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दि सब सामान श्री सुपार्श्वनाथजी के मंदिर में चढ़ाकर संवत् १७ २५ प्राषाढ वदि १० बुधवार के दिन पने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रमोदरुचिजी और श्री धनविजयजी के साथ बड़े समारोह से क्रिया - उद्धार किया, अर्थात् संसारवर्द्धक सब उपाधियों को छोड़ कर सदाचारी, पञ्च महाव्रतधारी सर्वोत्कृष्ट पद को स्वीकार किया । उस समय प्रत्येक गामों के करीब चार हजार श्रावक हाजिर थे उन सबों ने व्यापकी जयध्वनि करते हुए सारे शहर को गुंजार कर दिया ।
क्रियाद्धार करने के अनन्तर खाचरोद संघ के अत्यन्त श्राग्रह से आपका प्रथम चौमासा ( सम्वत् १९०२५ का ) खाचरोद में हुआ, इस चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई । चौमासे के उतार में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिसपर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की बड़ी जारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के उतरे बाद ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबा' देशान्तर्गत शहर 'कुकसी ' की ओर थापका पधारना हुआ । ' कूकसी ' में सोजी देवीचन्दजी यदि अच्छे २ विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोगाते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोग विषयक अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर प्रतीव समारोह के साथ सव श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया । यहाँ उन्तीस १५ दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगामी बनाया । फिर क्रम से संवत् १९०२६ रतलाम, १७२७ कूकसी, १९२८ राजगढ़ और फिर १२ का चौमासा रतलाम में हुआ । इस चौमासे में संवेगी जवेरसागरजी और यती बालचन्दजी उपाध्याय के साथ चर्चा हुई, जिसमें आपको दी विजय प्राप्त हुआ और 'सिद्धान्तप्रकाश' नामक बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ बनाया गया । संवत् १९३० का चौमासा जावरा में और १९३१ तथा १९३२ का चौमासा शहर 'माहोर' में हु
। ये दोनों चौमासे एकही गाँव में एक जारो जातीय ऊगड़े को मिटाने के लिये हुए थे, नहीं तो जैन साधुओं की यह रीति नहीं है कि जिस गाँव में एक चौमासा कर लिया, उसी गाँव में फिर तदनन्तर दूसरे साल का चौमासा करना, परन्तु कोई लाजालान का अवसर हो तो कारण सर चौमासा पर जी चौमासा हो सकता है।
संवत् १९३३ का चौमासा शहर जालोर में हुआ, यहाँ पर ढूढ़ियों के साथ चर्चा कर सात सौ 900 घर मन्दिरमार्गी बनाये और गढ के ऊपर राजा कुमारपाल के बनाये हुए प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, और कुम्न सेठ का बनाया हुआ जो चौमुखजी का मन्दिर था. उसमें से सरकारी सामान निकलवा कर बड़े समारोह से शास्त्रीय विधिपूर्वक
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