Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 1
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha

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Page 21
________________ ( 2 ) पकी रमणीय चित्तवृत्ति निरन्तर स्वाभाविक वैराग्य की ओर ही भाकर्षित रद्दा करती थी, इसी से याप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम शिक्षाओं को प्राप्त करने में उत्साही रहते थे । सबके साथ मित्राव से वर्त्तना, पूज्यों पर पूज्य बुद्धि रखना, गुणवानों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना, सत्समागम की अभिलाषा रखना, कलह से करना, हास्य कुतूहलों से उदासीन रहना, और दुर्व्यसनी लोगों की संगति से बचकर चलना, यह आपकी स्वाजाचित्तवृत्ति थी । बारह वर्ष की अवस्था से कुछ ऊपर होने पर अपने पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई 'माणिकचंदजी ' के साथ 'श्रीकेस रियाजी 'महातीर्थ की यात्रा की, और रास्ते में 'अम्बर शहर - निवासी सेठ 'सौभाग्यमलजी ' की पुत्री के माकिनी का दोष निवारण किया और जीलों के संकट से सारे कुटुम्ब को बचाया था। इसी सबब से इस उपकार के प्रत्युपकार में 'सौनाग्यमलजी' ने अपनी सुरूपा पुत्री ' रमादेवी ' का सगपन ( सगाई ) आप ( रत्नराज ) के साथ संयोजन करने का मानसिक विचार किया था । परन्तु यहाँ संबन्धियों का संमेलन न होने के सबब से सेठजी अपने कुटुम्ब सहित घर की तरफ रवाना हो गये । इधर ' माणिकचंदजी ' जी अपने छोटे जाई को यात्रा कराकर 'गोमवाड' की पञ्चतीर्थी की यात्रा करते हुए अपने घर को चले आये । C कुल दिन घर में रहकर फिर दोनों जाई व्यापारोन्नति के निमित्त अपने पिता का शुजाशीर्वाद ले बङ्गाज की घोर खाना हुए। क्रमशः पन्थ प्रसार करते हुए दोनों जाई ' कलकत्ते ' शहर में आए और सर्राफी बाजार में आढ़तिया के यहाँ उतरे । इस शहर में दस पन्द्रह दिन ठहर कर जहाजों में धान ( गल्ला ) जर शुभ मुहूर्त में ' सिंहलद्वीप ' ( सिलोन) की ओर रवाना हुए। मार्ग में अनेक उपद्रवों को सहन करते हुए ' सिंहलद्वीप' में पहुँचे । यहाँ से द्रव्योपार्जन करके कुछ दिनों के बाद 'कलकत्ता' आदि शहरों को देखते हुए अपने घर को आये । तदनन्तर माता पिता की वृद्धावस्था समऊ कर उनकी सेवा में तत्पर हो वहाँ ही रहना स्थिर किया । काल की प्रबल गति अनिवार्य है, यह मनुष्यों को दुःखित किये बिना नहीं रहती । अकस्मात् ऐसा समय थाया कि माता और पिता के अन्तिम दिन या पहुँचे और दोनों जाइयों को अत्यन्त शोक होनेका अवसर श्रागया, परन्तु किञ्चित् धैर्य पकड़ कर माता पिता की अन्तिम नक्ति करने में कटिवद्ध हो, उनकी सुन्दर शिक्षाएँ सावधानी से ग्रहण कीं, और रातदिन उनके निकट ही रहना शुरू किया, यों करते काल समय आने पर जब माता पिता का देहान्त हो गया, तब दोनों जाई संसारी कृत्य कर विशेष शोक के वशीभूत न हो धर्मध्यान में निमग्न हुए । For Private Jain Education International Personal Use Only www.jainelibrary.org

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