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(७)
ग्राम विहार करते हुए मेवाड़देशस्थ 'श्रीशंजूगढ़' पधारे। यहां के चौमासी 'श्री फतेहसागरजी' ने फिर पाटोच्छव करा के राणाजी के ' कामेती' के पास लेट पूजा करायी। फिर गाँवो गाँव श्रावकों से ‘खमासमणा' कराते हुए संवत २ए २४ का चौमासा 'श्रीसंघ के अत्यन्त आग्रह से शहर 'जावरे' में किया और 'मीजगवतीजी' सूत्र को व्याख्यान में बाँचा। यहां पर जनाणी मोगलालजी प्रमुख श्रावकों के मुख से श्रीपूज्यजी की प्रशंसा सुनकर 'नवाबसाहेब' ने एक प्रश्न पुछाया कि-"तुम्हारा धर्म हम अंगीकार करें तो हमारे साथ तुम खाना पीना करसकते हो, या नहीं? इसका उत्तर श्रीपूज्यजी महाराज ने यह फरमाया कि-"दीन का और जैन का घर एक है इसलिये चाहे जैसी जातिवाला मनुष्य जैनधर्म पालता हो उसके साथ हम बन्धु से जी अधिक प्रेम रख सकते हैं, किन्तु लोकव्यवहार अस्पृश्य जाति न हो तो हम जैन शास्त्र के मुताबिक खाने पीने में दोष नहीं समझते हैं" इत्यादि प्रश्न का उत्तर सुन और सन्तुष्ट हो अपने वजीर के जरिये मोहर परवाना सहित आपदागिरि, किरणीया, वगैरह लवाजमा नेट कराया। इस चौमासे में 'धरणेन्द्रसूरि' ने एक पत्र (रुक्का) लिखकर अपने नामी यति सिकुशलजी' और ' मोतीविजयजी' को जावरे संघ के पास भेजा। उन दोनों ने आकर संघ से सब वृत्तान्त (हकीकत) कहा, तब संघ ने उत्तर दिया कि-'हम ने तो इनको योग्य और उचित क्रियावान् देखकर श्रीपूज्य मान लिया है और जो तुह्मारे जी श्रीपूज्य गच्छमर्यादाऽनुसार चलेंगे तो हम उन्हें नी मानने को तैयार हैं। इस प्रकार बात चीत करके दोनों यति आपके पास आये और वन्दन विधि साँचवकर बोले कि-श्राप तो बड़े हैं, थोकीसी बात पर इतना जारी कार्य कर मालना ठीक नहीं है, इस गादी की बिगड़ने और सुधरने की चिन्ता तो आपही को है । तब आपने मधुर वचनों से कहा कि मैं तो अब क्रियाउद्धार करने वाला हूँ मुळे तो यह पदवी बिलकुल उपाधिरूप मालूम पड़ती है परन्तु तुम्हारे श्रीपूज्यजी गच्छमर्यादा का जवंघन करके अपनी मनमानी रीति में प्रवृत्त होने लग गये हैं, इस वास्ते उनको नव कलमें मंजूर कराये बिना अली क्रियाउझार नहीं हो सकता । ऐसा कह नव कलमों की नकल दोनों यतियों को दी, तब उस नकल को लेकर दोनों यति श्रीपूज्यजी के पास गये और सब वृत्तान्त कह सुनाया तब श्रीपूज्यजी ने भी उन कलमों को बाँच कर और हितकारक समझकर मंजूर की और उस पर अपनी सहीनी कर दी और साथ में सूरिपद की अनुमति जी दी। इस प्रकार श्रीधरणेन्सूरिजी को गच्छसामाचारी की नव कलमों को मनाकर और अपना पाँच वर्ष का लिया दुवा 'अनिग्रह' पूर्ण होने पर जावरे के श्रीसंघ की पूर्ण विनती होने से वैराग्यरङ्गरञ्जित हो श्रीपूज्याचार्य श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अपना श्रीपूज्यसंबन्धी डमी, चामर, पालखी, पुस्तक श्रा
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