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ISSN 2454-3705
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SHRUTSAGAR (MONTHLY) July-2019, Volume : 06, Issue : 02, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/
EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
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वरकाणाजी तीर्थ जिनालय ఆరంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के स अदाणी शांतिग्राम में चातुर्मास प्रवेश की झलकियाँ
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3
SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
July-2019 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-६, अंक-२, कुल अंक-६२, जुलाई-२०१९
____Year-6, Issue-2, Total Issue-62, July-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ जुलाई, २०१९, वि. सं. २०७५, आषाढ शुक्ल-१४
न आराधना
तकेन्द्र.
महावीर
अमृतं तू
पधा
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९
अनुक्रम १. संपादकीय
रामप्रकाश झा २. गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri ४. ज्ञानसागरना तीरे तीरे
डॉ. कुमारपाल देसाई ५. श्री वरकाणापार्श्वनाथ गझल गणि सुयशचंद्रविजयजी ६. १९ दोष काउसग्ग सज्झाय साध्वी काव्यनिधि ७. गुजराती माटे देवनागरी लिपि के
हिन्दी माटे गुजराती लिपि चुनीलाल वर्धमान शाह ८. श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य
श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का योगदान
राहुल आर. त्रिवेदी ९. पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्तकुमार १०. समाचार सार
जग आसा जंजीर की गति उलटी कर मोरि। जकड्यो धावत जगत मै रहै छुटै इक ठोरि ॥
प्रत क्र. १५१८७ भावार्थ- यह संसार आशारूपी जंजीर है, जिसकी उल्टी गति होती है, जो इसमें जकड़ जाता है, वह संसार में दौड़ता रहता है और जो इससे मुक्त हो जाता है, वह स्थिर हो जाता है। मा
* प्राप्तिस्थान * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
July-2019
संपादकीय
रामप्रकाश झा धर्माराधना और आत्मकल्याण हेतु सर्वथा अनुकूल चातुर्मास का प्रारम्भ हो चुका है। गुरुजनों की निश्रा में की गई साधना मिथ्यात्वादि दोषों को दूरकर व्यक्ति को आध्यात्मिक विकास की ओर ले जाती है। श्रुतसागर के इस अंक में विभिन्न लेखों के माध्यम से वाचक वर्ग की ज्ञानपिपासा को संतृप्त करने का एक छोटा सा प्रयास किया गया है।
चातुर्मास प्रारम्भ हो रहा है, इस उपलक्ष में सर्वप्रथम “गुरुवाणी” शीर्षक के अन्तर्गत अध्यात्मयोगी आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पत्रों के माध्यम से साधुओं व भक्तों को चातुर्मासिक आराधना कैसे करनी, करानी चाहिए, इस विषय में दिए गए संदेशों के कुछ अंश प्रकाशित किए जा रहे हैं । द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, इसमें जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। “ज्ञानसागरना तीरे तीरे” नामक लेख में डॉ.कुमारपाल देसाई के द्वारा आचार्यदेव श्रीमद बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम पूज्य गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “वरकाणापार्श्वनाथ गज़ल” प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कृति के माध्यम से कवि ने वरकाणा पार्श्वनाथ के जिनालय की मुख्य विशेषताओं तथा प्रभु के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। द्वितीय कृति के रूप में पूज्य साध्वी काव्यनिधिश्रीजी के द्वारा सम्पादित मुनि श्री प्रतापविजयजी कृत “१९ दोष काउसग्ग सज्झाय” प्रकाशित किया जा रहा है। इस कृति में कायोत्सर्ग के १९दोषों का वर्णन करते हुए इस बात पर जोर दिया गया है कि दोषयुक्त क्रिया प्रायः निष्फल हो जाती है ।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में बुद्धिप्रकाश, ई.१९३४, पुस्तक-८२,अंक-२ में प्रकाशित “गुजराती माटे देवनागरी लिपि के हिंदी माटे गुजराती लिपि” नामक लेख का पुनःप्रकाशन किया जा रहा है।
पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत पूज्य आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी द्वारा रचित तथा स्वोपज्ञ टीका से अलंकृत “गुरुगुणषट्त्रिंशत् षट्त्रिंशिका कुलक” पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
इस अंक में "श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का योगदान" नामक शीर्षक के अंतर्गत सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय में प्रदर्शित कलाकृतियों की विशेषताओं और उनके ऐतिहासिक महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे।
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९
गुरुवाणी
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी योगनिष्ठ प.पू. आचार्य श्रीबुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा.ना पत्रोमां
झलकतो आध्यात्मिक भाव चातुर्मासनो संदेश
मु. पेथापुर. ले. बुद्धिसागर. श्री महेसाणा. तत्र. वैराग्यादि गुणालंकृत. मुनि. जीतसागरजी योग अनुवंदता विशेष. पत्र वांची समाचार जाण्या। श्री रंगसागरजी अने भक्तिसागरजी वगेरे मळी चातुर्मासमां धर्म गोष्ठीमां जीवन गाळशो। जैनोनी अने जैनधर्मनी प्रगतिना जे जे उपायो जणाय तेनो निर्भयपणे सचोट उपदेश देवो। धार्मिक ज्ञानना प्रचार माटे जे थाय ते करवं, अने व्यावहारिक केळवणीनी साथे धार्मिक केळवणी मळे एवा प्रयत्नो जारी राखवा उपदेश देवो। जैनकोम व्यापारी छे, लक्ष्मी पुत्रोमां प्रायःअज्ञता रहे छे तेओने सत्य मार्गो दर्शाववामां खामी राखवी नहीं। जैनोनी लक्ष्मीनो सदुपयोग थाय तेम उपदेश देवो. स्वाध्यायमां, ध्यानमां अप्रमत्त रहेQ । आगमोनू, ग्रन्थोनुं वांचनमनन करवं. शरीर बळनो क्षय न थाय तेवी रीते दरेक प्रवृत्ति करवी। सारांश के शरीर नरम न थाय तेवी रीते प्रवृत्ति करवी। श्री रंगसागरजीनुं मन आनंदमां रहे तेम समयज्ञ थइ प्रवर्तवू के जेथी भविष्यमां धर्म्यप्रवृत्तिमां तेओ सहायकारी बने। धर्मसाधन करशो। धर्मकार्य लखशो। ॐ ३ अर्हम्. शान्तिः २ सं. १९७१ श्रा. सुदि.१
मु. माणसाथी ले. - मु. पादरा मध्ये शा. मो. ही. अत्र सहेजे चातुर्मास थयुं छे । कंइ धारीने महालाभ देखीने करवामां आव्यु नथी परंतु निवृत्ति गामडामां सारी रहे छे अने अत्र तेवू जाणी रहेवानुं कर्यु छे । आत्मामां आत्माना भाव चोमासाना द्रव्य, क्षेत्र, काल, अने भावथी चोमासु उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभावे थाय एम उपयोग भावे इच्छु छु. बाह्यनुं निमित्त चोमासु अन्तरना भाव चोमासानी शुद्धिवृद्धि अर्थे थाय तो पुरूषार्थनी सफलता थशे। ते जीवो मुक्त थया-थाय छे अने थशे, के जेओए आत्मामां भावचोमासु कर्यु हतुं तथा जेओ करे छे अने करशे । साध्यदृष्टिए उपयोगनी मुख्यताए बाह्यक्षेत्रनुं चोमासु स्थिरतामां उपकारी थाय छे । एम भावना भावु छु।... ज्यां त्यां चोमासु थाय पण आत्माना गुणो प्रगटाववा एज मुख्य उद्देश छे एवी दशामां रहेवा इच्छु छु ।
धार्मिक गद्य संग्रह भा.१
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July-2019
Awakening
Acharya Padmasagarsuri (from past issue...)
The serene, radiant brightness that appears on account of God's mercy, teacher's precepts and righteous conduct spreads everywhere; shines out in all directions; produces peace everywhere, spreads happiness everywhere and causes the rain of love to pour down. If you ask a man who is running, what his destination is and if the man is silent or if he says that he does not know, you will consider him a fool, but are we not also fools? We are surely living, but we do not know the aim of life. Even an insect flies from leaf to leaf with some purpose, but man who is highly developed being with wonderful mental powers does not know the purpose of life! What a wonderful thing this is!
Only when the aim is determined, progress can be made in the right direction. A Shraman (one who endeavours to attain spiritual objectives) strives to achieve his own spiritual welfare. But the ordinary Jiva i.e., the ordinary man who takes delight in pudgala (worldly things) engages himself in sinful actions and in selfish pursuits to achieve mere existence. The weight of an article can be known accurately only when the needle of the balance is stable. In the same manner, only a stable mind can know the aim of life. To know the aim of life one needs the powers of thinking, reflection and assimilation. One cannot know the aim of life by running after outward things. The fruitfulness of human existence lies in freeing the soul from the various attachments of life (samsar), by means of self-sacrifice, austerity, self-control and self-discipline. Just as Lokamanya Tilak declared that Swaraj (freedom) was his birth-right, all sages and ascetics declare that it is the birth-right of all beings to attain Moksha (final release). Those sages say that the aim of life should be to attain divinity. Every Jiv (creature) should aim at becoming Shiv (God) and every soul should aim at attaining the level of divinity. This should be the aim of life.
(continue...)
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ ज्ञानसागरना तीरतीरे (योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज:२)
डॉ. कुमारपाल देसाई (गतांकथी आगळ..)
‘गणावू भक्त कोटीमां, नथी कांई वात ए सहेली।'
आवी जरीते अन्य काव्यमां परमात्मानुं जीभेथी रटण करनाराओ सामे चेतवणी उच्चारतां ए कहे छे के 'तत्त्वमसि' के 'सोहम्' बोलवाथी पार नथी आवतो। मात्र शब्दोथी प्रभु प्राप्त थशे नहीं, कारण के परमात्मा तो शब्दातीत छे, अने ध्यानमार्गे ज पामी शकाय छे । अखाए गायेला जीव अने ब्रह्मनी एकताना अनुभवनी याद आपे ए रीते आ जैन आचार्य आनंदभेर कहे छे
“साधनथी प्रभु वेगळा, साधनथी प्रभु सहेल; साधन साधक साध्यना एकत्वे छे गेल।"
आवा परमात्मानी झांखी मौनथी थाय छे । एनी खोज करवानी जरूर नथी। ए तो आपणा अंतरमां ज वसेलो छ । मानवीनी आ ज विडंबना छे ने के ए बहारनुं बधुं जुए छे, पण पोतानी अंदर डोकियु य करतो नथी! अने भीतरनी दुनिया अजाणी रही जाय छ । ए चंद्रनी धरती पर भले जई आव्यो होय, परंतु आत्मानी भूमि एने अजाणी लागे छ । आ अंतरमा रहेली आनंदज्योतनी जिकर करतां तेओ लाक्षणिक ढबे कहे छ :
“ज्यां त्यां प्रभुजी शोधिया, पण प्रभुजी पास; आनंदज्योते जाणीए, राखी मन विश्वास । प्रेम विना प्रभुजी नथी, करो उपाय हजार; मरजीवो प्रभुने मळे, बीजा खावे मार। निर्मल चित्त थया विना, ईश्वर ना देखाय; कोटी उपाय करो, कदी काक न धोळो थाय।"
"आ एक वर्ष दरमियान रचायेलां काव्योमां विषयवैविध्य पण घणुं छे। एमां 'नानां बाळको', 'जुवानी, 'माता, वृद्धावस्था थी मांडीने 'देशसेवा, ‘कन्याविक्रय, 'सुधारो, योग्य कर समजी', 'प्रगति', 'गरीबो पर दया लावो, ‘बळी! परतंत्रता बूरी!, 'मळो तो भावथी मळशो' अने विरोधो सहु समावी दे जेवी भावनावाळां काव्यो मळे छे, तो 'सागर', 'आंबो' के पधारो, मेघमहाराज!' जेवां प्रकृतिने उद्देशीने रचायेलां
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___July-2019 काव्यो पण मळे छे। ज्यारे ‘साबरमतीमांथी ग्राह्यशिक्षण, 'आत्मानी तृष्णा प्रति उक्ति, 'शुद्ध चेतना सतीनी आत्मस्वामी प्रति उक्ति' जेवां आध्यात्मिक भावनाओने अनुलक्षीने थयेलां काव्यसर्जनोय सांपडे छ । एमनी पासे शीघ्रकवित्व होवाथी केटलाक पत्रोना प्रत्युत्तर तेओए पद्यमय आप्या हता। एमणे वि. सं. १९७१ना भादरवा वद एकमे 'अहीं झट मेघ वर्षावो' नामर्नु काव्य लख्युं अने कवि कहे छे के, “आ काव्य कर्या बाद भादरवामां वर्षा थई अने तेथी गुजरातमां दुष्काळ पडवानो हतो तेने स्थाने सुकाल थयो।” ___ कविए लखेलु ‘स्मशान' विशेर्नु काव्य तो विशेष नोंधपात्र छे, ते ए दृष्टिए के २४० पंक्ति जेटलुं लांबु काव्य आ विषय पर भाग्ये ज कोईए लख्यु हशे। काव्यनो अंत 'फागु'ने याद करावे ते रीते वैराग्यरसमां आवे छे । तेओ कहे छे -
“प्रगटे वांच्याथी वैराग्य, बाह्याभ्यंतर प्रगटे त्याग; होवे शिवसुंदरीनो राग, शाश्वत सुखनो आवे लाग।
आधि, व्याधि सहु नासे दुःख, अंतरमा प्रगटे शिवसुख; रत्नत्रयीनी प्राप्ति थाय, चारित्री थई शिवपुर जाय। भणे गणे जे नर ने नार, धर्मी थावे ते निर्धार; 'बुद्धिसागर' मंगलमाळ, पामे थावे जयजयकार।"
एक काव्यमां एमणे “भगु, तव जीवननी बलिहारी” कहीने 'जैन' पत्रना अधिपति भगुभाई फतेहचंदने स्नेहांजलि अर्की छे। स्नेहांजलिमां विदेह पामेल व्यक्ति विशे आदर दर्शाववामां आवे छे। पण क्यारेक आवी स्नेहांजलि आदरने बदले अतिशयोक्तिमां सरी जती होय छे। आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजीए लखेली स्नेहांजलिमां एमणे भगुभाईना निर्भय अने सुधारक व्यक्तित्वने बिरदाव्यु छे, साथे साथे एमना विरोधीओए एमने सपडावीने जेलमां भले मोकल्या, परंतु भविष्यमा एमनी किंमत थशे एम तेओ स्पष्ट कहे छे। बारबार वर्ष सुधी आकरा संजोगोमां जैन'पत्र चलाव्यु अने क्यारेय कोई बदलानी आशा राखी नहि, ए सद्गुणने कवि दर्शावे छे। परंतु एनी साथोसाथ, भगुभाईना दोषो तरफ आंखमिचामणां करता नथी। तेओ कहे छे – 'अनिश्चित मन भमे भमाव्यो, कायव्यवस्था न सारी ।' भगुभाईना जीवननी नक्कर विगतो पर आ स्नेहांजलि आधारित छ । एमां कवि क्यांय अति प्रशंसामां सरी पड्या नथी ते नोंधपात्र बाबत कहेवाय ।
(क्रमशः)
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जुलाई-२०१९ श्री वरकाणा पार्श्वनाथ गझल
गणि सुयशचंद्रविजयजी 'गझल' मूळे तो शृंगाररस प्रधान रचनाओ कहेवाती। पूर्वे आरबादि देशोमां स्त्रीओनुं के तेणीना सौंदर्य- वर्णन करवा माटे विशेषे करी आ साहित्य प्रकार प्रयोजातो। काळांतरे हिंदुस्तान परना मोगलोना सत्ताकाळ दरम्यान गझलोनो अहीं पण प्रचार-प्रसार वध्यो। जो के ते पूर्वे ज सुफी संतोए गझल साहित्यनी शृंगारप्रधान शैलीने आध्यात्मिकतानुं स्वरूप आप्यु हतुं । तेथी सुफी संतोनी जेम अन्य कविओए पण आध्यात्मिकतानी छांटवाळी घणी गझलो रची। आम सौप्रथम अरबी, फारसी भाषामां रचायेली गझलोनो विस्तार छेक उर्दू, हिंदी, गुजराती जेवी प्रादेशिक भाषाओमां पण थयो।
अन्य कविओनी जेम जैन दर्शनकारोए पण गझलनी लोकचाहनाने जोई ते साहित्य उपर पोतानी लेखनी चलावी। तेमणे आध्यात्मिक गझलोनी साथे साथे औपदेशिक गझलो तो बनावी ज, परंतु ते सिवाय पण ऐतिहासिक काव्य कृतिओ कही शकाय तेवी प्रादेशिक गझलोनो एक नवो आयाम तेमणे पोतानी आ रचनाओ द्वारा रजू कर्यो। आ प्रादेशिक गझलोमां तेमना वडे जे ते नगरना भौगोलिक चितार सहित त्यांना राजकीय-धार्मिक-व्यावसायिक तथा लोक स्वभावना स्वरूपने विस्तृत रीते रजू करवामां आवतुं । खास तो जे ते नगरीना तत्कालीन इतिहासने स्वतंत्रपणे रजू करवा माटे बनावाती लघुकृतिरूपे आ काव्य प्रकार वधु प्रसिद्धि पाम्यो । तेमांय कवि खेतल(खेतो), यति कल्याणविजयजी, पंडित जिनेन्द्रसागरजी जेवा जैन कविओए आ काव्यप्रकारमां नानी-मोटी स्वतंत्र के विज्ञप्तिपत्रादि काव्यान्तर्गत सुंदर काव्यकृतिओ सर्जी आवा काव्यो- साहित्यिक मूल्य पण वधार्यु। जैन कविओए कुल मळी आवी ५७ नानी-मोटी रचनाओ करी छ । जेनी नोंध आपणे फरी क्यारेक जोईशुं । जो के जैन कविओ सिवाय आवी गझलो कोई अन्य दर्शनना कविओए रची होवानुं ख्यालमां पण नथी। कृति परिचय
काव्यनी शरूआत कविए 'मां' शारदाना तथा पोताना आराध्य देव (?) गणपतिजीना नामस्मरणथी करी छ। कविश्री काव्यमां सौप्रथम जिनालयना (पोळ) दरवाजानुं वर्णन करता होय तेवु जणाय छे । जो के तेओ चोक्कस कई दिशाथी वर्णन करवानो प्रारंभ करे छे ते स्पष्ट थतुं नथी परंतु काव्योनो तात्पर्यार्थ जोता जे ते दिशामां
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July-2019 सुंदर नकशीवाळा झरूखा, जाळीया होवानुं तथा विशेषमां पहेली पोळ पासेना द्वार पासे उत्तर (दिशा)ना बादरी (मेघ?) जेवा काळा २ हाथी होवा, पहेली पोळमां तेमज उत्तर (दिशानी?) पोळमां खेतलवीर तथा (जमणी सुढवाला)गणपतिनी मूर्ति होवा, चालना ९ मां पद्यनी नोंध मुजब सींगीबंधनी पाछळ गंगा (नदी?) वहेती होवानुं तेमज प्रदक्षिणामां खाळे तथा कांगरावाळो कोट जोयानुं कवि जणावे छ । अहिं काव्यना ११ थी १४ नं. ना पद्यो स्पष्ट समजाता नथी तेथी ते अंगे अमे विशेष कशुं लख्यु नथी।
प्रदक्षिणा पूर्ण करी माणेकचोकथी जिनालयना (?) पगथीया चडता गोगादेव जुहार्यानी तथा बीजी पोळनी कोरणी, स्थंभ तेमज बारणादि निहाळ्यानी वात कविए दूहा अने चंद्रायणि छंदमां गुंथी छे । ते ज वातने आगळ वधारता कविए त्यारपछीनी चालमां त्यां ध्वजदंड-कळश सहितनी ५२ देरी, सुखड घसवाना ओरसीया, भोयरुं, पक्षालनी खाळ, सुवर्ण कळश तथा ध्वजदंडथी शोभतुं मूळनायकनुं जिनालय, पत्थरमां कंडारायेल सिंह तेमज आबु जेवी कोरणीवाळा चौमुख शिखर जोयानी महत्वपूर्ण विगत आलेखी छ। ____ अहींथी पगथीया उतरीने आगळ जता चौमुखना जिनालयमां अनेक जिनबिंबो, मुनि जि(ज)न पादुका तथा प्रदक्षिणामां रहेला २ जिनबिंबो जुहार्यानी ऐतिहासिक विगत कवि वडे गाथा २९ थी ३३ मां गुंथाइ छ। आ ज वर्णनक्रममां कवि आगळ वधता खेला-मंडपनी कोरणीनी, संघयात्रीओ वडे कराता पूजाथाटनी, खेलामंडपनी डाबी बाजु स्थपायेल पंचतीर्थ(पट्ट) तथा हाथी (चौमुख?)नी, तेमज रंगमंडपमां कोरणीवाळा झरुखा अने भंडारादिक जोयानी विगत त्यारपछीना ९ पद्योमां रजू करे छे। जो के रंगमंडपना मळता अन्य काव्योना वर्णननी अपेक्षाए आ पद्यो- वर्णन थोडं अधुरं होय तेवू लागे छ।
हवे पछीना काव्यो प्रभुना दिव्यस्वरूपनी वर्णनाने उद्देशीने कविए रच्या छे तेमांय खास करी उल्लेखायेली आभूषणोनी विगत लोकोनी प्रभु प्रत्येनी द्रव्य पूजा-भक्तिनुं उदाहरण छे. आज गाथा क्रममां पाछळ कवि प्रभुना जन्म महोत्सव- संक्षिप्त वर्णन करे छे। जो के ते वर्णनना ३ पद्योना अंत्यभागे प्रभुना विहार करता गोढाण देशमां पधार्यानी, दादा-वसही(?)मां प्रगट थयानी तथा वीझेवा संघे प्रणम्यानी कोई विशेष बीनीनो संकेत जणाय छे परंतु ते स्पष्ट समजी शकातो नथी। काव्यनी छेल्ली चालमां कविए वरकाणामां भराता पोस दसमना मेळानी तथा त्यां मळती वस्तुनी अछडती नोंध अहीं रजू करी छ।
गझलना छेल्ला ३ पद्यो कवित्त काव्य स्वरूपनी रचना छे। जेमां प्रथम कवित्तमां
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ कविए प्रभुना जिनालय संबंधि वर्णना, बीजा कवित्तमां जेमना पुण्य साम्राज्यमा तेमणे आ गझलनी रचना करी छे ते विजयजिनेन्द्रसूरिजीनी प्रशस्ति वर्णना तथा त्रीजा कवित्तमां काव्य रचना संवतादिनी वर्णना द्वारा काव्य- समापन कर्यु छ । अहीं कविनुं नाम स्पष्ट समजी शकातुं नथी पण प्रथम कवित्तना अंतमां लखायेल 'नित्य' अथवा बीजा कवित्तना पांचमां पदमां लखायेल नेतसी' नाम कवि तरीके कल्पी शकाय खरु । प्रत परिचय
प्रस्तुत कृतिनुं संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा भंडारनी १०५२८६ नं. नी हस्तप्रत उपरथी थयु छे । आ कृतिनी एक मात्र प्रत अहीं सचवायेल छे। जो के कृतिनुं लेखन पं. लावण्यसागरजी द्वारा थयु होवा छतां अशुद्ध छे । तेमांना घणा पाठो तो तद्दन भ्रष्ट छ । क्यांक-क्यांक कवि पोतानी रजुआत स्पष्टरूपे समजावी शक्या नथी तेथी रचना त्यां खंडित थती होय तेवू जणाय छे । वळी लेखन दोष होवाने कारणे अनुस्वार-मात्रा विगेरे पण क्यांक जरूर वगरना पण थया छे । कृतिनुं संपादन करती वखते उपरोक्त बाबतोने ध्यानमा राखीने अमे जरूर मुजब पाठमां सुधारा कर्या छे ते वात वाचको ध्यानमा ले।
खास संपादनार्थे प्रस्तुत प्रतनी नकल आपवा बदल श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबाना व्यवस्थापकोनो खूब खूब आभार ।
॥अहँ नमः॥ O॥ अथ श्री वरकांणा पार्श्वनाथजी री गज्जल लिख्यते ॥ दूहा- सारद मात मया करो, दीजै वचन-विनोद। गुण गावेंगोडी तणा, मुझ मन अधिक प्रमोद
॥१॥ तुझ समर्यां नव निध मिलैं, तुझ समर्यां रिद्ध सिध(द्ध)। अलिय विघन दूरे हरे, आपै बहुली बुध(द्ध)
॥२॥ गु(ग)णपति गवरीनंद को, लेउ धुराधर नाम। अक्षर-बीजे ओपता, सीध चढावे काम मे(ए)कदंत सोहे भलो, गु(ग)णपति गुणे गहीर' । तीन भुवनमें दीपतौ, सोहें वडो वजीर
॥३॥
॥४॥
१. अग्रणी, २. गंभीर,
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॥५॥
॥६॥
॥७||
॥८॥
॥९॥
SHRUTSAGAR
गुर दयाल गुर परमगुर, गुर दाता गुर देव। गुर का नित प्रति लीजीयें, नित शरण उगमते मेव चरणांबुज गुर भेटतां, बुध(द्ध) मार्ग बि(ब)तलाय । कांनै मीढी(डी) मात(त्र) मै(ते), शुद्ध करें चित्तलाय पेहली प्रणिपत्ति सारदा, घि(द्वि)ति(ती)ये गु(ग)णपति देव । गुण-ठिकाण गुरुजी जपुं, सात दूहै करी सेव खेडा देवत खांतस्युं, देख हुआ गहगट्ट । शंभु दरसण पेखतां, भाज' गया भय-भट्ट श्रीवरकांणे वांदतां, सीधा सघला काज । यात्रा कीधी युगतसुं, भेट्या त्रिभुवनराज
॥चाल गझल री जै ॥ वरकांणा पास है वंका, वाजित सुं(अ)वणीमें डंकाक् । पेहली पोल ही जोईक्, देखत दल ही मोईक् ऐरावण ओपै है ऐसाक्, उत्तर बादरी जेसाक् । सोहें धर्म की सालाक्, रची गुण की मालाक् वांम जीमणै सोहैंक, देख्यां मनडा मोहैंक् । गवरीनंद है गाजींक, देखत भ्रंत ही भाजीक् खेतलवीर है आसाक्, उसीका देख तमासाक् । भला भौग ही लेंवेंक्, दूसमण दूर ही खेंवेंक दूहौ- उत्तर पोले पेसतां, खरो ज खेतलवीर। पोलें उठा पोलीया, गु(ग)णपति गुणै गहीर सवैयो- सूंड प्रचंड ही दीपत सुंदर भांण विनायक सोहत भाला३, मोदक आहार करै रीरि-भस(भंज)ण पास उभी दोय सुंदर बाला,
......................* आव(यु)ध च्यार भुजा तुझ सोभित नित्य विजय कै सदा प्रतिपाला
॥१॥
॥२॥
||३||
॥४॥
॥५॥
॥६॥
३. मींडु, ४. आनंदित थर्बु, ५. नाश पाम्यो, ६. अद्भुत, ७. दिल-हृदय, ८. मोहाय, ९. गाजता, १०. भ्रांति-भ्रमणा, ११. नाखे, १२. गणपति, १३. कपाळ, * अहीं एक चरण ओळु लागे छे.
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॥७॥
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
श्रुतसागर गाजत वीर घनाघन राजि(ज)त छाजत हाथ त्रिसुल ते ढालौ५, तेल सिंदूर चढावत नैव्यद मद पीयंत सदा जटीयालौ, रिद्ध समृद्ध भंडार भरावत शत्रु को नास करै नित कालो, नित्य प्रणांम कहै जटीयाल तुं जागती जोतस्युं दीनदयालो चालि- माणकचोकमें आयाक्, देखत दल ही भाया, झरोका जालीयां जोखांक्, जैसी इंद्र की गोखांक् सींगी बंध है चंगाक्, पुंठे२१ वहत है गंगाक्। पूरव पोल ही पेखीक्, उपर गोखकुं देखीक् करी कोरणी नीकीक, बीजी वात है फीकीक्२२ । ऐरावत एहवौ गु(ग)ज्जेक्२३, कायर देख ही धुज्जैक्४ अंबावाडी हे एसीक्, इंद्रविमान ही तेसीक्५ । जपै नवकार है लीनाक्, प्रभु ध्यांनसैं भीनाक् रणछोड मुंता हे राजीक्, जस की नोप(ब)तां बाजीक् ।
आगल देहरा भारीक्, तिणका काम हे बारीक उठी२६ का काम ही लाधाक्२७, सावा" जगतमैं बाधाक् । लक्ष्मी लाहा लीधाक्, प्रेमरस ही पीधाक् आगल प्रदक्षणा पेखीक्, बिचमें खाल" ही देखीक् । कौट कांगरा ताजाक्, तिणका काम हैं जाझाक्२० दूहो- प्रदक्षिणा देई आवीया, माणकचोक मझार । हिवै चढतां प्रभु-पावडी', गोग-दैव जुहार चंद्रायणौ- देखी बीजी पोल प्रेम बहु पावीया, कोरणीआ अति कहर२२ पेख मन भावीया, थंभ अढारै सोहे के दीपें बारणा, हरहां३३ केहतां नावें पार हिवै मांहिं धारणा
॥११॥
॥१२॥
॥१३॥
॥१४॥
॥१५॥
॥१६॥
१४. मदमस्त हाथी(?), १५. ढाल, १६. नैवेद, १७.जटावाळो, १८. गम्यो, १९. झरूखा, २०. आनंद आपनारा, २१. पाछळ, २२. मोळी, २३. गाजे, २४. ध्रुजे, २५. तेवी, २६. ?, २७. ?, २८. ?, २९. खाळ=नीक, ३०. घj, ३१. जिनालयना पगथिया, ३२. मनोहर,?, ३३. सारां, गुण, वखाण?,
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॥१७॥
॥१८॥
॥१९॥
॥२०॥
॥२१॥
SHRUTSAGAR चाल- बावन देहरी दीपेक्, मानु स्वर्गसुंजीपेक् । डंड कलश ही झलकैक्, कवियण देख ही मलकैक् जिणमें देव हे साराक्, दरिसण दीठा है प्याराक् ।
ओरीसा ओपे हें एसाक्, जडीया मही में खासाक्६ जस पर केसरां घसीयाक्, हिवडा हरखसें हसीयाक् । भूहिरा एक हे भारीक, मानु मद ही गारीक्२९ प्रभु पखाल ही आवेंक, नीकी खाल सुहावेक् । पावड-साला हें प्याराक्, तिणका काम है साराक् उपर चढकें जोयाक्, हीवडा हर्षस्यै(से) मौह्याक् । मु(मू)लनायक हैं देहराक, मानु स्वर्ग का सेहराक् सुवर्ण कलश हे ताजाक्, तिणका काम हैं जाझाक् । झिलमिल जोत ही जीपेक्, ऐसा कलश ही दिपेक् तिण पर डंड हे भारीक्, जडीत लोहमें मारीक । धजा एहवी जलकेक, गगन वीजरी भलकेक्७३ एहवा देहरा दीठाक्, मिसरी दूध हे(से) मीठाक् । करी कोरणी जी(सी)नीक, सातें धात हे भीनीक् अस(स्स)ल केसरी जायोक्५, भवियण मनडे भायोक्६ । पथ्थर कहर ही कापीक्, उपर छत्रीयां थापीक् चोमुख शिखर ही दीठाक्, पाप सर्व ही नीठाक् । अधिकां काम ही ओपेक्, नीका गोख ही दीपेक् उनकी कोरणी केसीक्७, अरबुद गढ हे जेसीक् । कारीगर खांत छै(स) कीधाक्, मांग्या दाम ही लीधाक्
॥२२॥
॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
॥२६॥
॥२७॥
३४. ओरसियो, ३५. पृथ्वीमां, ३६. खास्सो घणो ३७. हृदय, ३८. भोयरुं, ३९. अहंकार?, ४०. ?, ४१. शिखर (?), ४२.?, ४३. चमके, ४४. खांड, ४५. बन्यो (?), ४६. गम्यो, ४७. केवी, ४८. होशथी, काळजीथी,
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॥२८॥
॥२९॥
॥३०॥
॥३१॥
श्रुतसागर चंद्रायणो- दिलभर उपला काम के देखी मोहीया, हरख्या हीवडा मोह-तमासा जोहीया । गोखां जोख अगो[ख?]५१ के दीपे देहरा, सोहे प्रभु प्रासाद स(स्वर्ग) का सेहरा दूहो-एहवें ऊतरने २ आवीया, चोमुख रे दरबार । चैत्य जुहारी नवा नवा, अनोपम बिंब अपार चाल-अनोपम बिंब ही उपेक्, वेदबारीयां दीपेंक। उनका नाम है चोमुख, दरसण दीठां गया है दूख भवीजि(ज)न भावना भावेक्, नवे निध लक्ष्मी पावेक् । मंडाण देखतां मोहेक्, मुनिजि(ज)न-पादुका सोहेक् एक दौ(दो)य फेर ही फरीयाक्, दिलमें काम हे धरीयाक् । मुगति-महेलमें वरीयाक्५, चिंत्या काम ही सरीया ६ दूहो- एकण जीभें किम कहुं, ऊण देवल केरी छोज५७ । प्रदिक्ष(दक्षिणा दोय पुं(पू)जी प्रभु, अब खेलामंडप मोज चालि- खेलामंडप में खासाक्, उसीका देख तमासाक् । केहतां कोरणी नावेक, मुनिजि(ज)न भावना भावेक् संघ बहु देशना आवेक्, पूजा थ्या(था)ट" बनावेक् । वाजा छत्रीस ही वाजेंक, गगन[में] मेहुला गाजेंक् खेला खंतसे खेलेक्, डंडा-रस ही जेलेंक् । उंचा काम ही ओपेक्, ऐसा मंडप ही दीपेंक् दहा- अब दरसण प्रभु देखवा, धरी ध्यांन मनरंग। मोतीडे मेह वरसीया, मुझ घर आई गंग तीरथ पांच प्रगट अछ, जातां डावे वां(ठां?)म। हाथी चोमुख? सोभता, जपता श्रीजिननांम
॥३२॥
॥३३॥
॥३४॥
॥३५॥
॥३६॥
॥३७॥
॥३८॥
४९. उपरनु, ५०. जोया (?), ५१. अगोचर?, ५२. उतरीने, ५३. खरेखर ‘चार’ संख्याना अर्थमां(?), ५४. रचना, ५५. प्राप्त कर्यु, ५६. सर्या पूर्ण थया, ५७. शोभा?, ५८. पूजानो समुदाय, ५९. दांडीया रास,
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॥३९॥
॥४०॥
॥४१॥
॥४२॥
॥४३॥
SHRUTSAGAR
17 गडगड त्रंबालुं गु(ग)डे, धुरे निसांणे१ घाय२ ।
आरतीयां जिनरायनी, इंद्र उतारे आय रंगमंडप रलीयामणो, देख्या मोहत मन(न्न)। वाह वाह विधिसुं बण्यौ, नीरमल (नि)हुआ जतन(न्न) चालि- रंगमंडप ही राजेक्, सुंदर काम ही छाजेक् । देखी जालीयां जोखाक्, जांणे मुगत की मो(गो?)खाक् भंडार भूर हे भरीयाक्, खजाना बहुत ही धरीयाक् । सुवर्णवांन हे मुंडाक्३, तिणका पार नहीं तुंडाक्४, दूहा- मूलगभारो(रा) मो(मा)हिला, मै अ(आ)ज नैणे दीठ। भांण समोवड झलहलें, पावन हुई दीठ६५ पारस परतख पेंखीयो, चिंतामण चित्तवेल६६ । जब संग पारस भई, अरीयण नांख्या ठेल चालि - दीठी दीप की मालाक्, तोरण जा(झा)कज(झ)मालाक् । कीवी आरती आसीक्, खेवत धूप सुवासीक् केसर दणा मेलीक, कपू(प्पू)र कस्तु(स्तू)री भेलीक् । इस विध आंगीयां ओपेक्, दुनीयां आण नहीं लोपेक् मोगर मालती मोहेक्, चंपा केवडा सोहेक् । गयंदा ८ गुंथकें ल्यावेक, प्रभुने मस्त चढावेक् दरसण देव का दीठाक्, पाप सर्व ही नीठाक् । मस्तक मुगट ही ज(झ)लकेक, कंठे हार ही हलके कांने कुंडला सोहेक्, निरमल नेत्र ही मोहेक् । भाला वीस हे टीलाक्, जडीया नंग ही नीलाक् कंठे चंप की कलीयाक्, विच विच लाल ही मलीयाक् । बाजुबंध है भारीक, नीका काम है बारीक
॥४४॥
॥४५॥
॥४६॥
॥४७॥
॥४८॥
॥४९॥
॥५०॥
६०. एक जातनुं नगारा जेवू वाद्य, ६१. नोबत, डंको, ६२. प्रहार, ६३. जिनालयनु मुख आगळनो भाग?, ६४. ?, ६५. दृष्टि, ६६. चित्रवेली, ६७. करी, ६८. फुलनुं नाम(?), ६९.?, ७०. कळी,
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जुलाई-२०१९
॥५१॥
॥५२॥
॥५३॥
॥५४॥
॥५५॥
श्रुतसागर हाथां हद्द बीजोराक्, कड्यां(ट्यां) दीपें कंदोराक् । कडा हाथ में अडीयाक्, निरमल नंग ही जडीयाक् सवैया- नाम निरंजण हे जिनराज कौ नाम लीयां नवै निधि मले है, नांमथी मान वधे बिमणा ईत भीत सवी(वि) दुख दूर टले है, वांमा है मात वांणारसी नाथ आवै सहू यात्र सो आस फल है, प्रात समै नित्य उठकै साहिब पार्श्वजिणंद के पाय लुलै है दहो- जनम-महोछव वर्णवं, सांभलज्यौ चित्त लाय। गांम ठांम माता पिता, लंछण सर्प सवाय वांणारसी नगरी भली, जनम यो प्रभु पास। अश्वसेन घर अवतर्या, विजि दशमी पोस मास धन वामा तुझ कुंखने, जनम्या पासकमार। प्रथवी में प्रगट्यौ इसौ, आतमनौ आधार विचरंता तिहां आवि(वी)या, धन गोढाणा देश । प्रगट हूया नगरी कसा, दादा-वसही कहेक(स) धन वीझेवा संघने, प्रणम्या पारसनाथ। अनमी नर अलगा कीया, हठ भांज्या बहु बाथ प्रगट्यौ प्रथवी तारवा, कु(क)लयुग कहणी कीध। पवन छत्रीसै फरसनी, तुझ वांद्या निवि(नव) निध चाल- महीना पोस हे प्याराक, दशमी दिन हे साराक् । दुनीयां बहोत ही आवी(वे)क्, मेलां खुब बनावेक् हट्टाथट्ट हजाराक्, दीपें मस्त बजाराक् । थरमा पटु ही लेवैक्, मांग्या मोल भी देवैक् मुनिजन मस्त ही मलीयाक्, हीयडा हर्षस्यै(स) खुलीयाक् । दादा पासकुं गायाक्, अनघल लछमी पायाक्
॥५६॥
॥५७||
॥५८॥
॥५९॥
॥६०॥
॥६०(६१)।
७१. संदर, मनोहर, ७२. बीजोरं, ७३. उपद्रव, ७४. विजय, ७५. न नमनार, अक्कड, ७६. एक जातवें कापड,७७. वस्त्र (?),
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SHRUTSAGAR
July-2019 कवी(वि)त्त- गुंथी गजल गयंद आण मितरें(?) अनुसारे, विध विध छोज विणा(ण)य ध्यान सदगुरु सो धारे, देवल छोज अनेक हद्द विहद्द वखांणी, थंभ तीन छै च्यार काम बहू अधिको जाणी, पार्श्व वरकांण तुंठो वली ध्यांन एक चित्त मै धरी, विजय अविचल सुपसा(य)थी नवी जोड नित्ये करी
॥६१(६२)॥ श्री विजैजिनेंद्रसूरि ईस तपगछ रो आखां, श्रीविजैजिनेंद्रसूर ल(ग)यण-वृंद कीरत लाखां", श्रीविजैजिनेंद्रसूरि दाखीयै जिनधर्म दीवो, श्रीविजय(जै)जिनेंद्रसूरि युगोयुग च(चि)रंजीवो, करजोड एम नेतसी वदे ईस्या वेण आसीस रा, जिहां लगे चंद्र सूरने जलधि जिनेंद्रसूर प्रतपै धरा
॥६२(६३)॥ संवत अढारे सोय वरस एकताल (१८४१) अखीजै, पोस मास सुमास दिन दशमी भखीजै, वार भोम वली जाण काम बहू श्रु(सु)क्रत कीधो, पायो दरसण पास लाहो लछमीनो लीधो, लघु स्तुति इसडीक पारसनाथ पोते मिल्यो, एक शुध(द्ध) धणी धा(ध्या)वतां कल्पवृक्ष आंगण फि(फ)ल्यौ ॥६३(६४)।।
॥इति श्रीवरकाणां पार्श्वनाथजी री गज्जल सम्पूर्णं ॥ ॥लिखतं पं. लावण्यसागरेण बुधीनगरे ॥ १८५७ दुतिय येष्ट वदि ४ रात्रौ ॥
७८. ?, ७९. वयण, ८०. एवी. न जात लाभ कल रूप तप, बल विद्या अधिकार। इनकौ गरव न कीजीयै, ए मद आठ प्रकार ॥
प्रत क्र.-१२८४२८ भावार्थ:- मद आठ प्रकार के हैं – जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या Lऔर अधिकार । अतः इनके ऊपर मनुष्य को कभी गर्व नहीं करना चाहिए।
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ प्रतापविजयकृत १९ दोष काउसग्ग सज्झाय
साध्वी काव्यनिधि प्रस्तावना
जैन साधनानुं लक्ष्य मुक्ति छ। मुक्तिनो अर्थ बंधन अने पराधीनताथी छुटकारो मेळववो छ । राग-द्वेष बंधन छे, राग-द्वेषथी परालंबन थाय छे अने परालंबनथी राग-द्वेष पुष्ट थाय छे । परालंबन के पराश्रय ए ज परिग्रह छ । परिग्रह पराधीनताने पुष्ट करे छे। राग-द्वेष अने परालंबन- साधनामां क्यांय पण स्थान होतुं नथी। राग, द्वेष, परालंबन, पराश्रय, पराधीनता अने परिग्रहथी मुक्त थवानी साधना एटले कायोत्सर्ग साधना।
कायोत्सर्ग ए जिनसेवित अने जिनोपदिष्ट आगवी साधना पद्धति छ। मन, वचन, शरीररूपी कायानो त्याग करी मात्र आत्मामांज स्थिर थवानी प्रक्रियाने कायोत्सर्ग कहेवामां आवे छे। भगवान महावीर दीक्षा अंगीकार कर्या पछी साडा बार वर्ष आहार अने ऊंघ लेवा प्रत्ये उदासीन रही एकांत अने निर्जन स्थानोमां अप्रमत्तपणे काउसग्ग ध्याने रह्या।
आवी श्रेष्ठ कायोत्सर्ग साधना पण जो दोषयुक्त करवामां आवे तो संपूर्णपणे पोतानुं कार्य करवामां सफळ थती नथी। जेम उत्तम रसायण बनावतां तेमां एकाद द्रव्य ओछु नंखाई जाय के एकना बदले बीजु भळतुं द्रव्य मेळवाई जाय तो ते रसायण धार्यु काम करतुं नथी, तेम घणीवार आशातनादिथी भरपूर करेली दोषयुक्त क्रिया निष्फळ जाय छ । प्रस्तुत कृतिमां कर्ताए कायोत्सर्गना १९ दोषोनुं वर्णन करेल छ। कृति परिचय
प्रस्तुत कृति मुनि श्री प्रतापविजयजी द्वारा मारुगुर्जर भाषामां १३ गाथाओमां रचायेली छे । आ कृतिमां काउसग्गना १९ दोषोनुं वर्णन करवामां आवेल छ । कर्ताए प्रथम गाथामां प्रणमी वीर जिनेसर देव' कहीने परमात्मा वीरनुं मंगल स्मरण कर्यु छ । त्यारपछी काउसग्गना १९ दोषोनुं वर्णन कर्यु छे जे नीचे प्रमाणे छे
१. घोटक दोष- घोटक एटले अश्व. अश्वनी जेम बे पग (वांका, ऊंचा के नीचा) राखीने कायोत्सर्ग करे ते।
२. लता दोष- लता एटले वेलडी. उग्र पवनना संगथी जेम वेलडी हाले तेम कायोत्सर्गमां शरीर हाले।
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SHRUTSAGAR
July-2019 ३. स्थंभ दोष- स्तंभ एटले थांभलो. थांभलाने टेको दईने कायोत्सर्ग करे ते। ४. माळ दोष- माळ एटले माळियु. माळियाने मस्तकनो टेको दईने कायोत्सर्ग करे।
५. ऊध दोष-ऊध एटले गाडानी ऊध (ऊंध). गाडानी ऊधनी जेम आगळथी बन्ने पगना अंगुठा भेगा करीने अने पाछळथी पेनीओने पहोळी करीने कायोत्सर्ग करे ते।
६. नेउल (निगड) दोष- निगड एटले बेडी. पगोमां बेडी होय तेम पगोने पहोळा करीने के भेगा करीने कायोत्सर्ग करे। ___७. बावरी (शबरी) दोष- शबरी एटले भिलडी. जेवी रीते वस्त्ररहित भिलडी हाथोथी गुप्त अंगोने ढांके तेम हाथोथी गुप्त भागने ढांकीने कायोत्सर्ग करे।
८. खलित दोष- खलित एटले घोडाना मोढामा रहेलुं चोकळु. तेनी जेम रजोहरणनी दसीओ आगळ अने दांडी पाछळ राखीने कायोत्सर्ग करे ते। ___९. वधू दोष- कुलवधूनी माफक मस्तक नीचं राखीने कायोत्सर्ग करे ते।
१०. लंबुत्तर दोष- अविधिथी चोलपट्टाने नाभिथी उपर अने जानुथी नीचे राखीने कायोत्सर्ग करे ते।
११. स्तनीत दोष- डांस-मच्छर आदिना भयथी, अज्ञानथी के लज्जाथी स्तनोने ढांकीने कायोत्सर्ग करे ते।
१२. संयती दोष- साध्वीनी जेम आखा शरीरे कपडो के चोलपट्टो ओढीने कायोत्सर्ग करे ते।
१३. अंगुलि दोष- आलावाओने (नवकार वि. ने) गणवा माटे कायोत्सर्गमां आंगळीओ फेरववी ते ।
१४. वायस दोष- वायस कागडो. भमता चित्तवाळो जीव कायोत्सर्गमां कागडानी जेम दृष्टिने फेरवे ते।
१५. कविठ दोष- कविठ एटले कोठो. मेलं थवाना, जूना भयथी चोलपट्टाने कोठानी जेम गुंचळावाळु करे ते।
१६. शिरःकंप दोष- यक्षथी अधिष्ठित पुरुषनी जेम मस्तकने कंपावतो कायोत्सर्ग करे ते।
१७. मूक दोष- आड पडती होय विगेरे प्रसंगे मूंगा माणसनी जेम हुं हुं करे ते। १८. मदिरा(वारूणी) दोष- मदिरा एटले दारु कायोत्सर्ग रहेलो जीव सुरानी
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ जेम अव्यक्त बड बड आवाज करे ते।
१९. प्रेक्ष्य दोष- कायोत्सर्ग अनुप्रेक्षा करतो जीव वानरनी जेम होठ हलाव्या करे ते।
अंतिम गाथामां कर्ताए तपागच्छमंडण लक्ष्मीसूरिजी, गुरु मानविजयजी तेमज पोता नाम प्रतापविजय तरीके उल्लेख कर्यो छे। कर्ता परिचय
आ कृतिना कर्ता तपागच्छीय मानविजयजीना शिष्य प्रतापविजयजी छे । तेमनी रचनाओमां अन्य पण घणी कृतिओनो समावेश थाय छ। जेमां १८ दोष पोसह सज्झाय, नेमराजिमती गीत, नेमराजिमती पद अने आदिजिन पद विगेरे छ।
प्रतापविजयजीना गुरु मानविजयजी द्वारा रचित गजसिंहकुमार रासना अनुसारे तेमनी पूर्व परंपरा मळे छे। तदनुसार तपगच्छपति विजयाणंदसूरिजी तत् शिष्य श्रीविजयहीरसूरि तत् शिष्य विजयराजसूरिजी तत् शिष्य उवज्झाय दानविजयजी तत् शिष्य वृद्धिविजयजी तत् शिष्य पंडित कपूरविजयजी तत् शिष्य मानविजयजी थया, तपागच्छनायक विजयलक्ष्मीसूरिजीना राज्यमां गजसिंहकुमार रासनी रचना थयेल होवानो उल्लेख मळे छ। प्रत परिचय
संपदनार्थे प्रस्तुत कृतिनी २ हस्तप्रतोनी नकल आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबामांथी मळी हती। जेमांथी सं.१८५२मां लिखित प्रत नं-१००००९मां पत्रांक-१अ थी २अ पर आ कृति छे जे वधु प्राचीन होवाथी तेने आदर्श प्रत तरीके स्वीकारेल छ। अन्य प्रत नं. १८०३११ आधुनिक २०वीं नी प्रत जणाय छे, तेना बे पाठांतरो पण आप्यां छे।
बन्ने प्रतनी लेखनशैली सुंदर, स्पष्ट अने सुवाच्य छ। प्रत नं-१००००९मां कुल ८ पत्रो छ । प्रत्येक पत्रमा १३ थी १४ पंक्तिओ छे, प्रत्येक पंक्तिमा ३२ थी ३८ अक्षरो छ। MO॥ चोपई॥ प्रणमी वीर जिनेसर देव, सुरनर किन्नर सारे सेव । तेह तणे सुपसाई करी, सीधंत वृत्ति अति मनधरी काउसगना उगणिस दोस, ते छंड्ये होए धर्मनो पोष। पहो(हे)लो घोडक दोष ज कह्यो, चरण वक्र राखे ते लह्यो
॥२॥
॥१॥
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July-2019
॥३॥
॥४॥
॥५॥
॥६॥
॥७॥
SHRUTSAGAR
लता दोस ते बीजो जोय, तनुय हलावें तेही ज होय। स्थंभ दोस ते तीजो जांण, ओठींगण लिए ते अप्रमाण मालदोस ते चोथो केम, उत्तमंग अडकावे एम। पांनी अंगुठा मेलवी रहे, उध दोस ते पंचम कहें नेउल दोस ते छठो भाष, चरण विस्तारे तेहिज साख। बावरि दोस ते सातमें कह्यो, गुह्यस्थान कर राखें लह्यो रजोहरण चोकडनी परें, खलिण दोस ते कहीएं सीरें। रधो मुखे करी बेसे जेह, वधु दोस ते कहीये तेह लंबुत्तर जानु परें थाय, नाभी निह चुंपट पहेराय । स्तनीत दोस ते कहीये जेण, हृदय आछादे लज्जा तेण सीतोपद्रव भयथी तेह, संजिति दोस तनु आछा देह । भमुहंगुली दोष कहीये जांम, भुंह नचावे अंगुली तांम वायस दोस चवदमो एह, चउदिस निरखवो नरि संदेह । कपिछ दोष वस्त्रादिक जेम, म्लान' भएँ संकोचे तेम कंप दोस तें सोलमे भण्यो, सीस धूणावें तेही ज सुण्यो। मुंगानी परें हुं हुं करे, मुकदोस तें किणपरें तरें मदिरा दोस कह्यो अढारमें, बड बड करतां सामायक गमें। प्रेष्य दोस उगणिसमें जांण, अहर' हलावे प्लवग वखांण इणपरे तृविधे सामायक करें, शिवसंपद ते लीला वरे। गुरुमुखें शास्त्रथी सुणीये साख, खडावस्यके इणपरें भाष तपगच्छ मंडण लक्ष्मीसूरिंद, तप तेजे करी जांणे दिणंद । श्री गुरु मानविजय सुपसाय, प्रतापविजय इणपरे गुण गाय
॥इति १९ दोष काउसग्ग स्वाध्याय संपूर्ण ॥
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
॥११॥
॥१२॥
॥१३॥
१. टेको २. उत्तम अंग- मस्तक ३. घोडाना मोढामां रहेतुं चोकळु ४. अहीं रधो ने बदले अधो शब्द योग्य लागे छे ५. होठ ६. वांदरो. 1. म्लानत 2. किणपरि.
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ गुजराती माटे देवनागरी लिपिके हिन्दी माटेगुजराती लिपि?
__ चुनीलाल वर्धमान शाह गुजरातीने माटे अने गुजरातमां देवनागरी ('बाळबोध, अशास्त्रीय लेखको जेने 'हिंदी' पण कहे छे ते) लिपिनो उपयोग वधारवानी वकीलात घणा कालथी थती आवी छ । अंग्रेजी अमल अने शांति दरमियान प्रजा जागृत थवा लागी अने सुधरेली स्थिति, दुनियाना बनावो विषे वधती माहिती, केळवणी, तेम राम मोहनराय जेवा महापुरुषोए आरंभेली प्रवृत्तिओथी आखा हिन्द माटे प्रजाना हृदयमां अस्मितानो संचार थयो; राजपूत राजपुताणीओ विषेनी नवलो लखाती थइ; अने साथे आपणा खंड जेवडा मोटा देशमांगें कुदरती भाषाबाहुल्ये खूचवा लाग्यु, तेनी साथे साथे आ वकीलातनो पण उदय थयो। कालक्रमे जूना वकीलो शांत पडता गया तो अवनवा आगळ पण आवता गया। आम केटलाक दायकाथी चालतुं आव्यु छ । पण आ हिमायत तो दम वगरनी छे, एम हवे समझावा मांड्यु छ ।
लिपि जाणवाथी भाषाज्ञान मेळववामां केटलो थोडो फायदो थाय छे तेना दाखला हालतां चालतां नजरे पडे छ । टपालीओ अनेक लिपि जाणे छे; एमांनो कोई एक पण भाषा जाणे छे खरो? ए तो माणस केटलुं भण्यो छे ते तपासिये त्यारे कही शकाय । बे वधारे संगीन दाखला आपुं हिन्दीने ऊर्दु (हिन्दुस्तानी) लिपिमां, ऊर्दुने देवनागरीमां, लखी जुवो। एवा लिपि फेरथी ते ते भाषानी अगम्यतानी मात्रा घटती नथी। वळी आ दाखलामां तो हिन्दी अने ऊर्दु भाषाशास्त्रनी दृष्टिए एक ज भाषा छे, बे जुदी जुदी भाषा पण नथी, तथापि वस्तुस्थिति आ प्रमाणेनी छे । बीजो दाखलो जरा जुदी जातनो लइये। ऊर्दु (के सिंधी) जाणनार फारसी लखाण के चोपडी वांची तो शके, केम के बन्ने भाषानी लिपि एक छे* तेथी ते शुं फारसी भाषाने जाण्या वगर समझी शकशे खरो? अजब जेवी वात छे के आवा परपोटाने पण दि. ब. कृष्णलाल झवेरी जेवा व्यवहाररीढा नर संगीन गोळो होय एम वळगी पडे छ।
लिपिओ घडाइ अने फेलाई मुद्रणकळानी शोध पहेलां घणा सैका उपर । एटले मुद्रणनी नजरे लिपिमां गुणदोष देखाय तेटला उपरथी तुलना करवी योग्य नथी। * फारसी लिपि+थोडां नवां चिह्न = ऊर्द लिपि; ऊर्द लिपि+थोडां नवां चिह्न-सिंधी लिपि. सिंधी भाषा आधुनिक काळमां देवनागरी लिपिए लखावा मांडी छे, ते पहेलां ऊर्दु लिपिमा लखाती शीखाती. X जुवो एमणे श्रीसयाजी गुजराती व्याख्यान माळामां ता. ३-३-३४ सांझे करेलुं व्याख्यान.
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July-2019 लिपिओने मुख्यत्वे लेखननी दृष्टिए तपासवी घटे।
लिपिओमां गुणदोष बने होय । युरोपीय लिपिने इटालिक अने अंग्रेजी ए नामे ओळखीए छीए, तेमां अनेक दोषो छ । एमां केटलांक उच्चारणो माटे चिह्नो नथी; एक ज उच्चारण माटे बे त्रण चिह्नो जणाय छे, एक ज चिह्न के चिह्न जूथ एमां विधविध उच्चारणोने माटे वपराय छे । Cease, seize, she, her, gem, major, cat, pass, laugh, fought, phew, sew, sue, sow, now, sure, put, gun, एवा न्हाना अने जाणीता अंग्रेजी शब्दो पण आ दोषोना दाखलाओ माटे पूरता छ। पण मुद्रकनी दृष्टिए विचारीए तो ए लिपिमां एक गुण मोटो छ । एमां व्यंजन ने स्वरनां उच्चारणो माटे जुदां जुदां चिह्नो छे, वळी बधां चिह्नो मळीने छव्वीस ज, एटले ए लिपिमां करेलुं लखाण ओछामां ओछां बीबां वडे छापी शकाय छे।
आपणी उत्तर हिन्दनी भाषाओनी लिपिओमां व्यंजन चिह्नोमां अकार भळेलो छे, बीजो स्वर भळे त्यारे अ नथी एम मानी लेवानी रूढि छे, अने एके स्वर भळेलो नथी एम देखाडवा माटे व्यंजन चिह्न तळे नवु चिह्न (क् खोडो छे एम देखाडनारं) करवू पडे छे* व्यंजनो तेम स्वरोमां वळी आपणी लिपिओमां जेटलां उच्चारण शक्य ते दरेकने माटे स्वतंत्र चिह्न राखवानी भावना स्पष्ट देखाय छे । आ खासियतोने लीधे आपणी लिपिमांथी कोईने पण छापतां घणां वधारे बीबांनी जरूर पडे छे, आ खासियतोने लीधे। ___ परंतु लिपिनो उपयोग मूळ तो लखवा माटे हतो अने छापवानु नीकळ्या पछी के टाइपराइटरो वधतां पण लखवानुं ओछु नथी थतुं। केम जे जीवननी संकुलता सगवडो अने वाचक लेखकोनी संख्याना वधारा साथे लखवानुं वधतुं ज जाय छे । अने लखवामां तो लेखण उपाडवी ना पडे ने एक पछी एक घणा अक्षरो लखी शकाय, ए ते लिपिनो मोटो व्यवहारु गुण गणाय । लखवामां सरलता अने झडप बन्ने आ गुणथी मळे छ।
आ गुण गुजराती तेमज इटालिक लिपिमां सौ स्वीकारी ले एम मोटा प्रमाणमां छ। अने ए देवनागरी लिपिमां घणो ओछो छ। कोईपण आठ लीटी, गुजराती देवनागरी अने इटालिक त्रणे लिपिमा लखी जुवो एटले खातरी थई जशे।
(क्रमशः) * जोडाक्षरोमां छेल्ला सिवायना व्यंजनो माटे ते ते आकृतिनो अमुक खंड वापरीए छीए एटली मुद्रणमां कसर शक्य छे, अने साथे एटली अगवडे पडे छे.
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ श्रुतसेवा के क्षेत्र में आचार्य श्रीकैलाससागरसरि
ज्ञानमंदिर का योगदान
राहुल आर. त्रिवेदी
(गतांक से आगे)
सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के प्रथम तल पर सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय अवस्थित है। इस संग्रहालय में पुरातत्त्व अध्येताओं और जिज्ञासु दर्शकों के लिए प्राचीन भारतीय शिल्प परम्परा के गौरवमय दर्शन होते हैं। पाषाण, धातुप्रतिमा, ताडपत्र व कागज पर चित्रित पाण्डुलिपियों, लघुचित्र पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों तथा अन्य पुरावस्तुओं को बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक तरीके से प्रदर्शित किया गया है। साथ ही किसी भी रूप में उनकी धार्मिक अथवा सांस्कृतिक अवहेलना न हो उसका पूरा ध्यान रखा गया है। ____ संग्रहालय चार खण्डों में विभक्त है : १. वस्तुपाल तेजपाल खण्ड व ठक्कर फेरु खण्ड, २. परमार्हत कुमारपाल व जगत शेठ खण्ड, ३. श्रेष्ठी धरणाशाह व पेथडशा मन्त्री खण्ड, ४. विमल मन्त्री व दशार्णभद्र खण्ड। १. वस्तुपाल, तेजपाल व ठक्कर फेरु शिल्प खण्ड
संग्रहालय में प्रवेश करते ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की वि. सं. ११७४ में बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा दिखती है। गुच्छेदार केशयुक्त मस्तक, तिरछी पलक, अधखुली आँखें, नुकीली नाक, सुंदर होठ, श्रीवत्स, हथेली एवं पैर के तलवों पर मांगलिक चिह्न व शान्त एवं प्रसन्नभाव मथुरा शैली की विशेषता है। ___इसके अलावा पारेवा पत्थर से निर्मित पद्मासनस्थ तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा है, जो प्रायः ७वीं शताब्दी की है। दो प्रतिहार्य (त्रिछत्र एवं गादी) युक्त इस प्रतिमा के पार्श्व में पहाड़ी एवं वृक्ष का अंकन, मुख के तीनों ओर वस्त्र-तोरण का अंकन एवं गादी के नीचे मध्य में धर्मचक्र और उसके दोनों ओर शंख एवं सिंहाकृतियों का अंकन किया गया है। शरीररचना में अंगों का पारस्परिक संबंध अच्छी तरह अंकित किया है। प्रतिमा के मुख का अधिकांश भाग नष्टप्राय हो गया है।
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July-2019 नालंदा से प्राप्त प्रतिमाएँ उस युग की सौंदर्य-चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन तीर्थंकर प्रतिमाओं में प्राचीन परंपरा से कहीं अधिक प्रगतिशील स्थूलता को सरलता से रेखांकन करने का प्रयत्न किया गया है।
एक प्राणवान रूप प्रदान करने की भावना सभी प्रतिमाओं में दिखाई देती है। जहाँ कहीं प्राचीन परंपरा रह गई है, वह कुषाणकालीन मथुरा शैली के प्रभाव के कारण है। समग्र रूप से ये प्रतिमाएँ उत्तर और मध्य भारत के अन्य क्षेत्रों की कलाकृतियों के सदृश हैं।
प्राचीनतम प्रतिमाओं में बलुआ पत्थर से निर्मित द्वारपाल की प्रतिमा प्रदर्शित की गई है। जो लगभग ३री शताब्दी की है। उसके ऊपरी भाग में मत्स्यांकन दिखाया गया है। मत्स्यांकन प्रतिमा के कुषाणकालीन होने का प्रमाण है।
विभिन्न प्रदेशों से प्राप्त विभिन्न शैलियों की एवं विविध सामग्रियों में निर्मित जिनमंदिर की बारसाख, स्तंभ, तोरण, वाद्ययुक्त शालभंजिकाएँ, देव-देवियाँ एवं स्वद्रव्य निर्मित जिनमंदिर के दाता का शिल्प आदि आकर्षक कलाकृतियों को रोचक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
प्रस्तुत शिल्पांश को प्रदर्शित करने का ध्येय जिनमंदिर के महत्वपूर्ण भागविभागों की जानकारी देना है। भारत के कई जिनमंदिर अपने स्तम्भ एवं दीवारों पर की गई नक्काशी एवं महत्वपूर्ण प्रसंगों के चित्रांकन के लिये विश्वप्रसिद्ध है, शलुंजय, सम्मेतशिखर, गिरनार, आबु के जिनमंदिर, नालंदा, खजुराहो, तारंगा, कुंभारिया, ओसियाजी, राणकपुर, देवगढ के जिनमंदिरों में की गई नक्काशी उस समय के समाज की धर्मभावना एवं कला के प्रति उदारता की साक्षी है। ____ भारतीय धातुप्रतिमा के इतिहास में जैनकला का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
जैनकला की सबसे पुरानी कांस्य प्रतिमा चौसा (जि. भोजपुर, बिहार) से प्राप्त हुई है, जो पहली शताब्दी की मानी जाती है। ___भगवान आदिनाथ से महावीर स्वामी तक की ७वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य निर्मित कांस्य प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं में अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताएँ, कला एवं धर्मभावना को अंकित किया गया है। इनमें से कई प्रतिमाओं के पीछे प्रशस्तियाँ अंकित की गई हैं, जो जैन इतिहास एवं परंपरा के संशोधन में महत्वपूर्ण हैं।
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ २. परमार्हत कुमारपाल एवं जगतशेठ श्रुतखण्ड
श्रुतखण्ड इस संग्रहालय का महत्वपूर्ण खण्ड है, जो सामान्यतया अन्य किसी संग्रहालय में नहीं होता है। इस खण्ड में प्राचीन से अर्वाचीन काल तक की श्रुत परम्परा प्रदर्शित की गई है।
इस खंड में पठन-पाठन की पाँच प्रक्रियाओं के द्वारा श्रुत का शिक्षण एवं संरक्षण, ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति एवं विकास, आगम वाचना, ग्रन्थलेखन, जैन लिपि, लेखन के माध्यम एवं साधन, सुलेखन कला ग्रंथ के विविध स्वरूप, ग्रन्थ संरक्षण के माध्यम के साथ-साथ ४५ आगम एवं अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर रचित हस्तप्रतों को प्रदर्शित किया गया है। ३. श्रेष्ठी धरणाशा एवं पेथडशा मंत्री चित्र खण्ड ___ सचित्र पाण्डुलिपियाँ दीवारों, काष्ठफलकों, वस्त्रों पर चित्रांकन की परंपरा प्रारंभिक काल से प्रचलित रही है। सातवाहनकालीन अजंता की गुफा के भित्तिचित्र इस परंपरा के स्पष्ट साक्ष्य हैं। १०वीं शताब्दी के पूर्व ही धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थों की सचित्र पाण्डुलियों की एक सामान्य परंपरा प्रचलित थी।
प्रारंभिक पाण्डुलिपियों की चित्रशैली प्राचीनकाल से चली आ रही अजंता की उच्चस्तरीय चित्र-परंपरा से ली गयी थी। परंतु इसकी रचना में कहीं अधिक स्थिरता
और प्रस्तुतीकरण में औपचारिकता थी। अजंता एलोरा की चित्रशैली गुजरात में १२वीं शताब्दी तक निरंतर रूप से प्रचलित रही। आगे चलकर उसने एक विकसित शैलीबद्ध स्थान ग्रहण किया। गट्टाजी
गट्टाजी एक प्राचीन परंपरा है। जैनधर्म में प्रातः सर्वप्रथम जिनदर्शन पूजा एक नित्यक्रम माना गया है। प्राचीन काल में तीर्थयात्रा के दौरान जहाँ दूर-दूर तक जिनमंदिर दिखाई नहीं देते थे, वैसी जगह पर भी रात्रि विश्राम करना पड़ता था। ऐसी परिस्थिति में गाजी में अंकित तीर्थंकर के दर्शन-पूजा आदि करके अपने धर्म का पालन करते थे। विज्ञप्ति पत्र
कुण्डलीनुमा पटों पर कथा-चित्रण एक प्राचीन परम्परा है। इसी परम्परा के
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July-2019 तहत विज्ञप्ति अथवा विनतीपत्र की रचना हुई। विज्ञप्तिपत्र वास्तव में एक विशेष प्रकार का पत्र है, जिसके माध्यम से प.पू. आचार्यभगवन्तों को चातुर्मास हेतु श्रावकों के द्वारा निवेदन किया जाता था अथवा राजा महाराजाओं को प्रजा की ओर से निवेदन किया जाता था।
१७वीं शताब्दी से इन विज्ञप्तिपत्रों में चित्रों का समावेश होने लगा। इसमें प्रायः चित्र आरम्भ में ही होते हैं। सबसे पहले अष्टमांगलिक चिह्न, चौदह स्वप्न और शय्या पर विश्राम करती तीर्थंकर की माताश्री और उसके बाद नगरचित्रण होता है। नगरचित्र का प्रारम्भ जिनमंदिर, बाजार, किला, राजदरबार, प्रमुख स्मारक, देवालय आदि के चित्रों से होता है। चित्रों के बाद गद्यात्मक अथवा सुन्दर काव्यात्मक शैली में पत्र लिखा होता है और अन्त में समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हस्ताक्षर होते हैं। ४. श्रेष्ठी विमलमंत्री एवं दशार्णभद्र परंपरागत खण्ड
इस खण्ड में चन्दन, हाथीदाँत एवं चीनी-मिट्टी की बनी कलात्मक वस्तुएँ प्रदर्शित की गई हैं जो दर्शकों का मन मोह लेती है। साथ ही यहाँ परम्परागत कई पुरा वस्तुओं का प्रदर्शन भी किया गया है जो दर्शकों को अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है साथ ही जैन धर्म एवं दर्शन के प्रति चिन्तन-मनन एवं इस सम्बन्ध में अध्ययन के लिये आकर्षित भी करती है। जैन संस्कृति की प्राचीनता एवं भव्यता से समाज की नई पीढी को परिचित कराना इस संग्रहालय का प्रमुख उद्देश्य है।
भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य निधि को राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने विहार में पदयात्रा के दौरान देश के कोने-कोने से व्यक्तिगत रूप से, विभिन्न संस्थाओं एवं संघों से सम्पर्क कर एकत्रित किया है। इस अमूल्य निधि को यहाँ पर सुरक्षित व संरक्षित किया गया है। इस समय कुल संग्रह में से मात्र १०प्रतिशत कलाकृतियों को ही प्रदर्शित किया गया है। शेष ९०प्रतिशत दुर्लभ कलाकृतियाँ भंडार में सुरक्षित हैं। ___भविष्य में बहुत बड़ी लागत से विश्वस्तरीय नूतन संग्रहालय के निर्माण की परियोजना पर काम चल रहा है। जिसमें और भी अमूल्य वस्तुओं को सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया जाएगा। जैनसमाज के लिए यह बहुत ही गौरव का विषय है।
(क्रमशः)
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ पुस्तक समीक्षा
डॉ. हेमन्त कुमार पुस्तक नाम - गुरुगुणषट्त्रिंशत्-षट्विंशिका कुलक कर्ता एवं टीकाकार - आ. रत्नशेखरसूरिजी अनुवाद एवं संपादक - मुनि श्री संयमकीर्तिविजयजी प्रकाशक - श्रीसम्यग्ज्ञान प्रचारक समिति, अहमदाबाद प्रकाशन वर्ष - विक्रम २०७५ मूल्य
- १५०/भाषा
- संस्कृत एवं गुजराती संसार के सभी धर्मों में व्यक्ति के जीवनोत्थान एवं समाज के निर्माण हेतु गुरु की भूमिका को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है. जैनधर्म में देव, गुरु और धर्म ये तीन तत्त्व विशेष महत्त्व के हैं। देव धर्म के संस्थापक होते हैं, गुरु धर्म के प्रचारक होते हैं और सर्वज्ञभाषित, दयामय, अहिंसामूलक, जीव एवं अजीव में भेद बताने वाले सिद्धान्त को धर्म कहते हैं। गुरु का स्थान देव और धर्म दोनों के मध्य का है. मध्य में रहने वाला दोनों ओर योग्य दृष्टि रखता है. इन तीनों में गुरु का स्थान सर्वोपरि है क्योंकि देव और धर्म का परिचय करानेवाले गुरु ही तो हैं। गुरु के बिना देव और धर्म का ज्ञान संभव नहीं है। गुरु धर्म से स्वयं जुड़े रहते हैं और दूसरों को भी जोड़ते हैं। गुरु की महिमा अपरम्पार है. गुरु जैन संस्कृति के अमर गायक हैं, महान उन्नायक हैं. सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। भारतीय वैदिक वाङ्मय एवं लौकिक वाङ्मय दोनों में ही गुरु की गरिमा एवं महिमा का भरपूर वर्णन मिलता है. वैदिक परम्परा में जहाँ गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश और परमब्रह्म की संज्ञा दी गई है, वहीं जैन परम्परा में भी गुरु को वर्तमान के अरिहन्तसम संज्ञा से विभूषित किया गया है। चाहे वह किसी भी धर्म-सम्प्रदाय को मानता हो, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है। इसलिए गुरु की महिमा, उनके गुणों और उनके उपकारों आदि का वर्णन सभी धर्मों-शास्त्रों में समानरूप से मिलता है।
गुरु के गुणों का वर्णन करता हुआ एक अद्भुत एवं अद्वितीय ग्रंथगुरुगुणषट्त्रिंशत्षट्त्रिंशिका कुलक की रचना आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी म. सा. ने अनुमानतः विक्रम की १५वीं सदी में की है। पूज्यश्री ने इस कृति की गूढ़ता को समझने के लिए इसकी
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SHRUTSAGAR
___July-2019 दीपिका नामक स्वोपज्ञटीका भी लिखी है, जिसमें गुरु के गुणों को विस्तारपूर्वक समझाया गया है. पूज्यश्रीजी ने ४० गाथाओं में इस कृति की रचना की है। इनमें से ३६ गाथाओं की प्रत्येक गाथा में गुरु के ३६ गुणों का वर्णन किया है। इस प्रकार इस कृति के माध्यम से गुरु को १२९६ गुणों से युक्त बताया गया है। ____ आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी ने टीका के अन्त में अपनी गुरुपरम्परा को स्मरण करते हुए लिखा है कि बृहद्गच्छ (नागपुरीय तपागच्छ) में जयशेखरसूरि के पट्टधर श्री वज्रसेनसूरि, उनके पट्टनायक श्री हेमतिलकसूरि का शिष्य मैं श्री रत्नशेखरसूरि ने इस विवृत्ति को लिखा है. इनके द्वारा लिखित संस्कृत एवं प्राकृत की अन्य कृतियाँ भी मिलती हैं। ___ गुरु की महिमा एवं उनके गुणों को प्रस्तुत करती इस कृति का पूज्य मुनि श्री संयमकीर्तिविजयजी ने गुजराती भाषा में सरल एवं सुगम्य शब्दों में भावार्थ लिखकर समाज को उपकृत किया है। पूज्य मुनि श्री तपागच्छीय पूज्य आचार्य श्री पुण्यकीर्तिसूरिजी के शिष्य हैं। इन्होंने गुरु गुण महिमायुक्त इस कृति का संपादन एवं अनुवाद करके सर्वसुलभ कर दिया है।
पूज्य मुनिश्री संयमकीर्तिविजयजी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन व अनुवाद कर लोकोपयोगी बनाने का जो अनुग्रह किया है, वह सराहनीय एवं स्तुत्य कार्य है। पुस्तक की छपाई बहुत सुंदर ढंग से की गई है। आवरण भी कृति के अनुरूप बहुत ही आकर्षक बनाया गया है। विस्तृत विषयानुक्रमणिका एवं परिशिष्ट में टीका के संदर्भग्रंथों की सूची देने से प्रकाशन बहुपयोगी हो गया है। __ अनेक महान ग्रंथों की प्रस्तुति के पश्चात् पूज्यश्रीजी की यह एक और सीमाचिह्न रूप में प्रस्तुति है। संघ, विद्वद्वर्ग, जिज्ञासु इसी प्रकार के और भी उत्तम प्रकाशनों की प्रतीक्षा में हैं।
भविष्य में भी जिनशासन की उन्नति एवं प्रभुभक्तिमार्ग में उपयोगी ग्रन्थों के प्रकाशन में इनका अनुपम योगदान प्राप्त होता रहेगा, ऐसी प्रार्थना करते हैं।
पूज्य मुनिश्रीजी के इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन।
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जुलाई-२०१९
समाचारसार
परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा का
राजनगर अहमदाबाद में भव्य चातुर्मास प्रवेश
राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ३७०० कि.मी. का उग्र विहार करके दि. १३-७-१९ को श्री आदिनाथ तपागच्छ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक शांतिग्राम जैनसंघ, अहमदाबाद चातुर्मासार्थ पधारे। नवकारशी के पश्चात् प्रातः ८:३० बजे शांतिग्राम टाउनशीप के मीडॉज फ्लैट से शोभायात्रा का प्रारम्भ हुआ। इस शोभायात्रा में हाथी, घोड़े, बैन्डबाजा, ध्वजा-पताका तथा शहनाईयों की धुन के साथ श्री आदिनाथ तपागच्छ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ के श्रेष्ठिवर्य, श्रावक तथा दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, राजस्थान, आगरा, हरियाणा, मध्यप्रदेश, इन्दौर तथा भारतभर के विभिन्न स्थानों से पधारे हुए श्रद्धालु गुरुभक्त शामिल हुए। १० बजे यह शोभायात्रा चातुर्मास स्थल पर पहुँचकर सभा में परिवर्तित हो गई।
सभागृह के पंडाल में जयजयकार के उद्घोष के साथ राष्ट्रसन्त श्री का मंगल प्रवेश हुआ। उपस्थित श्रद्धालुओं ने सर्वप्रथम सामूहिक गुरुवंदन किया, इस अवसर पर श्री गौतमभाई अदाणी ने अखंड अक्षत से बधाते हुए गुरुवन्दना की। अदाणी परिवार तथा श्री आनन्दजी कल्याणजी पेढी के ट्रस्टी श्री श्रीपालभाई आर. शाह, दिल्ली से पधारे हुए श्री वीरुजी बुरड, तथा भायंदर, मुम्बई से पधारे हुए श्री मांगीलालजी तथा श्री सुरेशभाई देवचंद आदि ने दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम को प्रारम्भ किया। इसके बाद श्रीमती सुवर्णाबेन अदाणी ने गुरुभक्ति गीत प्रस्तुत किया, १२वर्षीया बालिका पल जिनलकुमार शाह ने भावपूर्ण नृत्य के साथ गुरु वन्दना प्रस्तुत कर उपस्थित दर्शकों को मन्त्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए श्री उत्तम छेडा तथा श्री हार्दिक शाह ने भक्तिपूर्ण माहौल बना दिया। उन्होंने पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यश्री के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का भी वर्णन किया।
उसके बाद पूज्य आचार्य श्री ने अपनी सुमधुर वाणी में उपस्थित श्रद्धालुओं को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि “मनुष्य को अपने जीवन में कौन सा कार्य कब और कैसे करना चाहिए? इस चातुर्मासिक प्रवचन में आपको वह सबकुछ जानने को मिलेगा, जो आपने आजतक नहीं जाना है, और जिसे जानना आपके जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है। पूज्यश्री के प्रवचन के पश्चात् अदाणी परिवार ने गुरुपूजन किया तथा पूज्य
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SHRUTSAGAR
July-2019 आचार्य भगवन्तों व पाट पर विराजमान सभी साधु भगवन्तों को कामली अर्पण किया।
कार्यक्रम के पश्चात् पधारे हुए सभी महानुभावों ने पूज्य राष्ट्रसन्त श्री से आशीर्वाद ग्रहण कर धन्यता का अनुभव किया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अदाणी परिवार की ओर से सभी श्रद्धालुओं व अतिथियों की साधर्मिक भक्ति की गई।
श्री सीमन्धरस्वामी जैनतीर्थ, महेसाणा तथा
श्री घंटाकर्ण महावीर जैनतीर्थ, महुडी में स्थिरता दि. ३०-६-१९ को श्री सीमन्धरस्वामी जैनतीर्थ, महेसाणा में पूज्य श्री ने स्थिरता की, गुजरात के माननीय उपमुख्यमन्त्री श्री नितिनभाई पटेल पूज्यश्री के दर्शनार्थ पधारे और उनसे आशीर्वाद ग्रहण किया। वहाँ से विहार कर दि. ३-७-१९ को श्री घंटाकर्ण महावीर जैनतीर्थ, महुडी में स्थिरता की और दि. ६-७-१९ को श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा पधारे, वहाँ दो दिनों तक स्थिरता कर दि. ८-७-१९ को चातुर्मास हेतु अहमदाबाद की ओर विहार किया।
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा में
श्री गौतमस्वामी महापूजन का भव्य कार्यक्रम विश्वप्रसिद्ध कोबातीर्थ में प. पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदि गुरुभगवंतों के पुण्य पदार्पण एवं सूरिमन्त्र आराधक पूज्य आचार्यदेव श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. का मंगलमय चातुर्मास प्रवेश दि. ६-७-१९ को प्रातः ७:१५ बजे भव्य समारोह के साथ हुआ। प्रातः ९:०० बजे नवनिर्मित गुरुमन्दिर में श्री गौतमस्वामी महापूजन किया गया, जिसके लाभार्थी श्रीमती कान्ताबेन रसिकलाल अचरतलाल शाह परिवार थे। पधारे हुए श्रद्धालुओं के लिए संस्था की तरफ से नवकारशी की भी व्यवस्था की गई थी।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की बेजोड़ खासियतों एवं महत्त्वपूर्ण
उपलब्धियों की भव्य प्रस्तुति
परमपूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा, परमपूज्य आचार्यदेव श्रीअमृतसागरसूरीश्वरजीम.सा., प.पू.आचार्य श्रीअरुणोदयसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. आचार्य श्री हेमचन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. सा., प. पू. गणिवर्य श्री
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श्रुतसागर
जुलाई-२०१९ प्रशान्तसागरजी म. सा. तथा श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्ममिक साधना केन्द्र से पधारे हुए डॉ. मुकुंद सोनेजी (श्री आत्मानंदजी), श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के ट्रस्टी श्री श्रीपालभाई आर. शाह तथा ज्ञानमंदिर के समस्त कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में दि. ७-७-१९ को श्रुतसंरक्षक परमपूज्य आचार्य श्री अजयसागरसूरीश्वरजी म. सा. के द्वारा एक मात्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में चल रही विविध प्रवृत्तियों, परियोजनाओं तथा आज तक की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया।
ज्ञानमन्दिर की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ, जो इसे विश्व के सभी ग्रन्थालयों में अद्वितीय व अतुलनीय बनाती हैं, जैसे विश्व के अन्य सभी ग्रन्थालयों में प्रचलित सूचीकरण प्रणाली से हटकर की जानेवाली गहन संशोधन आधारित सूचीकरण पद्धति तथा इसके अन्तर्गत कृति पुत्र-पौत्रादि परिवार व विद्वान गुरु-शिष्य परम्परा आदि की विभावना के कारण वाचकों को बहुत ही अल्प समय में उनकी अपेक्षित सूचनाएँ उपलब्ध कराई जाती है, जिससे वे अपने बचे हुए समय का सदुपयोग अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए करते हैं। ज्ञानमन्दिर की अनेक उपलब्धियों व सिद्धियों तथा ज्ञानमन्दिर के कार्यों एवं सेवाओं की वजह से जिनशासन गगन में श्रुत संशोधन-संपादन के क्षेत्र में समस्त श्रीसंघ एवं समाज में आ रहे बड़े एवं क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विषय में भी पूज्य राष्ट्रसन्तश्रीजी को अवगत कराया गया।
सम्पादन-संशोधन आदि क्षेत्रों से जुड़े हुए परम पूज्य साधु-साध्वीजी भगवन्तों तथा देशी-विदेशी विद्वानों के द्वारा माँगी गई अपेक्षित सूचनाएँ किस प्रकार अल्प समय में और सटीक रूप से उपलब्ध कराई जाती है, इस भगीरथ कार्य में आधुनिक तकनीक किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होते हैं तथा ज्ञानमन्दिर के पण्डितगण और उनके सहयोगी कार्यकर्ता कितने धैर्य और सूझबूझ के साथ विविध ग्रन्थों में से सूक्ष्म सूचनाओं का संग्रह कर उन्हें किस प्रकार विद्वद्भोग्य बनाते हैं, इस सम्बन्ध में पूज्य आचार्यश्रीजी ने उपस्थित सभी को विस्तारपूर्वक बताया।
साथ ही यहाँ कार्यरत विद्वान पंडितों की विशिष्ट प्रतिभाओं का परिचय प्रस्तुत करते हए पूज्य आचार्यश्री ने ज्ञानमन्दिर की विविध परियोजनाओं में प्राप्त होनेवाले उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के विषय में भी प्रकाश डाला।
परमपूज्य राष्ट्रसन्त श्री ने ज्ञानमंदिर की इस उपलब्धि में सभी कार्यकर्ताओं के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें अंतःकरण से आशीर्वाद प्रदान किया तथा उनके मंगलमय भविष्य के लिए शुभकामनाएँ दीं।
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परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा की निश्रा में कोबा तीर्थ में संपन्न हुए विविध कार्यक्रमों की कुछ झलकियाँ
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