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________________ सम्राटसम्प्रति सम्राट् सम्प्रति माता की बातें सुनकर गंभीर हो गया। तुझे आनन्द और सुख का मार्ग जानना माता कहने लगी माँ। फिर बता! ||है तो आर्य सुहस्ती स्वामी से पूछना।) वत्स ! तीन खण्डों पर तुझे आनन्द कैसे कल वे इस नगर में पधारेंगे। तेरी विजय ध्वमा लहराती। मिलेगा? मैं वही (ठीक है माँ, तू जैसा कहती देखकर मैं दुःखी नहीं, काम करूँगा जिससे है वैसा ही करूंगा। परन्तु मन में आनन्द तुझे आनन्द मिले। भी नहीं है। सम्राट् सम्प्रति रातभर सोचता रहा कल आर्य सुहस्ती स्वामी पधारेंगे और मैं उनसे माता को प्रसन्न करने का उपाय पूलूंगा। अपने सुख का मार्ग भी मानूँगा। प्रातः महलों की छत पर सम्राट् चहलकदमी करने लगा तभी देखा राजमार्ग पर एक विशाल मुलूस चला आ रहा है। अनेक प्रकार के बाजे, नगाड़े बज रहे हैं। उनके पीछे नगर के श्रीमन्त सेठ, वृद्ध, युवक, बालक और फिर हजारों स्त्रियाँ गाते-बजाते-नाचते हुए चल रहे हैं। बीच में एक विशाल चाँदी का रथ है। रथ में जीवन्त स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। उनके पीछे उज्ज्वल श्वेत वस्त्रधारी एक दिव्य भव्य तेजस्वी सन्त चल रहे हैं। पीछे-पीछे सैकड़ों श्रमण-श्रमणियाँ चल रहे हैं। सwwwwwww 24 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002844
Book TitleSamrat Samprati Diwakar Chitrakatha 045
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamsuri, Shreechand Surana
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Story
File Size21 MB
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