Book Title: Samrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत दिवाकर चित्रकथा सम्राटसम्प्रति ६ जयपुर भारती अकादमी अंक ४५ मूल्य 20.00 सुसंस्कार निर्माण विचार शुद्धि :ज्ञान वृद्धि मनोरंजन NEducation.international FOR Private D onalus Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक का नाम और स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। विशेषकर बौद्धधर्म के इतिहास में जो महत्त्व अशोक का है लगभग वही महत्त्व जैनधर्म के इतिहास में अशोक पौत्र सम्प्रति का है । सम्पूर्ण भारत और भारत के बाहर विदेशों में जैनधर्म और संस्कृति का प्रसार करने में सम्राट सम्प्रति ने जो योगदान दिया है वह हजारों वर्ष बाद आज भी इतिहास का उज्ज्वल प्रेरक अध्याय बना हुआ है। जैनधर्म के प्राचीन ग्रंथों - चूर्णि (वि. ७वीं सदी) भाष्य, टीका आदि में अनेक स्थानों पर अशोक पुत्र कुणाल के अंधा होने की घटना तथा सम्प्रति के पूर्वजन्म का प्रसंग व जैनधर्म के प्रसार हेतु विदेशों में श्रावकों को भेजने की चर्चा उपलब्ध है, इससे उसकी ऐतिहासिकता मे किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता। किन्तु आश्चर्य है इस प्रतापी और धर्मात्मा वीर सम्राट के सम्बन्ध में भारतीय इतिहास लेखक चुप क्यों रहे ? सम्राट सम्प्रति का यह कथात्मक चरित्र कुणाल की अगाध पितृ-भक्ति, आचार्य सुहस्ति का आदर्श करुणा भाव, सम्प्रति की धर्म श्रद्धा, जिनभक्ति एवं गुरु भक्ति तथा जिनशासन प्रजा के हित में किये गये महत्वपूर्ण कार्य साथ ही वीरता, राजनीति कुशलता आदि अनेक गुण इस चरित्र में उभर रहे हैं। जो प्रेरक होने के साथ उसके उज्ज्वल चरित्र को भी दर्शाते हैं। यह कथा प्रसंग पं. काशीनाथ जैन द्वारा लिखित "सम्राट सम्प्रति" पुस्तक को आधार मानकर लिखा गया है । जिसमें अनेक ऐतिहासिक साक्ष्य भी हैं। आचार्यश्री विजय सुशील सूरीश्वर जी के उत्तराधिकारी आचार्यश्री विजय जिनोत्तम सूरीश्वर के ने इस पुस्तक का लेखन किया है। - महोपाध्याय विनय सागर सम्पादक : श्रीचन्द सुराना "सरस'' लेखक : आचार्य श्री विजय जिनोत्तम सूरि. प्रकाशन प्रबंधक : संजय सुराना प्रकाशक - श्रीचन्द सुराना 'सरस' चित्रांकन : श्यामल मित्र श्री दिवाकर प्रकाशन ए-7, अवागढ़ हाउस, अंजना सिनेमा के सामने, एम. जी. रोड, आगरा-282002. दूरभाष : 0562-351165 सचिव, प्राकृत भारती एकादमी, जयपुर 13- ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर-302017. दूरभाष : 524828, 561876, 524827 अध्यक्ष, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर (राज.) श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा 18/D, सुकेस लेन, कलकत्ता - 700001. दूरभाष : (242) 6369, 4958 फैक्स : (210) 4139 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति सम्राट् सम्प्रति पाटलीपुत्र में आज सबाद अशोक का विजयोत्सव मनाया जा पृष्ठा है। विशाल राजसभा के बीच एक ऊँचे सिंहासन पर सम्राट् अशोक आसीन हैं। दोनों तरफ अमात्य, रामपुरोहित, सेनापति तथा अन्य सामन्तगण एवं हजारों नागरिक बैठे हैं। तभी सन्देशवाहक ने सोने के थाल में रखकर पत्र भेंट किया अवन्ती से राजकुमार कुणाल ने पिताश्री के चरणों में प्रणाम सूचित किया है। राजा ने लिपिकार को आशीर्वाद पत्र लिखने का आदेश दिया और विश्राम करने राजमहल में चले गये। कुछ देर बाद लेखपाल पत्र तैयार करके ले आया। सम्राट् ने पत्र पढ़ा, उसके नीचे अपने हाथ से एक पंक्ति और लिखी भोजन का समय हो गया था। सम्राट् पत्र वहीं छोड़कर भोजनगृह की ओर चल दिए। रानी तिष्यरक्षिता ने इधर-उधर देखा! कोई नहीं था। उसने एक सलाई ली, आँखों के काले अंजन को सलाई पर लगाया। और | महाराज के संदेश पर एक बिन्दु लगा दिया। अधीयतां कुमारः (कुमार को (विद्याध्ययन कराओ) हम भी कुमार के लिए अपने हाथ से आशीर्वाद पत्र लिखेंगे। M फिर राजमुद्रा लगाकर पत्र वहीं रख दिया। फिर पत्र वापस रखकर चुपचाप भोजन कक्ष की ओष्ट चल दी। १. कुणाल सम्राट् अशोक की सबसे बड़ी रानी का ज्येष्ठ पुत्र था। मृत्यु के समय रानी को महाराज ने वचन दिया था - कुणाल ही मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी होगा। तिष्यरक्षिता आदि अन्य रानियाँ कुणाल को मारना चाहती थीं। उसकी जीवनरक्षा के लिए महाराज ने पाटलीपुत्र से दूर अवन्ती में कुणाल को रखा ताकि उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सके! inelibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESS VAAD RANAM दिन सम्राटसम्प्रति कुछ समय पश्चात् सम्राट् ने दूत के साथ पत्र अवन्ती भेज | मंत्री ने कठोर हृदय करके पत्र पढ़ादिया। दूत पत्र लेकर अवन्ती पहुँचा। सभा में मंत्री ने पत्र महाराज ने पढ़ा। पत्र पढ़ते ही मंत्री को सौंप सूंघ गया। कुणाल ने पूछा लिखा हैचाचाजी, पत्र में ऐसी क्या बात लिखी है? जिसे पढ़कर आप एकदम चुप हो गये। कृपया हमें बताइए। पिताश्री ने क्या लिखा है? अंधीयतां कुमारः। (कुमार को अंधा कर दिया जाय)/हे भगवान ऐसा कठोर आदेश राणा जाण्ण्ण्ण क्या ? कुणाल ने कहा-वासन 'पिताश्री की आज्ञा का पालन करना मेरा कर्त्तव्य है। लाइये लोह शलाका लेकर मेरी आँखें फोड़ दीजिए। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सभी | PO RAN एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। नगर में गली-गली में लोग कहने लगेAn/ अरे ! सुना है राजकुमार ने पिता। की आज्ञा से आँखें फोड़ लीं। सम्राट अशोक ऐसा आदेश व नहीं दे सकते। एक पिता पुत्र को अंधा करने का आदेश कैसे दे सकता है? 30003कबाक और कुणाल ने गर्म लोहे की सरिया लेकर अपनी आँखों में भर लिए। हमें तो इसमें कुमार की सौतेली माताओं की चाल लगती है। सभा शोक मग्न हो गई। रानी तिष्यरक्षिता ने "अधीयतां कुमार" को "अंधीयतां कुमार" कर दिया था। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति कुछ समय बाद सम्राट् अशोक के पास दूत समाचार दूत ने महाराज को पत्र दिखाया तो वे चौंक गयेलेकर आया आपकी आज्ञा से अधीयतां को राजकुमार कुणाल ने अपनी आँखें फोड़ लीं हैं। हैं ! मैंने ऐसी कठोर आज्ञा कब दी ? सम्राट अशोक दुःख के सागर में डूब गये। इधर अवन्ती में अँधा कुणाल धाय माता सुनन्दा की देख-रेख में पलने लगा। अँधेपन के एकाकी जीवन में कुणाल तानपूरे को अपना साथी बना लिया। वह एकान्त में तानपूरा बजाता रहता और प्रभु आदिनाथ की भक्ति करता रहता। जय आदिनाथ जग हितकारी जय वीतराग मंगलकारी अंधीयतां किसने कर दिया? कब किया? कौन छिपा शत्रु है यह? एक दिन कुणाल की धाय माता सुनन्दा ने सम्राट् अशोक को पत्र भेजा। सम्राट् ने पत्र पढ़ा समय अपनी गति से चलता रहा। 3 महाराज अशोकवर्द्धन के चरणों में सुनन्दा का प्रणाम। कुमार कुणाल अब बीस वर्ष का हो गया है। दिन-रात एकाकी प्रभुभक्ति में अपना नीरस जीवन बिता रहा है। निवेदन है किसी योग्य राजकुमारी के साथ कुमार का विवाह कर दिया जाय तो उसके सूने जीवन में फिर से बहार आ सकती है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति सम्राट अशोक ने पत्र पढ़ा और आदेश भेजा। दूत आदेश पत्र राजाज्ञा के अनुसार कुणाल को एक छोटे से प्रदेश का | लेकर वापस अवन्ती आया। मंत्री को पत्र दिया- - राजा बना दिया गया। कुमार कुणाल को पास के एक छोटे प्रदेश का राज्य दिया जाता है। कोई योग्य कन्या देखकर कुमार का विवाह कर दिया जाय। और एक सामन्त की कन्या शरतश्री के साथ उसका विवाह हो गया। एक दिन कुणाल ने शरतश्री से कहा आज आषाढ़ी पूर्णिमा । है। हम जिन मन्दिर में जाकर भक्ति करेंगे। राजकुमार और शरतश्री ने भक्तिभाव से प्रभु की पूजा की और फिर दोनों ने मिलकर भक्ति संगीत गाया। भक्ति-संगीत को सुनकर श्रोता झूमने लगेवाह ! स्वर में क्या मिठास है! क्या तन्मयता है ! प्रभु भक्ति बिन जीवन सूना पूनम की रात मन्दिर में भक्तिगीत की रसधार बहती रही। www.jalnelibrary.org. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगले दिन शरतश्री ने सुविचार है। कुणाल से कहा स्वामी ! पास ही उपाश्रय में आर्य सुहस्ती शिष्य विराजमान हैं। उनके दर्शन भी कर लेवें। PA मुनिराज ने कहा प्रतिदिन प्रवचन में वीतराग वाणी का श्रवण कीजिए। जीवन में शान्ति का अनुभव होगा। सम्राट सम्प्रति कुमार अपने परिवार के साथ मुनिराज के दर्शन करने गया। | मुनिवर ने कहा गुरुदेव ! मुझे आप धर्म का बोध दीजिए। इस अपंग जीवन में तो धर्म ही मेरा सहारा है। अब कुमार अपने परिवार के साथ प्रतिदिन प्रवचन सुनने आता और वीतराग वाणी सुनकर प्रसन्न होता। एक दिन राजकुमार ने मुनिराज से निवेदन किया | गुरुदेव ! आपकी वाणी सुनकर तो मेरा मन संसार से विरक्त हो गया है। मैं भी शुद्ध संयम का पालन कर आत्म-कल्याण करना चाहता हूँ। कुमार रात्रि कालीन आपकी भक्ति तल्लीनता देखकर तो हमारा मन भी गद्गद हो गया। भक्ति के साथ धर्म का बोध और धर्माचरण का संगम हो जाय तो सोने में सुगंध मिल जाय। कुमार, आप गृहस्थाश्रम में रहकर ही धर्माराधना कर सकते हैं। आँखें नहीं होने से जीव दया का पालन नहीं हो सकता और जीव दया के बिना चारित्र की शुद्ध आराधना नहीं हो सकती। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव ! फिर मैं गृहस्थ जीवन में रहकर ही अधिकाधिक नियम, व्रत, शील का पालन कैसे करूँ? मुझे मार्गदर्शन दीजिए। मारो हमें मारो ! भूख भी मार रही है तुम भी मारो। इस नारकी जीवन से तो अच्छा है मर जायें। भूख से पिंड छूटे। सम्राट सम्प्रति वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी उन्हीं दिनों की घटना है मगध और अंग आदि प्रदेशों में दुष्काल की काली छाया मंडरा रही थी। वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी में दुष्काल का भयंकर प्रकोप था। गली-गली में घर-घर पर भिखारी पुकार रहे थे हे दयालु पुरुषों ! तीन दिनों से खाने को अन्न का एक दाना भी नहीं मिला है। भूख से बाल-बच्चे बिलबिला रहे हैं। कोई भी दयालु रोटी का टुकड़ा दे दो। मुनिराज ने कुमार को श्रावक धर्म का स्वरूप समझाया। कुणाल तथा शरतश्री दोनों ने गृहस्थ धर्म अंगीकार कर लिया। भागो, यहाँ से। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय दो युवा श्रमण भिक्षा पात्र हाथ में लिए नगर सेठ धनपाल के भवन की तरफ आये। Sa गुरुदेव ! पधारिये ! सेवकों ने उसे रोक दिया ठहर जा ! अभी गुरूदेव आहार के लिए पधारे हैं। हल्ला मत कर। सम्राट सम्प्रति श्रमणों को आता देखकर सेवकों ने दरवाजा खुला छोड़ दिया, श्रमण जैसे ही भवन में घुसते हैं उनके पीछे-पीछे एक भिखारी छुपता-छुपता भीतर आ गया। दण्डधारी सेवकों ने उसे रोक दिया YOO अरे ! कहाँ घुस रहा है? रुक जा ! W बाबा ! तीन दिन का भूखा-प्यासा हूँ। देखो पेट की पसलियाँ दीख रही हैं। एक रोटी दे दो। भूख से मरा जा रहा हूँ और दम भी नहीं निकल रहा है। भिखारी टुकर-टुकर देख रहा है 7 अहा ! क्या स्वादिष्ट भोजन है। इसकी सुगंध से ही मेरे मुँह में पानी, छूट रहा है। www.jalnelibrary.org. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस, इतना ही आहार पर्याप्त है। गुरुदेव ! ये मोदक तो लीजिए। इस कंजूस सेठ से तो कुछ मिलने) की आशा नहीं, क्यों न इन साधुओं से ही माँगू | जैन साधु बड़े दयालु होते हैं। यदि थोड़ा-सा भोजन दे देंगे तो मेरा पेट भर जायेगा। Station International सम्राट सम्प्रति घर के बाहर खड़ा भिखारी यह दृश्य देखकर चकित रह जाता है। भीख माँगना तो भूल गया और सोचता है संसार में कहाँ इन साधुओं का जीवन हैं और कहाँ मेरा जीवन है। कल इसी सेठ ने मुझे बैंतों से मारकर भगाया था और आज यही कंजूस सेठ मुनि को आग्रह करके भक्ति से इतना स्वादिष्ट देव-दुर्लभ भोजन दे रहा है। धन्य है इनका जीवन ! दोनों मुनि आहार- भिक्षा लेकर बाहर भिखारी दौड़कर मुनियों के पास पहुँचा। बोला आते हैं। भिखारी सोचता है मुनि ! तीन दिन से 007 सेठानी प्रार्थना कर रही है गुरुदेव ! थोड़ी खीर तो और ले लीजिए। 祛 नहीं ! अब खप नहीं है। का एक दाना भी नहीं मिला। आप दयालु हैं, अपनी झोली में से थोड़ा-सा भोजन मुझे दीजिए। vof00 8 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति भिखारी की करुण पुकार सुनकर मुनियों के पाँव मुनियों ने कहाअटक गये भद्र पुरुष ! क्या बात है ? महात्मा जी, तीन दिन से भूखा भटक रहा हूँ। अन्न के बदले डंडों की मार मिल रही है। भूख के मारे चला नहीं जा रहा है। थोड़ा-सा भोजन मुझे दे दीजिए। मेरी जान बच जायेगी। भिखारी मुनियों के पीछे-पीछे चलता हुआ सीधा उपाश्रय में आता है। उपाश्रय के बाहर ही चबूतरे पर आर्य सुहस्ती स्वामी खड़े हैं। मुनियों ने वन्दना की। भिखारी ने भी अपने हाथ फैलाये हे देव पुरुष ! महात्मा ! मुझ भूखे पर दया कीजिए। थोड़ा-सा भोजन दिला दीजिए। भूख के मारे प्राण छटपटा रहे हैं। मत्थएण वन्दामि भोजन देने का अधिकार हमें नहीं है। तुम हमारे गुरु जी के पास चलो, वे ही दे सकते हैं। # आचार्यश्री भिखारी की तरफ देखते हैं। भिखारी की दीन दशा देखकर उनका मन द्रवित हो गया। आँखें मूँदकर कुछ सोचते हैं। अचानक उनके चेहरे पर चमक आ जाती हैओह ! यह घटना किसी उज्ज्वल भविष्य का संकेत दे रही है। इस भिखारी की आत्मा एक दिन जैन शासन की प्रभावना करेगी। 00000 # ये श्रमण आर्य सुहस्ति के शिष्य थे। आर्य सुहस्ती दशपूर्वघर श्रुत ज्ञानी आचार्य थे। आर्य स्थूलभद्र के पश्चात् उनके पट्टपर दशपूर्वधर आचार्य महाग हुए। महागिरि और सुहस्ती दोनों ही आर्य स्थूलभद्र के शिष्य थे। Only . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति आचार्यश्री ने कुछ सोचकर कहा भद्र ! यदि तू साधु बन जाये । मैं तैयार हूँ। मुझे वत्स ! भिक्षा से/हे दयालु पुरुष ! मैं भूख तो भरपेट भोजन पा सकता । दीक्षा दीजिए। मैं साधु | प्राप्त भोजन साधु से मर रहा हूँ। क्या किसी है। इस भिक्षा पात्र का भोजन बनकर आप जैसा किसी अन्य गृहस्थ मरते मनुष्य को बचाना | केवल साधु ही कर सकता है। । कहेंगे, करूंगा। को नहीं दे सकते। आपका धर्म नहीं है। आचार्यश्री ने वहीं पर उस भिखारी को दीक्षा दी। मुनिवेष दिया और कहा चल भीतर। अब भरपेट भोजन कर ले। नवदीक्षित साधु ने डटकर लड्डू-खीर आदि का भोजन किया। फिर आचार्यश्री ने श्रावक-श्राविकाओं के सामने उस नवदीक्षित मुनि को उपस्थित कर कहा यह आज का दीक्षित मुनि है। CONNO 10 For Private & Personal use only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति धनवान सेठ-सेठानियों ने भक्तिपूर्वक मुनि की वन्दना की। आचार्यश्री ने नवदीक्षित मुनि से कहा-20 उनकी चरण धूलि लेकर सिर पर लगाने लगे। नवदीक्षित । देख, यह सब मुनि के गलदेव ! मुझे मुनि सोचता है- त ये सेठ सेठानी कभी मुझे बैंतों । त्यागी जीवन की महिमा - व्रत की शिक्षा भी से पिटवाते थे| धक्क मार-मारकर है। दुनियाँ में त्याग व व्रत दीजिए, धर्म का भगाते थे। आज मुनि बनते ही N की पूजा होती है। बोध भी दीजिए। Fishra मेरे पाँव छू रहे हैं। धन्य है। मुनि का जीवन आज पहले अपनी भूख मिटा ले, फिर धर्म बोध भी देंगे। मध्यान के बाद नव दीक्षित ने कहामुझे भूख लगी है। यह गोचरी भोजन दीजिए। तेरे सामने रखी है, जितना खाना चाहे खाकर मन वह भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा। सेठ धनपाल ने वैद्य को बुलाया। वैद्य ने नाड़ी देखते हुए कहा/अति भोजन से (विशुचिका रोग हो गया है। दवा दे देता हूँ। भर ले। बहुत दिनों का भूखा वह भोजन पर टूट पड़ा। कुछ देर बाद बोलामेरा पेट फूल गया है। आह "सांस नहीं ली जाती है। 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक धनवान सेठ-सेठानी उस नवदीक्षित मुनि की सेवा परिचर्या में जुट गये। कोई पेट पर लेप करता है, कोई हाथों पर दवा मल रहा है। यह सब देखकर नवदीक्षित मुनि सोचता है अहो, साधु बनते ही मेरे जीवन में कितना बड़ा परिवर्तन आ गया। ये सेठ साहूकार मेरी सेवा कर रहे (हैं। गुरुजी ने मुझे मुनि दीक्षा देकर कितना बड़ा उपकार किया है। सम्राट सम्प्रति नव दीक्षित मुनि की अस्वस्थ दशा देखकर आचार्यश्री ने पास आकर नवदीक्षित मुनि को आराधना कराईमन को शान्त रख, मुनि बन का महान पुण्य फल तुझे अगले जन्म-जन्म तक मिलेगा। अवन्ती संध्या के समय भवन की छत पर कुणाल अकेला ही एकान्त में बैठा सितार बजा रहा था। तभी धाय माता सुनन्दा ने आकर बधाई दी पुत्र कुणाल, बधाई हो ! शरतश्री ने एक तेजस्वी, रूपवान शिशु को जन्म दिया है। वाह ! इस प्रकार शुभ विचारधारा में बहते -बहते नवदीक्षित मुनि का आयुष्य पूर्ण हो गया। श्रावकों ने सम्मानपूर्वक मुनि की शरीर क्रिया सम्पन्न की। गुरुदेव ! मुनि जीवन पाकर में धन्य हो गया। कुणाल एक क्षण के लिए प्रसन्न हुआ, परन्तु अगले ही क्षण उसके मुख पर मलिनता छा गईहे माता ! मुझ 'वत्स ! निराश मत हो । जैसे भाग्यहीन के शरतश्री को आये हुए हाथी, घर में जन्म लेने सिंह और कल्पवृक्ष के शुभ वाले बालक का क्या भाग्य हो सकता है? 12 स्वप्न पुत्र के महान भाग्यशाली होने के सूचक हैं। तू विश्वास रख . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह दिन बाद धाय माता पुत्र को लेकर कुणाल की गोदी में रखते हुए बोलीवत्स ! तेरा यह पुत्र कितना सुन्दर सलौना है। इसके शरीर के शुभ लक्षण, इसकी भाग्य रेखा और चेहरे का तेज प्रताप अवश्य ही इसे एक दिन मौर्य वंश का प्रतापी सम्राट् बनायेंगे। यदि प्रभु कृपा होगी तो ऐसा ही होगा। वत्स ! तू पाटलीपुत्र जा। वहाँ जाकर क्या पिताश्री से भीख माँगूगा ? सम्राट सम्प्रति 29) कुणाल ने खिन्न स्वर में कहा। वत्स ! प्रभु भी उन्हीं पर कृपा करता है जो शुभ पुरुषार्थ करते हैं। तुझे भी कुछ पुरुषार्थ · करना पड़ेगा। माता ! मैं अंधा भला क्या पुरुषार्थ करूँ, बताओ? नहीं, अपनी संगीत कला से मगधपति को प्रसन्न करके पुत्र के लिए राज्य की माँग कर । 13 धाय माँ ने उसे समझाया। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति धाय माँ की बात सुनकर कुणाल के चेहरे पर चमक आ गई। उसने तानपूरा उठाया और एकदम खड़ा हो गया माँ तुम्हारी बातें सुनकर मेरे भीतर उत्साह की बिजली दौड़ गई है। भविष्य का सुन्दर स्वप्न मेरी अन्तर्दृष्टि में झलक रहा है। मैं पाटलीपुत्र अवश्य जाऊँगा। वत्स ! तेरा स्वप्न अवश्य पूरा होगा। + अगले दिन अंधे कुणाल ने तानपूरा गले में लटकाया, कंधे पर झोला डाला हाथ में लठ्ठी लेकर एक गरीब गवैये के वेष में पाटलीपुत्र की ओर चल पड़ा। सुख के सब साथी दुखा न कोय पाटलीपुत्र पाटलीपुत्र के राजमार्ग पर एक अंधा तानपूरा हाथ में लिए प्रभु भक्ति के गीत गाता हुआ घूम रहा है। | उसके पीछे लोगों की भीड़ चल रही है। कुछ लोग कहते हैं अरे भाई, साक्षात् गंधर्वकुमार का रूप लगता है। देखो, इसके स्वरों में कितना दर्द है। दिल को छू जाता है। जादू है इसके तानपूरा में। 14ersonal Use Only Common For Private - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग उसे पूछते हैंआपका नाम क्या है? सम्राट् ने आदेश दिया सम्राट सम्प्रति मैं तो सूरदास हूँ। अंधा तानपूरा वाला। m Jain Education Internationa कहाँ के रहने वाले हो? आपके साथ और कौन है ? एक दिन सम्राट् अशोक राजसभा में बैठे थे। उन्होंने कहासुबह से राजकार्य में लगे रहने से बहुत थक गये हैं। आज मनोरंजन के लिए कोई संगीत-नृत्य हो जाय। लोगों के प्रश्नों का उत्तर देता हुआ वह गाता-गाता आगे निकल जाता। जिस चौराहे पर खड़ा होकर गाता वहीं हजारों की भीड़ सुनने के लिए जमा हो जाती। बुलाओ उसको, हम आज उसी का. संगीत सुनेंगे प्रभु की यह सृष्टि ही मेरा ह घर है, यह महाराज ! नगर में एक अंधा गवैया आया "हुआ है। सारा नगर उसके संगीत में पागल हो रहा है। उसका संगीत आप सुनेंगे तो सारी थकावट उतर जायेगी। 15 For-Private & Personal Use Only तानपूरा ही मेरा परिवार है। COORD COEDUIS Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति कुणाल को राजसभा में बुलाया गया। उसे एक ओर बिठाकर पर्दा डाल दिया। सूरदास कुणाल ने तानपूरे पर हाथ रखा, तार झनझना उठे। स्वरों का जादू फूटने लगा। उसकी दर्द भरी मीठी आवाज सुनकर सम्राट् अशोक मंत्र मुग्ध हो गया levere vele! प्रभुजी, तेरे दर्शन को मन प्यासा | सभा शान्त हुई तो सम्राट् ने कहासूरदास ! आपके संगीत की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। मगधेश्वर सम्राट् अशोकवर्धन आप पर प्रसन्न है। जो इच्छा हो सो माँगो L NCING कुछ देर तक संगीत के स्वर गूंजते रहे। श्रोता सिर धुनते रहे। झूमते रहे। थोड़ी देर में संगीत बन्द हुआ। तो तालियों की गड़गड़ाहट से राजसभा गूँज उठी। साषण 05 जो आज्ञा महाराज। वाह ! बहुत सुन्दर, गजब की मिठास है। भक्ति की गंगा बहा दी आपने तो। ऐसा अद्भुत संगीत तो पहली बार सुना है। फिर सूरदास ने सितार पर अँगुलियाँ रखीं और एक पद्य गाया चन्दगुत्त पवोत्तो उ बिंदुसाररस नत्तुओ असोगसिरिणो पुत्तो अंघो जायति कागिणीं । चन्द्रगुप्त क. मैं प्रपौत्र बिन्दुसार का पौत्र । अशोक पुत्र अंध, अवश याचै कागिणी मात्र ॥ 16 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति पद्य सुनते ही सम्राट अशोक चौंक पड़े सम्राट् ने कुणाल को छाती से लगा लिया। उसकी आँखों से कौन हो तुम, हाँ पिताश्री, आपका आज्ञा अश्रुधारा बहने लगी ANV पिताश्री / मेरा भाग्य ही ऐसा बेटा कुणाल? पत्र पाकर जो अंधा हो गया, (बेटा ! यह सब था तो किसको दोष दूँ। अब मो वही आपका अभागा पुत्र कैसे हो गया? हो चुका उस पर आँसू बहाने कुणाल हूँ मैं। से कोई लाभ नहीं। AIYA अब सम्राट् सोचने लगे कि यह कैसे हो गया। अचानक उनके दिमाग में बिजली-सी कौंधी उन्हें वर्षों पानी घटना याद आ गई चलो प्रिय! भोजन का समय हो गया। आप चलिए स्वामी! मैं अभी आती हूँ। L हूँ ! अवश्य ही यह उसी दुष्टा की करतूत है। उसने तुरन्त सैनिकों को आदेश दिया- रानी तिष्यरक्षिता को बंदीगृह में बन्द करके कड़ा पहरा लगा दिया जाये। For Privateersonal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति | फिर कुणाल से बोला- पिताश्री ! मैंने आपसे यह सुनकर महामंत्री ने निवेदन कियापुत्र ! मैं अपने वरदान में कागिणी की महाराज ! युवराज ने तो परन्तु पुत्र ! तू राज्य इस कृत्य का याचना की है। मेरे लिए कागिणी के बहाने सबकुछ माँग । लेकर क्या करेगा? प्रायश्चित्त कैसे यही पर्याप्त है। लिया है। कागिणी राजपुत्रों का किसके लिए राज्य करूं? राज्य होता है। माँगा है? वत्स ! तुमने माँगा भी तो क्या माँगा? एक कागिणी मात्र? YOU पिताजी, आपको पौत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। क्या? सच! सम्राट अशोक ने तत्काल मन्त्री आदि को उन्हें लिवाने गाँव भेजा। पूरे सन्मान के साथ उन्हें पाटलीपुत्र लाया गया। विशाल समारोह मनाकर सम्राट् ने घोषणा की हमें सम्प्रति सूचना मिली है। अतः बालक का नाम "सम्प्रति कुमार" होगा। पाटलीपुत्र के भावी शासक के रूप में हम इसे अधिष्ठित करते हैं। कुणाल के पुत्र प्राप्ति का समाचार सुनकर सम्राट अशोक का हृदय उल्लास से भर उठा। उन्होंने पूछाबहूरानी, पौत्र सब कहाँ है?) आप द्वारा दिये गाँव में सब कुशल हैं। सात दिन तक नगर में उत्सव मनाया गया। Ja#सम्प्रति अभी-अभी। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब कुणाल अपने परिवार के साथ पाटलीपुत्र में ही रहने लगा। समय के साथ सम्प्रति बड़ा होने लगा। राजनीति शिक्षा सम्राट् सम्प्रति Tur ication-international कुछ और बड़ा होने पर महाराज ने उसे राजकुमारोचित शिक्षा दिलाने | की व्यवस्था की। सम्प्रति आचार्यों से विभिन्न शिक्षाएँ लेने लगा। वत्स ! शस्त्र से बड़े शास्त्र होते हैं। शस्त्र विद्या एक दिन महाराज अशोक राजसभा में बैठे थे। कुमार सम्प्रति भी पास ही बैठा था। तभी गांधार देश का एक सौदागर घोड़े लेकर। आया। एक सुन्दर सजीला घोड़ा उसने महाराज को भेंट दिया महाराज ! यह अश्व सभी प्रकार के लक्षणों में उत्तम है। जिस राजा के पास रहेगा वह अवश्य ही चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा। परन्तु महाराज यह हर किसी को अपनी पीठ पर बैठने नहीं देता। इसने बड़े-बड़े योद्धाओं को नाकों चने चबा दिये हैं। सम्राट् ने सम्प्रति की ओर देखा क्यों वत्स ! अश्व पसन्द है? सवारी करोगे इस पर ? For Privateersonal Use Only महाराज ! अश्व क्रीड़ा तो क्षत्रियों का व्यसन है। आप आज्ञा दीजिए। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज ! राजकुमार अभी नौसिखिया हैं। इस घोड़े को वश में रखना हँसी खेल नहीं है। सम्राट सम्प्रति सौदागर ! इसकी चिन्ता मत करो। इन भुजाओं में वह बल है जो संसार की सभी शक्तियों को अपने वश में कर सकती हैं। सम्प्रति ने घोड़े पर एक चाबुक लगाई। घोड़ा उछला, दोनों पैरों से ऊँचा उठकर जोर से हिनहिनाने लगा। सौदागर भी तैश में आ गया। बोलायदि आप इस पर सवारी कर लें तो मैं अपने एक सौ अश्व आपको भेंट दे दूँगा और नहीं तो आप मुझे क्या देंगे? सौ घोड़ों का पूरा मूल्य । सभी हँस पड़े। तभी कुमार सम्प्रति उछलकर घोड़े की पीठ पर चढ़ गया। कसकर लगाम खींची। घोड़ा घूमचक्कर खाने लगा। For Private Personal Use Only अरे ! घोड़ा कुमार को उछालकर पटकी कुमार ने अपनी जेब में से एक कंकर निकाला और घोड़े के कुमार ने ऐड लगाई। घोड़ा सीधा कान के बीच में दबा दिया। घोड़ा तुरन्त शान्त हो गया। सरपट दौड़ पड़ा। देगा। कुमार ! सावधान ! . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक घंटा बाद कुमार ने घोड़ा लाकर सौदागर के सामने खड़ा कर दियालो तुम्हारा घोड़ा। ऐसे घोड़ों पर सवारी करना तो हमारी क्रीड़ा है। 'महाराज ! शर्त के अनुसार एक सौ अश्व आपको भेंट करता हूँ। एक दिन महाराज अशोक अपने परिवार के साथ अन्तःपुर में बैठे थे। उन्होंने कुणाल से कहा'वत्स ! अब सम्प्रति युवा हो गया है। अनेक राजाओं की राजकन्याओं के सम्बन्ध आ रहे हैं। इसके विवाह की तैयारी करो। जो आज्ञा पिताश्री ! सम्राट सम्प्रति | महाराज अशोक ने सम्प्रति को अपने बाजुओं में कस लिया- वत्स ! तेरा तेज, UUUUUUY JOU (प्रताप, शौर्य एक दिन तुझे अवश्य ही दिग्विजयी सम्राट् बनायेगा। सम्प्रति का अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ।। | विवाह उत्सव के समय महाराज अशोक ने घोषणा कीमैं अब बहुत वृद्ध हो चुका हूँ। वृद्ध अवस्था तो धर्मध्यान, प्रभुभक्ति का समय है। इसलिए युवराज सम्प्रति को मगध का राजसिंहासन सौंपना चाहता हूँ। 21 - इस प्रकार विवाह उत्सव में ही सम्प्रति। का राजतिलक समारोह मनाया गया। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति कुछ समय पश्चात् अशोक की मृत्यु हो गई। काशी पहुंचने पर वहाँ के गुप्तचरों ने राजा को सूचना दीकई दिन तक मगध राज्य शोक में डूबा रहा।। मगधेश्वर सम्राट् सम्प्रति शोक से उबरने पर सम्प्रति ने विचार किया अद्भुत शौर्य का धनी योद्धा MAYAVARANAमुझे अपने साम्राज्य है। उसकी सेना अजेय है। स्तार करना उससे युद्ध करना सर्वनाश LI चाहिए। को निमंत्रण देना है। काशी आदि के राजाओं ने मिलकर निर्णय लिया DMI/ व्यर्थ ही नरसंहार से क्या लाभ का है? उगते सूर्य का प्रताप बादलों से ढक नहीं सकता। विशाल सेना के साथ वह काशी कौशल आदि राज्यों पर विजय करने निकल पड़ा। राजाओं ने अनेक तरह के उपहार और अपनी कन्यायें | अनेक देशों की विजय यात्रा करते हुए सम्राट भेंट कर सम्प्रति की अगवानी की। सम्प्रति ने प्रेमपूर्वक सम्प्रति अवन्ति वापस पहुंचे। अवन्ति में उनका उपहार स्वीकार किये-/मझे आपका ऐश्वर्य वैभव नहीं चाहिए। भव्य स्वागत हुआ।। (हम आपकी शरण) न ही मैं प्रजा का संहार करना चाहता में ही हैं। हूँ। आप मगध की छत्र छाया में रहें। बस यही हमारी आज्ञा है। सम्राट् सम्प्रतिmte की जय हो। सम्राट् सम्प्रति चिरायु हों। HERE काशी आदि राज्यों को अपनी छत्र-छाया में मिलाने के पश्चात् सम्प्रति ने मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र आदि को विजय करके दूर-दूर देशों तक मगध साम्राज्य का विस्तार किया। For Private 22 rsonal Use Only , Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटसम्प्रति सम्राट् सीधे राजभवन में पहुंचे। पिता एवं माताश्री के चरणों शरतश्री कुछ देर तक विस्मित रही फिर एकदम में प्रणाम किया। माता पुत्र की अपार समृद्धि और वैभव गंभीर हो गई। सम्प्रति ने पूछाविस्मित-सी देखती रही। उसकी आँखें छलछला रहीं थीं माँ ! क्या अपने पुत्र की Vवत्स ! ऐसी बात नहीं परन्तु मुँह से शब्द नहीं निकल रहा था। सम्प्रति ने कहा- । यह समृद्धि देखकर तू है। अपने विश्व विजयी माँ ! देख तेरे पुत्र की यह अपार समृद्धि, ये हजारों सामन्त-राजा, प्रसन्न नहीं है? पुत्र को देखकर कौन यह समूचे आर्यवर्त का साम्राज्य तेरे hanimaditioner मा समान माता प्रसन्न नहीं होगी, चरणों में हाजिर है। परन्तु innar honnanor परन्तु क्या माँ? कोई कमी रह गई? माँ ! समूचे आर्यावर्त 'बेटा ! हजारों युद्ध का साम्राज्य ! अपने दादा- करके, लाखों मनष्यों | परदादाओं के साम्राज्य का संहार करके आखिर से भी विशाल वृहत्तर तूने क्या पाया? साम्राज्य ! क्या और कुछ बाकी रह गया है? पुत्र ! हिंसा से प्राप्त साम्राज्य आन तक किसी के लिए भी सुखकर नहीं हुआ। ब्रह्मदत्त जैसा षट्खंड चक्रवर्ती और अजातशत्रु कणिक जैसा दिगविजयी सम्राट् भी अन्त में इस साम्राज्य को छोड़कर नरक में गये हैं। ANSDO90000 23 Jain Ede For Private & Personal use only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटसम्प्रति सम्राट् सम्प्रति माता की बातें सुनकर गंभीर हो गया। तुझे आनन्द और सुख का मार्ग जानना माता कहने लगी माँ। फिर बता! ||है तो आर्य सुहस्ती स्वामी से पूछना।) वत्स ! तीन खण्डों पर तुझे आनन्द कैसे कल वे इस नगर में पधारेंगे। तेरी विजय ध्वमा लहराती। मिलेगा? मैं वही (ठीक है माँ, तू जैसा कहती देखकर मैं दुःखी नहीं, काम करूँगा जिससे है वैसा ही करूंगा। परन्तु मन में आनन्द तुझे आनन्द मिले। भी नहीं है। सम्राट् सम्प्रति रातभर सोचता रहा कल आर्य सुहस्ती स्वामी पधारेंगे और मैं उनसे माता को प्रसन्न करने का उपाय पूलूंगा। अपने सुख का मार्ग भी मानूँगा। प्रातः महलों की छत पर सम्राट् चहलकदमी करने लगा तभी देखा राजमार्ग पर एक विशाल मुलूस चला आ रहा है। अनेक प्रकार के बाजे, नगाड़े बज रहे हैं। उनके पीछे नगर के श्रीमन्त सेठ, वृद्ध, युवक, बालक और फिर हजारों स्त्रियाँ गाते-बजाते-नाचते हुए चल रहे हैं। बीच में एक विशाल चाँदी का रथ है। रथ में जीवन्त स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। उनके पीछे उज्ज्वल श्वेत वस्त्रधारी एक दिव्य भव्य तेजस्वी सन्त चल रहे हैं। पीछे-पीछे सैकड़ों श्रमण-श्रमणियाँ चल रहे हैं। सwwwwwww 24 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटसम्प्रति छत पर खड़ा सम्प्रति इस रथ यात्रा को देखने लगा। सेवकों ने सम्राट् को उठाकर पलंग पर लिटाया। हवा तभी उसकी दृष्टि उस दिव्य प्रभावशाली वृद्ध सन्त पर की। पानी के छींटे डाले। थोड़ी देर बाद होश आया तो पड़ी। सम्राट् बड़े ध्यानपूर्वक उनको देखने लगा- - उसकी स्मृति में कुछ दृश्य आने लगेये महापुरुष परम शान्त आत्मा तो परिचित ) भोजन दे दो। से लगते हैं। कहीं देखा है मैंने इनको? ) इन्हें देखते ही मेरे मन में स्नेह क्यों जाग, रहा है? लगता है जाकर इनके चरणों में 3 सिर नवाऊँ। इनको कहीं देखा है। किरन मैं इनके साथ रहा हूँ। सोचते-सोचते सम्राट् मूर्छा खाकर गिर पड़ासम्राट् उठकर बैठ गये इधर-उधर देखा।। सेवकों ने पूछा- IIIDI महाराज ! क्या Uणा हुआ? अब तबियत ण कैसी है? इतना कहकर सम्प्रति सीधा राजमहल से नीचे उतरा और रथयात्रा के पीछे-पीछे दौड़ा। सम्राट् के पीछे सैनिक, मंत्री दौड़ पड़े। सब एक-दूसरे से पूछते हैं मैं बिलकुल ठीक हूँ। गुरुदेव कहाँ हैं? क्या हुआ सम्राट् को? क्यों दौड़ रहे हैं? (पता नहीं। और उत्तर दिए बिना सभी सम्राट् के पीछे-पीछे दौड़ने लगे। 25 o Palvates Personal Use Only Jain Education Internation Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति नंगे पाँव सम्राट् को दौड़ता देख लोग एक ओर हट गये। सम्राट् सम्प्रति दौड़कर आर्य सुहस्ती के सामने पहुँचा। तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना की। आचार्यश्री आश्चर्यपूर्वक सम्राट् को देखने लगे। हाथ जोड़कर सम्राट् ने पूछा गुरुदेव ! आप मुझे पहचानते हैं? Ooo हाँ, आप सम्राट् सम्प्रति हैं, महाराज अशोकवर्धन के पौत्र ! पितृभक्त वीर कुणाल | के पुत्र आपको कौन नहीं पहचानता ? दो क्षण आचार्यश्री एकाग्र होकर उसे देखते हैं। आचार्यश्री हँसते हुए बोले ।। नहीं ! गुरुदेव ! मेरी असली पहचान बताइये। और फिर मुस्कराकर बोले राजन्ं ! मैंने आपको अच्छी तरह पहचान लिया। कौशाम्बी नगरी में एक भिक्षुक ने मोदक खाने के लिए दीक्षा ली थी। फिर अति आहार से उसी दिन उसकी मृत्यु हो गई। वही आत्मा आज सम्राट् सम्प्रति के रूप में यहाँ उपस्थित है। सम्राट् के पूर्व जीवन का वृत्तान्त सुनकर सभी आश्चर्यचकित एक-दूसरे को देखने लगे। • www.jainelibrary For Private 2Gersonal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् पुनः वन्दना करके भगवन् ! धर्म प्राप्ति का फल क्या है ? गुरुदेव ! यह सब समृद्धि आपकी कृपा से ही मिली है इसलिए यह सम्पूर्ण राज्य आपके चरणों में समर्पित करता हूँ। 'पूछा धर्म का सर्वोत्तम फल है-मोक्ष और सामन्य फल वैभव आदि की प्राप्ति । "सम्राट सम्प्रति सम्राट् ! हम त्यागी साधु एक सुई का परिग्रह भी नहीं रखते। यह राज्य वैभव कैसे स्वीकार कर सकते हैं? De फिर सम्राट् ने गुरुदेव के चरणों का स्पर्श कर निवेदन किया-1 राजन् ! शुद्ध सामायिक रूप चारित्र का तो असीम फल है, परन्तु तुमने अव्यक्त सामायिक चारित्र का स्पर्श किया, उसका फल है विशाल राज्य संपदा की प्राप्ति । भगवन् ! सामायिक चारित्र का क्या फल है ? गुरुदेव ! मुझे धर्म का मार्ग बताइए, कल ही मेरी माता ने कहा था, आप ही मुझे धर्म का मार्ग बतायेंगे। 27 Nonal Use Only PEST सम्राट् ! अभी आप रथ महोत्सव में सम्मिलित होकर जीवन्त स्वामी की वन्दना पूजा कीजिए। फिर समय पर आपकी जिज्ञासा का समाधान भी करेंगे। सम्राट् नंगे पैरों रथयात्रा जनता के साथ-साथ चलने लगा। www.jamnelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे दिन सम्राट् सम्प्रति आचार्यश्री की वन्दना करने आया। वन्दना करके उसने पूछा भगवन् ! मैं अपनी माता को कैसे प्रसन्न कर सकता हूँ? EPAL सम्राट सम्प्रति राजन् ! तुम्हारी माता परम धार्मिक विचारों की है। धर्म कार्य करने से ही उसके मन को प्रसन्नता मिलेगी। हे सामन्तों, मुझे आपका धन नहीं चाहिए। अपना राज्य भी आप आनन्द से भोगें, परन्तु मेरी एक ही इच्छा है आप जैनधर्म अंगीकार कर अपने देश और नगर में जिनधर्म की प्रभावना करें, सारी प्रजा को धर्म मार्ग में लगाएँ। बस, मेरी यही एक अभिलाषा है। हम आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। रथोत्सव की समाप्ति के दिन सम्राट् ने अपने एक दिन सम्राट् ने आचार्यश्री से पूछासामन्तों से कहा वहाँ उपस्थित सभी सामन्तों ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया। भगवन् ! बताइए मैं क्या धर्म कार्य करूँ ? इस प्रकार गुरुदेव से धर्म चर्चा करके सम्राट् सम्प्रति दृढ़धर्मी व्रतधारी श्रावक बन गया। राजन् ! जिनमन्दिरों का निर्माण और प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करना महान् पुण्य लाभ है। तुम यह कार्य करने में समर्थ हो । राजन् ! साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका धर्म के चार आधार स्तंभ हैं। इनकी सेवा-वैयावच्च करना भी महापुण्य का कार्य है। गुरुदेव ! अब सर्वप्रथम मुझे क्या करना चाहिए? For Private 2Bersonal Use Only राजन् ! धर्म आराधना का एक प्रखर साधन है- जिन चैत्य । जिन चैत्य रहेंगे तो सबको धर्म की प्रेरणा मिलती रहेगी। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आचार्यश्री के समक्ष उसने प्रतिज्ञा ली आज से प्रतिदिन एक जिनमन्दिर के निर्माण या जीर्णोद्धार का समाचार 'सुनकर ही मैं मुँह में अन्न-जल रखूगा। सम्राटसम्प्रति एक दिन प्रातः राजा गुरु वन्दना करने आया। उसने आचार्यश्री से निवेदन किया- -राजन् ! अनार्य लोग गुरुदेव ! भरतखण्ड के श्रमण के आचार-विचार बाहर अनेक आर्य देशों में से परिचित नहीं हैं, भी मेरा राज्य है। वहाँ धर्म इसलिए वहाँ मुनियों को प्रचार के लिए अपने शिष्यों निर्दोष आहार-भिक्षा कैसे को क्यों नहीं भेजते? मिल सकती है? मैं इसकी भी उचित व्यवस्था करूंगा। सम्राट् सम्प्रति ने कुछ तत्वज्ञानी वृद्ध श्रावकों को कुछ विद्वान् उपदेशक अनार्य देशों में गये। उनके बुलाकर कहा-आप मुनि वेश धारण करके अनार्यसाथ सम्राट् के सैनिक और राज-कर्मचारी भी थे। देशों में जाएँ, वहाँ मिनमन्दिर बनवाएँ। लोगों ने मुनिवेशधारी श्रावकों को देखकर पूछाऔर लोगों को जैनधर्म तथा श्रमणाचार ये सम्राट् सम्प्रति के गुरु हैं। की शिक्षा दें। राज्य की ओर से आपको तुम इनकी वन्दना करो और पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा। ये कौन हैं? इनसे धर्म की शिक्षा लो। VIR ON 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति सम्राट् के गुरु समझकर लोग उन वेशधारी सम्राट् सम्प्रति के गुप्तचर उन्हें अनार्य देशों के समाचार देते श्रमणों के पास आने लगे। श्रमणों ने उन्हें मुनि रहते थे। एक दिन सम्राट् ने आर्य मुहस्ती स्वामी से प्रार्थना कीकी आचार मर्यादा आदि समझाई। गुरुदेव ! अब तो अनार्य आप लोग देशों में भी लोग जिनधर्म का ऐसी वेशभूषा क्यों । पालन करने लगे हैं। आप पहनते हैं? हम लोग अहिंसा का पालन कृपाकर मुनियों को भेजें। करते हैं, घर-परिवार से अलग रहते हैं। काय आचार्यश्री ने कुछ विशिष्ट श्रमणों को पारस, ग्रीस आदि एक बार पर्युषण के दिन सम्राट् ने एक दृश्य देखा। सम्राट् को देशों में भेजा। वहाँ गये उपदेशक साधुओं ने कहा- अपने पूर्व जीवन की याद आ गईअब हम यहाँ की भाषा, एक दिन मैं भी संस्कृति से परिचित हो गये हैं। (इसी प्रकार रोटी-रोटी कृपाकर हमें ही दीक्षा दे दें। हम यहीं| (करके दर-दर भटक रहकर धर्म का प्रचार करेंगे। रहा था। श्रमणों ने योग्य देखकर उपदेशकों को मुनि दीक्षा दे दी। इस प्रकार दूर-दूर देशों में जैनधर्म का प्रचार होने लगा। हजारों लोग जैन बन गये। For Private 3 rsonal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति भूख से व्याकुल मनुष्य के कष्टों की कल्पना करके आचार्यश्री ने एक बार सम्राट् से कहासम्राट् के शरीर में सिहरन पैदा हो गई। उसने राज-सेवकों को बुलाकर कहानगर के चारों दरवाजों के ज्ञान के अभाव में धर्म बाहर विशाल भोजनशालाएँ स्थिर नहीं रहता, इसलिए बनवा दो। कोई भी लोगों में ज्ञान का प्रसार दीन-दुःखी, अपंग, भूखा होना चाहिए। नहीं सोये। CHO सम्राट् के आदेश से भोजनशालाओं का निर्माण किया गया। प्रतिदिन हजारों मनुष्यों को भोजन मिलने लगा। आचार्यश्री के संकेतानुसार सम्राट् ने आज्ञा दी- इस प्रकार जिनमन्दिर निर्माण, धर्म प्रचार, ज्ञान प्रचार राज्य के सभी मुख्य-मुख्य तथा जीव दया आदि शुभ कार्यों में अकूत धन व्यय करके नगरों में ज्ञानशालाएँ खुलवाईं सम्राट् सम्प्रति ने महान् पुण्यों का अर्जन किया। जाएँ। शिक्षकों को राज्य की तरफ से वेतन दिया जाए और बालक, युवक सभी को निःशुल्क शिक्षा दी जाए। दिन 31 Jalu a tion International Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट सम्प्रति भगवान महावीर निर्वाण के २६७ वर्ष बाद आर्य सुहस्ती स्वामी ने सुस्थित और सुप्रतिबद्ध नामक दो प्रभावशाली शिष्यों को संघ का भार सौंपकर १०० वर्ष की आयुष्य में अनशन करके देह त्याग दिया। सम्राट् सम्प्रति गहरे दुःख के सागर में डूब गये। ओह ! मेरे गुरु मुझे छोड़कर चले गये। कहा जाता है, सम्राट् सम्प्रति ने पीतल, ताँबा, चाँदी, सोना आदि पाषाण की लगभग सवा करोड़ जिन प्रतिमाएँ स्थापित करवाईं। नाडोल, शत्रुंजय, गिरनार, रतलाम आदि स्थानों में आज भी सम्प्रति द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित् जिन प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं। उन्होंने ६,६०० प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार तथा १,२५,००० नवीन जिन चैत्यों का निर्माण कराकर एक अपूर्व-अद्भुत धर्म प्रभावना की। 32 समाप्त Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक सदस्यता फाम मान्यवर, - मैं आपके द्वारा प्रकाशित चित्रकथा का सदस्य बनना चाहता हूँ। कृपया मुझे निम्नलिखित वर्षों के लिए सदस्यता प्रदान करें। (कृपया बॉक्स पर 7 का निशान लगायें) - तीन वर्ष के लिये अंक 34 से 66 तक (33 पुस्तकें) 540/- पाँच वर्ष के लिये अंक 12 से 66 तक (55 पुस्तकें) 900/ - दस वर्ष के लिये अंक 1 से 108 तक (108 पुस्तकें) 1,800/मैं शुल्क की राशि एम. ओ./ड्राफ्ट द्वारा भेज रहा हूँ। मुझे नियमित चित्रकथा भेजने का कष्ट करें। नाम (Name) (in capital letters) पता (Address). _ पिन (Pin)_ M.O./D.D. 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PH.: 0562-351165 दिवाकर चित्रकथा की प्रमुख कड़ियाँ 1.क्षमादान 16. राजकुमार श्रेणिक 30. तृष्णा का जाल 2. भगवान ऋषभदेव 17. भगवान मल्लीनाथ, 31. पाँच रत्न 3. णमोकार मन्त्र के चमत्कार 18. महासती अंजना सुन्दरी 32. अमृत पुरुष गौतम 4. चिन्तामणि पार्श्वनाथ 19. करनी का फल (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) 33. आर्य सुधर्मा 5. भगवान महावीर की बोध कथायें 20. भगवान नेमिनाथ 34. पुणिया श्रावक 6. बुद्धि निधान अभय कुमार 21. भाग्य का खेल 35. छोटी-सी बात 7. शान्ति अवतार शान्तिनाथ 22. करकण्डू जाग गया (प्रत्येक बुद्ध) 36. भरत चक्रवर्ती 8. किस्मत का धनी धन्ना 23. जगत् गुरु हीरविजय सूरी 37. सद्दाल पुत्र 9-10 करुणा निधान भ. महावीर (भाग-1,2) 24. वचन का तीर 38. रूप का गर्व 11. राजकुमारी चन्दनबाला 25. अजात शत्रु कूणिक 39. उदयन और वासवदत्ता 12. सती मदनरेखा 26. पिंजरे का पंछी 40. कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य 13. सिद्ध चक्र का चमत्कार 27. धरती पर स्वर्ग 41. कुमारपाल और हेमचन्द्राचार्य 14. मेघकुमार की आत्मकथा 28. नन्द मणिकार (अन्त मति सो गति) 42. दादा गुरुदेव जिनकुशल सूरी 15. युवायोगी जम्बूकुमार 29. कर भला हो भला 43. श्रीमद् राजचन्द्र Jain Education international For Private & Personal use only www.jamesbrary.org Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बात आपसे भी......... सम्माननीय बन्धु, सादर जय जिनेन्द्र ! जैन साहित्य में संसार की श्रेष्ठ कहानियों का अक्षय भण्डार भरा है। नीति, उपदेश, वैराग्य, बुद्धिचातुर्य, वीरता, साहस, मैत्री, सरलता, क्षमाशीलता आदि विषयों पर लिखी गई हजारों सुन्दर, शिक्षाप्रद, रोचक कहानियों में से चुन-चुनकर सरल भाषा-शैली में भावपूर्ण रंगीन चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने का एक छोटा-सा प्रयास हमने गत चार वर्षों से प्रारम्भ किया है। अब यह चित्रकथा अपने पाँचवे वर्ष में पदापर्ण करने जा रही है। इन चित्रकथाओं के माध्यम से आपका मनोरंजन तो होगा ही, साथ ही जैन इतिहास संस्कृति, धर्म, दर्शन और जैन जीवन मूल्यों से भी आपका सीधा सम्पर्क होगा। हमें विश्वास है कि इस तरह की चित्रकथायें आप निरन्तर प्राप्त करना चाहेंगे। अतः आप इस पत्र के साथ छपे सदस्यता पत्र पर अपना पूरा नाम, पता साफ-साफ लिखकर भेज दें। आप इसके तीन वर्षीय (33 पुस्तकें), पाँच वर्षीय (55 पुस्तकें) व दस वर्षीय (108 पुस्तकें) सदस्य बन सकते हैं। आप पीछे छपा फार्म भरकर भेज दें। फार्म व ड्राफ्ट/एम. ओ. प्राप्त होते ही हम आपको रजिस्ट्री से अब तक छपे अंक तुरन्त भेज देंगे तथा शेष अंक (आपकी सदस्यता के अनुसार) प्रत्येक माह डाक द्वारा आपको भेजते रहेंगे। धन्यवाद ! आपका नोट-वार्षिक सदस्यता फार्म पीछे है। श्रीचन्द सुराना 'सरस' सम्पादक SHREE DIWAKAR PRAKASHAN A-7, AWAGARH HOUSE, OPP. ANJNA CINEMA, M. G. ROAD, AGRA-282 002. PH. : 0562-351165 हमारे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सचित्र भावपूर्ण प्रकाशन पुस्तक का नाम मूल्य पुस्तक का नाम मूल्य पुस्तक का नाम मूल्य सचित्र भक्तामर स्तोत्र 325.00 सचित्र ज्ञातासूत्र (भाग-1,2) 1,000.00 सचित्र दशवकालिक सूत्र 500.00 सचित्र णमोकार महामंत्र 125.00 सचित्र कल्पसूत्र 500.00 भक्तामर स्तोत्र (जेबी गुटका) 18.00 सचित्र तीर्थंकर चरित्र 200.00 सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र 500.00 सचित्र मंगल माला 20.00 सचित्र आचारांग सूत्र 500.00 सचित्र अन्तकृदशा सूत्र 500.00 सचित्र भावना आनुपूर्वी 21.00 चित्रपट एवं यंत्र चित्र सर्वसिद्धिदायक णमोकार मंत्र चित्र 25.00 श्री गौतम शलाका यंत्र चित्र 15.00 भक्तामर स्तोत्र यंत्र चित्र 25.00 श्री सर्वतोभद्र तिजय पहुत्त यंत्र चित्र 10.00 श्री वर्द्धमान शलाका यंत्र चित्र 15.00 श्री घंटाकरण यंत्र चित्र 25.00 श्री सिद्धिचक्र यंत्र चित्र 20.00 श्री ऋषिमण्डल यंत्र चित्र 20.00 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा शिक्षा और साधना के लिये समर्पित सात दशक SHREE SHWETAMBER STHANAKVASI JAIN SABHA (EST. 1928) 18/D, SUKEAS LANE, CALCUTTA-700 001 Tel.: (242) 6369, 4958 Fax: (210) 4139 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. DIFFERENT ACTIVITIES SHREE JAIN VIDYALAYA (H.S.) (EST. 1934) CALCUTTA-700 001 2,700 STUDENTS (CLASSITO XII) SHREE JAIN VIDYALAYA FOR BOYS (EST. 1992) 25/1, BON BEHARI BOSE ROAD, HAWRAH-700 001 HIGHER SECONDARY INST. 2,500 STUDENTS CLASS I TO XII SHREE JAIN VIDYALAYA FOR GIRLS (H. S.) (EST. 1992) 25/1, BON BEHARI BOSE ROAD, HAWRAH-700 001 HIGHER SECONDARY INST. 2,500 STUDENTS CLASS I TO XII SHREE JAIN BOOK BANK PROJECT (EST. 1978) DISTRUBING 2000 SETS OF BOOKS TO THE REGULAR STUDENTS OF W.B. AT PRESENT ABOUT 100 CENTRES SHREE JAIN HOSPITAL & RESEARCH CENTRE 493-B/12, G. T. ROAD; (S) HAWRAH-700 002 A 220 BEDDED GENRAL HOSPITAL EARTH MODREN EQUIPEMENT AND 24 HOURS AMBULANCE SERVICES WITH X-RAY, ECG, SONOGRAPHY, ULTRA SOUND, ICU, ICCU, EYE, ENT, DENTAL PEADRIATIC GYANE, LAPROSCOPY ETC. LATEST O. T. INSTRUMENTS WITH RENOWNED DOCTORS. FREE ARTIFICIAL LIMB AND CALIPER DISTRIBUTION ROUND THE YEAR. 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CLASS X & XII Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म के प्रसिद्ध विषयों पर आधारित रंगीन सचित्र कथाएं: दिवाकर चित्रकथा जैनधर्म, संस्कृति, इतिहास और आचार-विचार से सीधा सम्पर्क बनाने का एक - सरलतम, सहज माध्यम / मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्द्धक, संस्कार-शोधक, रोचक सचित्र कहानियाँ। 1. क्षमादान 2. भगवान ऋषभदेव 3. णमोकार मन्त्र के चमत्कार 4. चिन्तामणि पार्श्वनाथ 5. भगवान महावीर की बोध कथायें 6. बुद्धिनिधान अभयकुमार 7. शान्ति अवतार शान्तिनाथ 8. किस्मत का धनी धन्ना 9-10. करुणानिधान भ. महावीर 11. राजकुमारी चन्दनबाला प्रसिद्ध कड़ियाँ 12. सती मदनरेखा 13. सिद्धचक्रका चमत्कार 14. मेघकुमार की आत्मकथा. 15. युवायोगी जम्बूकुमार 16, राजकुमार श्रेणिक 17. भगवान मल्लीनाथ 18. महासती अंजनासुन्दरी 19. करनी का फल (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) 20. भगवान नेमिनाथ 21. भाग्य का खेल 22. करकण्डू जाग गया 23. जगत् गुरु हीरविजय सूरि 24. वचन का तीर 25. अजातशत्रु कूणिक 26. पिंजरे का पंछी 27. धरती पर स्वर्ग * 28. नन्द मणिकार 29.कर भला हो भला 30. तुष्णा का फल 31. पाँच रत्न 55 पुस्तकों के सैट का मूल्य 900.00 रुपया। 33 पुस्तकों के सैट का मूल्य 540.00 रुपया। राजधानी भजवान नेमिनाथ वचन का तार श्रेणिक 616दमाणकारी (अन्तसतिसौ. मति) बदमणिका कुसंस्कार कि नति युवायोगी जम्बूकुमार चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान ऋषभदेव भगवान महावीर चित्रकथाएँ मँगाने के लिए अंदर दिये गये सदस्यता फॉर्म को भरकर भेजें। Jair .org