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पानमापात्रताका
(८) द्वितीय भाग के कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-'प्रान' शब्द पर आयु के जेद, आयु प्राणीमात्र को अतिप्रिय है इसका निरूपण, आयु की पुष्टि के कारण, और उनके उदाहरणादि देखने चाहिये ।
२-'पानकाय' शब्द पर अकायिकों के नेद, अप्कायिक केशरीरादि का वर्णन, और उसके सचित्त-अचित्त-मिश्र भेदों का निरूपण, उष्ण जन्न की अचित्तसिकि, अप्काय शस्त्र का निरूपण, अप्काय की हिंसा का निषध, अप्काय के स्पर्श का निषेध, और शीतोदक के सेवन का निषेध आदि विषय हैं।
३- आउदि' शब्द में चन्छ और सूर्य की आवृत्तियाँ किस ऋतु में और किस नत्र के साथ कितनी होती हैं इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं।
४-' आगम' शब्द पर लौकिक और लोकोत्तर भेद से आगम के लेद, आगम का परतः प्रामाण्य, आगम के अपौपेयत्व का खामन. आप्नों के रचे गए ही आगम का प्रामाण्य, जहाँ जहाँ प्रामाण्य का संभव है वह सभी प्रमाणी. नूत है इसका निरूपण, मूलागम से अतिरिक्त के मामाण्य न होने पर विचार, शब्द के नित्यत्व का विचार, जो आगमप्रमाण का विषय होता है वह अन्य प्रमाण का भी विषय हो मकता है इसका विचार, धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग में श्रागम ही प्रमाण है, जिनागम का सत्यत्वमतिपादन, सब व्यवहारों में आगम के ही नियामक होने का विचार, बौद्धों के अपोहबाद का संक्षिप्त निरूपण इत्यादि पञ्च स विषय बड़े रमणीय हैं ।
५-'आणा' शब्द पर आज्ञा के सदा आराधक होने का निरूपण, परलोक में आज्ञाही प्रमाण है, विराधना करने में दोप, तथा आझाभङ्ग होने पर प्रायश्चिच, श्राकारहित पुरुष का चारित्र ठीक नहीं रह सकता, भौर आइा के व्यवहार आदि का बहुतही अच्छा विचार हैं। ६-'प्राणुपुन्छ।' शब्द पर बहुत ही गम्भीर १५ विषय विद्वानों के देखने योग्य हैं। ७-'आता' शब्द पर आत्मा के तीन नेद, आत्मा का लक्षण, आत्मा के कर्तृत्व पर विचार, आत्मा का विजुत्वखएमन, आत्मा का परिणाम, आत्मा के एकत्व मानने पर विचार, आत्मा का क्रियावस्व, और आत्मा के क्षणिकत्व मानने पर विचार इत्यादि विषय हैं।
--'प्राधाकम्म' शब्द पर प्राधाकर्म शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, तीर्थकर के माधाकर्म-जोजित्व पर विचार, जोजनादिक में आधार्म के संनत्र होने का विचार, प्राधाकर्म-भोजियों का दारुण परिणाम, और प्राधाकर्म-भोजियों का कर्मबन्ध होना, इत्यादि अनेक विषय है।
६-'प्राजिणिबोदियणाण' शब्द पर १३ विषय विचारणीय है; और 'प्रायविलपञ्चक्खाण' शब्द पर भाचामाम्बप्रत्याख्यान के स्वरूप का निरूपण है।
१०-'आयरिय' शब्द पर प्राचार्यपद का विवेक, प्राचार्य के भेद; प्राचार्य का ऐहलौकिक और पारलौकिक स्वरूप, प्रव्राजनाचार्य, और उपस्थापनाचार्य का स्वरूप, प्राचार्य का विनय करना; आचार्य के लक्षण, जिनके अभाव में प्राचार्य नहीं हो सकता वे गुण, आचार्य के भ्रष्टाचारत्व होने में दुर्गुण, दूसरे का अहित करनाजी दुर्गुण है इसका कथन,प्रमादी प्राचार्य के लिये शिष्य को शिक्षा करने का अधिकार; गुरु के विनय में वैद्यदृष्टान्त,माचार्य के लिये नमस्कार करने का निरूपण, गुरु की वैयावृत्य, जिस कर्म से गच्च का अधिपति होता है उसका निरूपण, प्राचार्य के अतिशय, निर्ग्रन्थियों के प्राचार्य, एक प्राचार्य के काल कर जाने पर दूसरे प्राचार्य के स्थापन में विधि, आचार्य की परीक्षा, आचार्य पद पर गुरू के स्थापन करने में विधि, विना परिवार के प्राचार्य होने का खण्डन, स्थापन करने में वृद्ध साधुनों की सम्मति लेने की भावश्यकता, इत्यादि उत्तमोत्तम विषय हैं।
११-'आलोयणा' शब्द पर आलोचना की व्युत्पत्ति, अर्थ और स्वरूप, मूलगुण और उत्तरगुण से आलोचना के भेद, विहारादि भेद से प्रासोचना के तीन भेद, और उसके भी लेद, शल्य के उच्चारार्थ अालोचना करने में विधि, आलोचनीय विषयों में यथाक्रम पालोचना के प्रकार, आलोचना में शिष्याचार्य की परीक्षा पर आवश्यकछार, आलो. चना लेने के स्थान, गोचरी से आये हए की आलोचना, अव्य-क्षेत्र-काल-भाव जेद से आलोचना के चार प्रकार,
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