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________________ दूसरे दिन सम्राट् सम्प्रति आचार्यश्री की वन्दना करने आया। वन्दना करके उसने पूछा भगवन् ! मैं अपनी माता को कैसे प्रसन्न कर सकता हूँ? EPAL सम्राट सम्प्रति राजन् ! तुम्हारी माता परम धार्मिक विचारों की है। धर्म कार्य करने से ही उसके मन को प्रसन्नता मिलेगी। हे सामन्तों, मुझे आपका धन नहीं चाहिए। अपना राज्य भी आप आनन्द से भोगें, परन्तु मेरी एक ही इच्छा है आप जैनधर्म अंगीकार कर अपने देश और नगर में जिनधर्म की प्रभावना करें, सारी प्रजा को धर्म मार्ग में लगाएँ। बस, मेरी यही एक अभिलाषा है। हम आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। Jain Education International रथोत्सव की समाप्ति के दिन सम्राट् ने अपने एक दिन सम्राट् ने आचार्यश्री से पूछासामन्तों से कहा वहाँ उपस्थित सभी सामन्तों ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया। भगवन् ! बताइए मैं क्या धर्म कार्य करूँ ? इस प्रकार गुरुदेव से धर्म चर्चा करके सम्राट् सम्प्रति दृढ़धर्मी व्रतधारी श्रावक बन गया। राजन् ! जिनमन्दिरों का निर्माण और प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करना महान् पुण्य लाभ है। तुम यह कार्य करने में समर्थ हो । राजन् ! साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका धर्म के चार आधार स्तंभ हैं। इनकी सेवा-वैयावच्च करना भी महापुण्य का कार्य है। गुरुदेव ! अब सर्वप्रथम मुझे क्या करना चाहिए? For Private 2Bersonal Use Only राजन् ! धर्म आराधना का एक प्रखर साधन है- जिन चैत्य । जिन चैत्य रहेंगे तो सबको धर्म की प्रेरणा मिलती रहेगी। www.jainelibrary.org
SR No.002844
Book TitleSamrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamsuri, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size21 MB
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