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है और कहींहकार न होने का नी रूप आता है तो रूपान्तर की सूचना के लिये (घ)(भ) आदि अक्षर जी कोष्ठक में दिये हैं। यह नियम स्मरण रखने के योग्य है।
६-कहीं कहीं प्राकृतव्याकरण के प्रथमपादस्य १२-१३-१४-१५-१६-१७-१०-१४-२०-२१-२२-४४ सूत्रों के भी वैकठिपक रूप, और दूसरे पाद के २-३-५-७-१०-११ सूत्रों से भी किये हुए रूपान्तर को कोष्ठक में दिया है।
9-"फो महौ" ॥८।१।२३६ ॥ इस सूत्र के लगने से फ को (न) या ( ह ) होने पर, दो रूपों में किसी एक को कोष्ठक में दिया गया है । इसी तरह इसी पाद के २४१-२४२-२४३-२०४-२४८-२४१-२५२-२५६-२५५-२६१२६२-२६३-२६४ सूत्रों के विषय भी समझना चाहिये।
G-"स्वार्थे कश्च वा" ।।२।१६४॥ इस सूत्र से आये हुए क प्रत्यय को कहीं कहीं कोष्ठक में (अ) इस तरह रक्खा है। इसी तरह “नो णः"|| G१।२२०।। सूत्र का जी आर्ष प्रयोगों में विकल्प होता है, इत्यादि विषय प्रथमजाग में दिये हुए पाकृतव्याकरण-परिशिष्ट से समझ लेना चाहिये।
१४-प्राकृत शब्दो में कहीं संस्कृत शब्दों के लिङ्गों से विलक्षण जी लिङ्ग आता हैकहीं कहीं प्राकृत मान कर ही लिङ्ग का व्यत्यय हुआ करता है जैसे तृतीय भाग के ४३७ पृष्ठ में 'पिट्ठतो वराई' मूल में है, उसपर टीकाकार निखते हैं कि 'प्रदेशे वराहः, प्राक्तत्वाद नपंसकलिङगता। इसीतरह "पावट-शरत-तरणयः पुंसि"॥८॥१।३१।। इस सूत्र से स्त्रीनिङग को पुंनिदग होता है औरदामन्-शिरस-नभस् शब्दों को गमकर सनीसान्त
और नान्त शब्द पुंलिङ्ग होते हैं, तया 'वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः'।१।३३ । 'गुणाद्याः क्लीवेवा'। १ । ३४॥ 'वेमाजच्याद्याः स्त्रियाम् ' ।१।३५। सूत्रों के भी विषय हैं। अन्यत्र स्थान में भी लोक प्रसिफि की अपेक्षा से ही प्राकृत में लिङ्गों की व्यवस्या मानी हुई है। जैसे-तृतीय नाग के २०४ पृष्ठ में 'कडवाइ (ए)-कृतवादिन्' इत्यादि को में पुंस्त्व ही होता है । यद्यपिसभा और कुल का विशेषण मानने से स्त्रीलिंग और नपुंसकलिङ्ग भी हो सकता है किन्तु उन दोनों का ग्रहण नहीं किया है। इसी तरह द्वितीय भाग के २० पृष्ठ में आनकखेम-आयुःक्षेम' इत्यादि को में यद्यपि 'कुशलं हममस्त्रियाम् ' इस कोश के प्रामाण्य से नपुंसकत्व और पुंस्त्व भी प्राप्त है तथापि केवन्न पुंस्त्व का ही स्वीकार है; क्यों कि काव्यादिप्रयोगों में जी लोक
प्रसिछि से ही लिङग माना हुवा है, जैसे अर्डर्चादि गण में पद्म शब्द का पाठ होने से पुंस्त्वनी है, तदनुसारही'जाति पद्मः सरोवरे' यह किसीने प्रयोग नी किया, किन्तु काव्यानुशासन-साहित्यदपण-काव्यप्रकाश-सरस्वतीकएगजरण-रसगङ्गाधरकारादिकों ने पुष्टिङ्ग का आदर नहीं किया है। इस ग्रन्थ के हर एक नागों में आये हुए शब्दों में से थोमे शब्दों के उपयोगी विषय दिये जाते हैं
प्रथम नाग के कतिपय शब्दों के संदिप्त विषय१-'अंतर' शब्द पर अन्तर के छेद,द्वीप पर्वतों में परस्पर अन्तर, जम्बूद्वारों में परस्पर अन्तर, जिनेश्वरों में परस्पर अन्तर, ऋषनस्वामी से वीर भगवान् का अन्तर,ज्योतिष्कों का और चन्जमएडल का अन्तर,चन्छ सर्यों का परस्पर अन्तर,ताराओं का परस्पर अन्तर, सूर्यों का परस्पर अन्तर, धातकीखएक के द्वारों का अन्तर, विमानकों का अन्तर, आहार के आश्रय से जीवों का अन्तर, और सयोगि भवस्य केवल्यनाहारक का अन्तर इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं। ५-'अचित्त ' शब्द पर अचित्त पदार्थ का, तथा 'अच्छेर' शब्द पर दश १० आश्चर्यों का निरूपण देखना चाहिये । ३-'अजीव' शब्द पर 5व्य-क्षेत्र-कान-नाव से अजीव की व्याख्या की हुई है। ४-'अन्जा' शब्द पर आया साध्वी) को गृहस्य के सामने दुष्टभाषण करने का निषेध,और विचित्र (नानारंग वाले) वस्त्र पहिरने का निषेध, तथा गृहस्थ के कपमे सीने का निषेध, और सविलास गमन करने का निषेध,पर्यङ्कगादी तकिया आदि को काम में लाने का निषेध, स्नान अङ्गरागादि करने का निषेध, गृहस्थों के घर जाकर व्यावहारिक अथवाधार्मिक कथा करने का निषेध, तरुण पुरुषों के आने पर उनके स्वागत करने का,तथा पुनरागमन कहने का निषेध, और उनके गचिताचारादि विषय वरिणत हैं।
५-'अणाचार ' शब्द पर साधुओं के अनाचार; 'अणारिय' शब्द पर अनार्यों का निरूपण' अणुप्रोग' शब्द पर अनुयोग शब्द का अर्थ, अनुयोगविधि, अनुयोग का अधिकारी, तथा अनुयोगों की पार्थक्य आर्यरक्षित से हुई है, इत्यादि। और 'अणुव्यय 'शब्द पर जलगियों के बिनाग देखने के लायक हैं।
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