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________________ | आचार्यश्री के समक्ष उसने प्रतिज्ञा ली आज से प्रतिदिन एक जिनमन्दिर के निर्माण या जीर्णोद्धार का समाचार 'सुनकर ही मैं मुँह में अन्न-जल रखूगा। सम्राटसम्प्रति एक दिन प्रातः राजा गुरु वन्दना करने आया। उसने आचार्यश्री से निवेदन किया- -राजन् ! अनार्य लोग गुरुदेव ! भरतखण्ड के श्रमण के आचार-विचार बाहर अनेक आर्य देशों में से परिचित नहीं हैं, भी मेरा राज्य है। वहाँ धर्म इसलिए वहाँ मुनियों को प्रचार के लिए अपने शिष्यों निर्दोष आहार-भिक्षा कैसे को क्यों नहीं भेजते? मिल सकती है? मैं इसकी भी उचित व्यवस्था करूंगा। सम्राट् सम्प्रति ने कुछ तत्वज्ञानी वृद्ध श्रावकों को कुछ विद्वान् उपदेशक अनार्य देशों में गये। उनके बुलाकर कहा-आप मुनि वेश धारण करके अनार्यसाथ सम्राट् के सैनिक और राज-कर्मचारी भी थे। देशों में जाएँ, वहाँ मिनमन्दिर बनवाएँ। लोगों ने मुनिवेशधारी श्रावकों को देखकर पूछाऔर लोगों को जैनधर्म तथा श्रमणाचार ये सम्राट् सम्प्रति के गुरु हैं। की शिक्षा दें। राज्य की ओर से आपको तुम इनकी वन्दना करो और पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा। ये कौन हैं? इनसे धर्म की शिक्षा लो। VIR ON 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002844
Book TitleSamrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamsuri, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size21 MB
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