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________________ सम्राट सम्प्रति भिखारी की करुण पुकार सुनकर मुनियों के पाँव मुनियों ने कहाअटक गये भद्र पुरुष ! क्या बात है ? महात्मा जी, तीन दिन से भूखा भटक रहा हूँ। अन्न के बदले डंडों की मार मिल रही है। भूख के मारे चला नहीं जा रहा है। थोड़ा-सा भोजन मुझे दे दीजिए। मेरी जान बच जायेगी। भिखारी मुनियों के पीछे-पीछे चलता हुआ सीधा उपाश्रय में आता है। उपाश्रय के बाहर ही चबूतरे पर आर्य सुहस्ती स्वामी खड़े हैं। मुनियों ने वन्दना की। भिखारी ने भी अपने हाथ फैलाये हे देव पुरुष ! महात्मा ! मुझ भूखे पर दया कीजिए। थोड़ा-सा भोजन दिला दीजिए। भूख के मारे प्राण छटपटा रहे हैं। मत्थएण वन्दामि भोजन देने का अधिकार हमें नहीं है। तुम हमारे गुरु जी के पास चलो, वे ही दे सकते हैं। # आचार्यश्री भिखारी की तरफ देखते हैं। भिखारी की दीन दशा देखकर उनका मन द्रवित हो गया। आँखें मूँदकर कुछ सोचते हैं। अचानक उनके चेहरे पर चमक आ जाती हैओह ! यह घटना किसी उज्ज्वल भविष्य का संकेत दे रही है। इस भिखारी की आत्मा एक दिन जैन शासन की प्रभावना करेगी। 00000 # ये श्रमण आर्य सुहस्ति के शिष्य थे। आर्य सुहस्ती दशपूर्वघर श्रुत ज्ञानी आचार्य थे। आर्य स्थूलभद्र के पश्चात् उनके पट्टपर दशपूर्वधर आचार्य महाग हुए। महागिरि और सुहस्ती दोनों ही आर्य स्थूलभद्र के शिष्य थे। Only www.jainelibrary.org.
SR No.002844
Book TitleSamrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamsuri, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size21 MB
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