उवसंपया, ' 'उवहि,' 'उवालंन' 'उस्सारकप्प' इत्यादि शब्दों पर कथायें द्रष्टव्य हैं ।
तृतीय जाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय
१-‘एगलावेहार' शब्द पर एकाकी विहार करने में साधू को क्या दोष होता है इस पर विचार, एका कीवेडारियों के नेद, शिवादि कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, गण को छोम कर एकाकी विहार करने पर प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं ।
2- ' गावा' शब्द पर आत्मा का एकत्व मानने वालों का खएन, तथा एक मानने में दोष, अद्वैतवाद ( पुरुषाद्वैत ) का खण्डन विस्तार से है ।
३– एसणा ' शब्द पर १४ विषय दिये हैं वे भी साधू और गृहस्थों के देखने योग्य हैं, जैसे- साधू को किस प्रकार भिक्षा लेना, और गृहस्थ को किस प्रकार देना चाहिये इत्यादि ।
४- 'गाणा' शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक शरीर की अवगाहना (क्षेत्र) कामान, द्वित्रिचतुरिन्धि
मान,
की दारिकावगाहना, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियों की औदारिकावगाहना, मनुष्यपञ्चेन्द्रियों की औदारिकशरीरावगाहना, चौक्रय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रिय शरीरावगाद्दना, असुरकुमारों की वैक्रियशरीगबगाहना, आहारकशरीरों की अवगाहना का तेजस शरीर की अवगाहना का मान, निगोद जीवों की अवगाहना का मान, धर्मास्तिकाय के अवगाढानवगाढ की चिन्ता, एक जगह एकही धर्मास्तिकायादि प्रवेशावगाढ है इत्यादि विवेचन है।
1
५- ' सप्पणी' शब्द पर अवसर्पिणी शब्द की व्युत्पत्ति, और अवसर्पिणी कितने काल को कहते हैं, अवसर्पिणी काल में संपूर्ण शुभ भाव क्रम से अनन्त गुण से ही होते हैं, और उसी तरह अशुभ जाव बढते हैं, सुषमसुषमा से लेकर दुःषमदुःषमा पर्यन्त अवसर्पिर्ण । के छ नेद, सुषपादिकों का प्रमाण, भेरुतालादि वृक्ष का वर्णन, अष्टम कल्पवृक्ष का स्वरूप, उस काल में होने वाले मनुष्यादिकों के स्वरूप का वर्णन, और उनकी जवस्थिति, प्रथम से लेकर षष्ठ आरा तक का स्वरूपनिरूपण, जगत की व्यवस्था का वर्णन, भरतभूमिस्वरूप, अवसर्पिणी के तीन जेद इत्यादि विषय दिये हुए हैं ।
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६-— ओहि ' शब्द पर अवधि शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षण, अवधि के भेद, अवधि के नामादि सात जेद, अवधिक्षेत्र मान, अवधिविषयक इव्य का मान, क्षेत्र और काल के विषय का मान इत्यादि अनेक विचार हैं ।
७-' कज्जकारणभाव ' शब्द पर कापिलादि मतों का खाऊन आदि विषय विचारणीय हैं।
- 'कम्प' शब्द पर कर्म के तीन भेद, और उनके स्वरूप का निरूपण, कर्म और शिल्प में जेट, नैयायिक और वैयाकरगों के कर्म पदार्थ का निरूपण, कर्म के स्वरूप का निरूपण, पुण्य और पापरूप कर्म की सिद्धि, अकर्मवादी नास्तिक के मत
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