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सम्राट सम्प्रति
कुणाल को राजसभा में बुलाया गया। उसे एक ओर बिठाकर पर्दा डाल दिया। सूरदास कुणाल ने तानपूरे पर हाथ रखा, तार झनझना उठे। स्वरों का जादू फूटने लगा। उसकी दर्द भरी मीठी आवाज सुनकर सम्राट् अशोक मंत्र मुग्ध हो गया
levere vele!
प्रभुजी, तेरे दर्शन को मन प्यासा
| सभा शान्त हुई तो सम्राट् ने कहासूरदास ! आपके संगीत की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। मगधेश्वर सम्राट् अशोकवर्धन आप पर प्रसन्न है। जो इच्छा हो सो माँगो L
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कुछ देर तक संगीत के स्वर गूंजते रहे। श्रोता सिर धुनते रहे। झूमते रहे। थोड़ी देर में संगीत
बन्द हुआ। तो तालियों की गड़गड़ाहट से राजसभा गूँज उठी।
साषण
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जो आज्ञा महाराज।
वाह ! बहुत सुन्दर, गजब की मिठास है। भक्ति की गंगा बहा दी आपने तो।
ऐसा अद्भुत संगीत तो पहली
बार सुना है।
फिर सूरदास ने सितार पर अँगुलियाँ रखीं और
एक पद्य गाया
चन्दगुत्त पवोत्तो उ बिंदुसाररस नत्तुओ असोगसिरिणो पुत्तो अंघो जायति कागिणीं । चन्द्रगुप्त क. मैं प्रपौत्र बिन्दुसार का पौत्र । अशोक पुत्र अंध, अवश याचै कागिणी मात्र ॥
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