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और गच्छ की मर्यादा सिखाना " । इस शुभ आज्ञा को सुनकर पं० रत्नविजयजी' ने साञ्ज लिबन्ध होकर 'तहत्ति' कहा । फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने विजयधरणेन्द्रसूरिजी से कहा कि- 'तुम रत्नविजय पन्यास के पास पढ़ना और यह जिस मर्यादा से चलने को कहें उसी तरह चलना '। धरणेन्द्रसूरिजी ने जी इस आज्ञा को शिरोधार्य माना ।
महाराज श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में अनशन किया और समाधिपूर्वक कालमहीने में काल किया। पीछे से पट्टाधीश 'श्री धरणेन्द्रसूरिजी '
'श्रीरत्न विजयजी 'पन्यास को बुलाने के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्ति विजयजी' ने खेवटकर उदयपुर राणाजी के पास से ' श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ' महाराज को पालखी प्रमुख शिरोपाव बक्साया था, उसी प्रकार तुम को भी उचित है कि 'सिद्ध विजयजी' से बन्द हुआ जोधपुर और बीकानेर नरेशों की तरफ से छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव को खेवटकर फिर शुरू करायो, इस रुक्के को वाँचकर 'श्री प्रमोद विजयजी' महाराज ने कहा कि" सूचिप्रवेशे मुशलप्रवेशः " यह लोकोक्ति बहुत सत्य है, क्यों कि श्री हीर विजय सूरिजी ' महाराज की उपदेशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह अकबर अत्यन्त हर्षित हुआ और कहने लगा कि - " हे प्रजो ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्वजनादि में तो ममत्व रहित हैं इसलिये आपको सोना चाँदी देना तो ठीक नहीं ?, परन्तु मेरे मकान में जैन मजहब की प्राचीन २ बहुत पुस्तकें हैं सो आप लीजिये और मुजे कृतार्थ करिये " । इस प्रकार बादशाह का बहुत आग्रह देख 'हीरविजय सूरिजी' ने उन तमाम पुस्तकों को आगरा नगर ज्ञानजष्कार स्थापन किया। फिर मम्बर सहित उपाश्रय में आकर बादशाह के साथ अनेक धर्मगोष्ठी की ; उससे प्रसन्न हो छत्र, चामर, पालखी वगैरह बहु मानार्थ 'श्री दीर विजय सूरिजी ' के अगाड़ी नित्य चलाने की आज्ञा अपने नोकरों को दी। तब ही रविजय सूरिजी ने कहा कि हम लोग जंजाल से रहित हैं इससे हमारे आगे यह तूफा उचित नहीं है । बादशाह ने विनय पूर्वक कहा कि ' हे प्रजो ! आप तो निस्पृह हैं परन्तु मेरी जक्ति है निस्पृहन में कुछ दोष लगने का संभव नहीं है'। उस समय बादशाह का अत्यन्त ग्रह देख श्रीसंघ ने विनती की कि स्वामी ! यह तो जिनशासन की शोना और बादशाह की जक्ति है इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नहीं है । गुरुजी ने जी द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव की अपेक्षा विचार मौन धारण कर लिया। बस उसी दिन से श्रीपूज्यों के आगे शोजातरीके पालखी छड़ी प्रमुख चलना शुरू हुआ । " श्री विजयरत्न सूरिजी " महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी में न बैठे, परन्तु 'लघुकमासूरिजी ' वृद्धावस्था होने से अपने शिथिलाचारी साधुओं की प्रेरणा होने पर बैठने लगे। इतनी रीति कायम रखी कि गाँम में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदनन्तर 'दयासूरिजी ' तो गाँव नगर में जी बैठने लगे । इस तरह क्रमशः धीरे २ शिथिलाचार की प्रवृत्ति चलते चलते अत्यन्त शिथिल होगये क्योंकि पेस्तर तो कोई राजा वगैरह प्रसन्न हो ग्राम नगर क्षेत्रादि
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