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“दिगंबर जैन" के इसी अंकका क्रोडपत्र ।
दिगंबरजैनग्रंथमाला नं. ४७ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
समाधिमरण
और
मृत्युमहोत्सक।
(पंडित सूरचन्दजी और सदासुखजी कृत)
प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया-सूरत।
प्रथमावृत्ति]
वीर सं० २४४२
प्रति २२००
5Odom
सोनासण (प्रांतिज) निवासी गांधी नहालचंद सांकलचंदके स्वर्गवासी पुत्र जुठाभाईके स्मरणार्थ 'दिगंबरजैन' के . ग्राहकोंको नौवें वर्षका छठा उपहार. "जैनविजय " प्रेस-सूरत.
मूल्य रु० ०-१-६
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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोधसंस्थान एवं ग्रंथालय)
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक : १३५९
आराधना
महावीर जी
केन्द्र को
कोबा.
अमृतं
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet: www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर हॉटल हेरीटेज़ की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355
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॥ श्रीजिनाय नमः ॥ समाधिमरण भाषा।
पं० सूरचन्दजी रचित ।
नरेंद्र छन्द । बन्दों श्रीअरहंत परमगुरु, जो सबको सुखदाई । इस जगमें दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई॥ अब मैं अरज करूँ प्रभु तुमसे, कर समाधि उरमाँही। अन्तसमयमें यह वर माँD, सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भवमें तन धार नये मैं, भव भव शुभ सँग पायो। भव भवमें नृप ऋद्धि लई में, मात पिता सुत थायो॥ भव भवमें तन पुरुष तनो धर, नारी हूँ तन लीनो। भव भवमें मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नहिं चीनो ॥२॥ भव भवमें सुरपदवी पाई, ताके सुख अति भोगे । भव भवमें गति नरकतनी धर, दुख पाये विधयोगे ॥ भव भवमें तिर्यच योनि धर, पायो दुख अतिभारी । भव भवमें साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भवमें जिनपूजन कीनी, दान सुपात्रहि दीनो। भव भवमें मैं समवशरणमें, देखो जिनगुण भीनो ॥
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२]
दिगम्बर
एती वस्तु मिली भव भवमें, सम्यक गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहि कीनो। एक बारहू सम्पकयुत मैं, निज आतम नहिं चीनो ॥ जो निजपरको ज्ञान होय तो, मरण समय दुख काँई । देहविनासी मैं निजभासी, जोतिस्वरूप सदाई ॥५॥ विषय कपायनके वश होकर, देह आपनो जानो। कर मिथ्यासरधान हिये बिच, आतम नाहिं पिछानो ॥ यों कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो । सम्यकदर्शन ज्ञान तीन ये, हिरदेमें नहिं लायो॥६॥ अब या अरज कर प्रभु मुनिये, मरणसमय यह माँगों । रोगजनित पीड़ा मत हाऊ, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरणसमय दुखदाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यागद छीजे ॥७॥ यह तन सात कुधातमई है, देखत ही घिन आवै । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्ठा पावै ॥ अति दुर्गध अपावनसों यह, मूरख प्रीति बढ़ावै । देहविनासी यह अविनासी, नित्यस्वरूप कहावै ॥८॥ यह तन जीर्ण कुटीसम आतम, यातै प्रीति न कीजे । नूतन महल मिले जब भाई, तब यामें क्या छीजे ।।
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समाधिमरण ।
मृत्यु होनेसे हानि कौन है, याको भय मत लावो । समतासे जो देह तजोगे, तो शुभतन तुम पावो ॥२॥ मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसरके माहीं। जीरन तनसे देत नयो यह, या सम साहू नाहीं ॥ या सेती इस मृत्यु समयपर, उत्सव अति ही कीजै । क्लेशभावको त्याग सयाने, समताभाव धरीजै ॥ १०॥ जो तुम पूरब पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई । मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावे, स्वर्गसंपदा भाई ॥ राग द्वेषको छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई । अन्त समयमें समता धारो, परभवपंथ सहाई ॥११॥ कर्म महा दुठ बैरी मेरो, तासेती दुख पावे । तन पिंजरेमें बंध कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावै ॥ भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस ही तनमें गाढ़े। मृत्युराज अब आय दयाकर, तन पिंजरेसे काढ़े ॥१२॥ नाना वस्त्राभूषण मैंने, इस तनको पहराये । गंधसुगन्धित अतर लगाये, षटरस असन कराये ॥ रात दिना मैं दास होयकर, सेव करी तनकेरी । सो तन मेरे काम न आयो, भूल रहो निधि मेरी ॥१३॥ मृत्युरायको शरन पाय तन, नूतन ऐसो पाऊँ। जामें सम्यकरतन तीन लहि, आठों कर्म खपाऊँ ।
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४ ]
दिगम्बर जैन ।
देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहिं सु या जगमाहीं । मृत्युसमय में ये ही परिजन, सब ही हैं दुखदाई ॥ १४ ॥ यह सब मोह बढ़ावनहारे, जियको दुर्गतिदाता । इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता ॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, माँगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करौ तौ पात्रो संपति तेती ॥ १५ ॥ चौ आराधन सहित प्राण तज, तौ ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकतिमें जावो ॥ मृत्यु कल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मँझारे । ताक पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥ १६ ॥ इस तनमें क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है । तेज कांति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है ।। पाँचों इंद्री शिथल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड़े, समता उर नहिं लावै ॥ १७ ॥ मृत्युराज उपकारी जियको, तनसे तोहि छुड़ावै । नातर या तनं बंदीगृहमें, परयो परयो बिललावै ॥ पुदगलके परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी । यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञानजोति गुणखासी ॥ १८ ॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गललारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ||
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समाधिमरण ।
या तनसे इस क्षेत्र संबंधी, कारण आन बनो है। खान पान दे याको पोषो, अब समभाव ठनो है।। १९ ।। मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो जानो। इंद्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछानो ॥ तन विनशनतें नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई । कुटुम आदिको अपनो जानो, भूल अनादी छाई ॥ २०॥ अब निज भेद यथारथ समझो, मैं हूँ ज्योतिस्वरूपी । उपजे विनसै सो यह पुद्गल, जानो याको रूपी ॥ इष्टनिष्ट जेते सुखदुख हैं, सो सब पुद्गलसागे । मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुःख भागे ॥२१॥ बिन समता तन नन्त धरे मैं, तिनमैं ये दुःख पायो । शस्त्रघाततै नन्त वार मर, नाना योनि भ्रमायो॥ बार नन्त ही अग्निमाहिं जर, मूवो सुमति न लायो । सिंह व्याघ्र अहि नन्त बार मुझ, नाना दुःख दिखायो। २२। बिन समाधि ये दुःख लहें मैं, अब उर समता आई। मृत्युराजको भय नहिं मानो, देवै तन सुखदाई ॥ यातै जबलग मृत्यु न आवै, तबलग जप तप कीजै । जप तप बिन इस जग माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ स्वर्ग संपदा तपसे पावै, तपसे कर्म नसावै । तपहीसे शिवकामिनिपति है, यासों तप चित लावै ॥
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दिगम्बर जैन ।
अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई । मात पिता सुत बान्धव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई । २४ ॥ मृत्यु समयमें मोह करें ये, तातें आरत हो है। आरतते गति नीची पावै, यों लख मोह तजो है। और परिग्रह जेते जगमें, तिनसे भीति न कीजे । परभवमें ये संग न चालें, नाहक आरत कीजे ॥२५॥ जे जे बस्तु लसत हैं ते पर, तिनसे नेह निवारो। परगतिमें ये साथ न चालें, ऐसो भाव विचारो॥ जो परभवमें संग चलें तुझ, तिनसे प्रीति सु कीजे । पंच पाप तज समता धारो, दान चार विध दीजे ॥२६॥ दशलक्षणमय धर्म धरो उर, अनुकम्पा चित लावो। षोड़शकारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावन भावो । चारौं परवी प्रोषध कीजे, अशन रातको त्यागो । समता धर दुरभाव निवारो, संयमसों अनुरागो ॥ २७ ॥ अन्तसमयमें ये शुभ भाव हि, हो0 आनि सहाई । स्वर्ग मोक्षफल तोहि दिखावै, ऋद्धि देहिं अधिकाई ।। खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उरमें समता लाके । जासेती गति चार दूर कर, वसो मोक्षपुर जाके ॥२८॥ मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई। ये ही तोकों सुखकी दाता, और हितू कोऊ नाई ॥
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[७
आगे बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी । बहू उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥२९॥ तिनमें कछ इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिय चित लाके। भावसहित अनुमोदै तासे, दुर्गति होय न जाके ॥ अरु समता जिन उरमें आवै, भाव अधीरज जावै। योनिशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये विच लावै । ३० । धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी। एक श्यालनी जुग वच्चाजुत, पाँव भखो दुखकारी॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी॥३१॥ धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो । तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतमसों हित लायो। यह उपसर्ग सहोघर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥ ३२ ॥ देखो गज मुनिके फिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी । शीस जले जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिगारी ॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव वारी॥३३॥ सनतकुमार मुनीके तनमें, कुष्ट वेदना व्यापी ।। छिन्न भिन्न तन तासों हुवो, तब चिन्तो गुण आपी॥
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दिगम्बर जैन ।
यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमरे जिये कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥ ३४ ॥ श्रेणिकस्त गंगा में डूबो, तब जिननाम चितारो | घर सलेखना परिग्रह छाँड़ो, शुद्ध भाव उर धारो ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।। २५ ।। समंतभद्र मुनिवरके तनमें क्षुधा वेदना आई । बा दुखमें मुनि नेक न डिगियो, चिन्तो निजगुण भाई || यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमार जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥ ३६ ॥ afeteria तीस दोय मुनि, कौशांबीतट जानो । नदीमें मुनि बहकर मूवे, सो दुख उन नहिं मानो ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्युमहोत्सव वारी ॥ ३७ ॥ धर्मघोष मुनि चंपानगरी, वाह्य ध्यान घर ठाढ़ो |
एक मासी कर मर्यादा, तृषा दुःख सह गाहो ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥ ३८ ॥ श्रीदतमुनिको पूर्व जन्मको, बैरी देव सु आके | विक्रिय कर दुःख शीततनो सो, सहो साध मन लाके ॥
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समाधिमरण ।
यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३९॥ वृषभेसन मुनि उष्ण शिलापर, ध्यान धरो मन लाई। सूर्य घाम अरु उष्ण पवनकी, बेदन सहि अधिकाई ।। यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महात्सव बारी॥ ४० ॥ अभयघोष मुनि काकंदीपुर, महा बेदना पाई।। बैरी चडने सब तन छेदो, दुख दीनो अधिकाई॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४१॥ विद्युत्चरने बहु दुख पायो, तो भी धीर न त्यांगी। शुभ भावनसे प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी। तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।। ४२॥ पुत्र चिलाती नामा मुनिको, बैरीने तन घातो । मोटे मोटे कीट पड़े तन, तापर निज गुण रातो॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी॥४३॥ दण्डक नामा मुनिको देही, बाणन कर अरि भेदी । तापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्म महारिपु छेदी ॥
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१०]
दिगम्बर जैन । यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तौ तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी॥४४॥ अभिनंदन मुनि आदि पाँचसे, घानी पेलि शु मारे। तो भी श्रीमुनि समता धारी, पूरब कर्म बिचारे ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी॥ ४५ ॥ चाणक मुनि गोघरके माहीं, मूंद अगिनिपर जालो। श्रीगुरु उर समभाव धारके, अपनो रुप सम्हालो ।। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी॥४६ ।। सात शतक मुनिवर ने पायो, हथनापुरमें जानो।। वलि ब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो ॥ यह उपसर्ग सहो धर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४७॥ लोहमयी आभूषण गढ़के, ताले कर पहराये । पाँचो पाण्डव मुनिके तनमें, तौ भी नाहिं चिगाये ॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी । तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४८॥ और अनेक भये इस जगमें, समता रसके स्वादी । वे ही हमको हो सुखदाता, हर हैं देव प्रमादी ॥
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समाधिमरण ।
[ ११
सम्यकदर्शन ज्ञान चरन तप, ये आराधन चारों। ये ही मोकों मुखकी दाता, इन्हें सदा उर धारों ॥४९॥ यों समाधि उर माही लावो, अपनो हित जो चाहो । तज ममता अरु आठों मदको, जोतिस्वरूपी ध्यावो ।। जो कोई निज करत पयानो, ग्रामांतरके काजै । सो भी शुकन विचारे नीके, शुभ शुभ कारण साजै ॥५०॥ मात पितादिक सर्व कुटुम सो, नीके शुकुन बनावै । हलदी धनिया पुंगी अक्षत, दूध दही फल लावै ।। एक ग्रामके कारण एते, करें शुभाशुभ सारे। जब परगतिको करत पयानो, तब नहिं सोचें प्यारे ॥५१ ।। सर्व कुटम जब रोवन लागै, तोहि रुलावें सारे । ये अपशकुन करें सुन तोको, तूं यों क्यों न विचारे । अब परगतिको चालत विरियाँ, धर्मध्यान उर आनो । चारों आराधन आराधो, मोहतनो दुख हानो ॥५२॥ है निशल्य तजो सब दुबिधा, आतमराय सुध्यावो । जब परगतिको करहु पयानो, परम तत्व उर लावो ॥ मोह जालको काट पियारे, अपनो रूप विचारो । मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, यों उर निश्चय धारो ॥५३॥
दोहा । मृत्युमहोत्सव पाठको, पढ़ो सुनो बुधिवान । सरधा घर नित सुख लहो, सूरचन्द शिवथान ॥५४॥ पंच उभय नव एक नभ, सम्बत सो सुखदाय । आश्विन श्यामा सप्तमी, कहाँ पाठ मन लाय ॥५५॥
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१२]
दिगम्बर जैन ।
1 समाधिमरणभाषा।
___ जोगीरासा वा नरेन्द्रछन्द ।। गौतम स्वामी बन्दों नामो, मरणसमाधि भला है। मैं कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ, गाऊँ वचन कला है । देव धरम गुरु प्रीति महा दृढ़, सात व्यसन नहिं जाने । तजि बाईस अभक्ष संयमी, बारह व्रत नित ठाने ॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी, पानी त्रस न विराधै । निज करै पर द्रव्य हरै नहिं, छहों करम इमि साधै ॥ पूजा शास्त्र गुरुनकी सेवा, संयम तप चउदानी। पर उपकारी अल्प अहारी, सामायिकविधि ज्ञानी ॥ २॥ जाप जपै तिहुं योग धरै हृद, तनकी ममता दारै । अन्तसमय वैराग्य सम्हारे, ध्यान समाधि विचारै ॥ आग लगै अरु नाव डुबै जब, धर्म विधन जब आवै। चार प्रकार आहार त्यागिके, मंत्र सु मनमें ध्यावै ॥३॥ रोग असाध्य जहाँ बहु देखै, कारण और निहारै। बात बड़ी है जो बनि आवै, भार भवनको डारै॥ जो न बनै तो घरमें रह करि, सबसों होय निराला । मात पिता सुत तियकों सा, निज परिग्रह अहि काला ॥ ४ ॥ कछु चैत्यालय कछ श्रावक जन, कछु दुखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबहीसों कहिके, मनकी शल्य हनेई ॥ शत्रुनसों मिलि निज कर जोरै, मैं बहु करी है बुराई । तुमसै प्रीतमका
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समाधिमरण ।
[१३ दुख दीने, ते सब बकसो भाई ॥५॥ धन धरती जो मुखसो मांगै, सो सबही संतोषै । छहौं कायके प्राणी ऊपर, करुणाभाव विशेषै ॥ ऊँच नीच घर बैठ जगह इक, कछ भोजन कछु पैले । दूधाहारी क्रम क्रम तजिकै, छांछ अहार पहेले ॥ ६॥ छांछ त्यागके पानी राखे, पानी ताज संथारा । भूमिमाहि थिर आसन माई, साधर्मी लिंग प्यारा ||जब तुम जानो यह न जपै है, तब जिनबानी पढ़िये । यो कहि मौन लियौ सन्यासी, पंच परम गद गहिये ॥७॥ चौ आराधन मनमें ध्यावै, बारह भावन भावै । दशलक्षण मन धर्म विचार, रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैतीस सोलह षट पन चौ दुइ, एक बरन बिचारै । काया तेरी दुखकी ढेरी, ज्ञानमई तू सारै ॥ ८॥ अजर अमर निज गुणसों पूरै, परमानन्द सुभावै । आनँद कन्द चिदानँद साहब, तीन जगतपति ध्यावे ॥ क्षुधा तृषादिक होइ परीपह, सहै ‘भाव सम राखे । अतीचार पाँचों सब त्याग ज्ञान सुधारस चाखै ॥९॥ हाड़ मांस सब सूखी जाय जब, धरम लीन तन त्यागै,। अदभुत पुण्य उपाय सुरगमै, सेज उठै ज्यों जागै ॥ तहँतै आवै शिव पद पावै, बिलसै सुक्ख अनन्तो। 'द्यानत' यह गति होय हमारी, जैन धरम जयवन्तो ॥१०॥
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१४ ]
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दिगम्बर जैन ।
मृत्युमहोत्सव ।
स्वर्गीय पं. सदासुखजीकृत वचनिका सहित मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे । समाधिबोध पाथेयं यावन्मुक्तिपुरी पुरः ॥ १ ॥
अर्थ – मृत्युके मार्ग प्रवर्त्यो जो मैं ताकूं भगवान वीतराग जो है सो समाधि कहिये स्वरूपकी सावधानी अर बोध कहिये पर लोकके मार्ग मैं उपकारक वस्तु सो देहु जितनैक मैं मुक्ति पुरी प्रति जाय पहुंचूं या प्रार्थना करूं हूं । भावार्थ — मैं अनादिकालतें अनंत कुमरण किये जिनकूं सर्वज्ञ वीतराग ही जानें हैं। एकवार हू सम्यक् मरण नहिं किया। जो सम्यक्मरण करता तो फिर संसार मैं मरणका पात्र नहिं होता जातें जहां देह मर जाय अर आत्माका सम्यग्दर्शन ज्ञानचरित्र स्वभाव है सो विषय कषायनिकर नहीं घात्या जाय सेो सम्यक्मरण है अर मिथ्या श्रद्धानरूप हुवा देहका नाशकूं ही अपना आत्माका नाश जानना । संक्लेश मरण करना सो कुमरण है सो मैं मिथ्यादर्शनका प्रभाव करि देहकूं ही आपा मानि अपना ज्ञानदर्शनस्वरूपका घात करि अनंत परिवर्तन किये सो अब भगवान् वीतरागस ऐसी प्रार्थना करूं हूं जो मेरे मरणके समय मैं वेदनामरण तथा आत्मज्ञानरहित मरण मत होहूक्योंकि सर्वज्ञ वीत
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मृत्युमहोत्सव ।
[१५ रागका शरणसहित संक्लेशरहित धर्मध्यानतें मरण चाहता वीतरागहीका शरण ग्रहण करूं हूं ॥ १ ॥
अब मैं अपने आत्माकू समझाऊं हूं,कृमिजालशताकीर्णे जर्जरे देहपारे । भज्यमाने न भेतव्यं यतस्त्वं ज्ञानविग्रहः ॥२॥
अर्थ-भो आत्मन् ! कृमिनिके सैकडां जालनिकरि भरया अर नित्य जर्जरा होता यो देहरूप पीजरा इसकू नष्ट होते तुम भय मत करो जाते तुम तो ज्ञानशरीर हो । भावार्थ---तुमारा रूप तो ज्ञान है जिसमें ये सकल पदार्थ उद्योतरूप हो रहे हैं अर अमूर्तिक ज्ञान ज्योतिःस्वरूप अखंड अविनाशी ज्ञाता दृष्टा है अर यह हाड मांस चामडामय महादुर्गध विनाशीक देह है सो तुमारा रूप” अत्यंत भिन्न है। कर्मके वशते एक क्षेत्रमैं अवगाहन करि एकसे होय तिष्ठै है तोहु तुमारै इनकै अत्यंत भेद है अर यो देह पृथ्वी जल अग्नि पवनके परमाणुनिका पिंड है सो अवसर पाय विखर जायगा तुम अविनाशी अखंड ज्ञायकरूप होय इसके नाश होनेते भय कैसे करो हो ॥ २ ॥ अब और हु कहै है--
ज्ञानिन् भयं भवेत्कस्यात्प्राप्ते मृत्युमहोत्सवे । स्वरूपस्थः पुरं याति देही देहान्तरस्थितिः ॥३॥ अर्थ-भो ज्ञानिन् ! कहिये हो ज्ञानी तुमको वीतरागी सम्य
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१६]
दिगम्बर जैन । ग्ज्ञानी उपदेश करें हैं जो मृत्युरूप महान् उत्सवको प्राप्त होते काहेरौं भय करो हो ? यो देही कहिये आत्मा सो अपने स्वरूपमैं तिष्ठता अन्य देहमें स्थितिरूप पुरकू जाय है यामैं भयका हेतु कहा है? भावार्थ-जैसै कोऊ एक जीर्णकुटीमेंतें निकसि अन्य नवीन महलकुं प्राप्त होय सो तो बड़ा उत्सवका अवसर है तैसें यो आत्मा अपने स्वरूपमैं तिष्ठता ही इस जीर्ण देहरूप कुटीर्ले छोड़ि नवीन देहरूप महलकौं प्राप्त होते महा उत्सवका अवसर है यामैं कुछ हानि नहीं जो भय करिये अर जो अपने ज्ञायकस्वभावमैं तिष्ठते परका अपणासकरि रहित परलोक जावोगे तो बड़ा आदरसहित दिव्य धातु उपधातुरहित वैक्रियकदेहमैं देव होय अनेक महर्द्धिकनिमें पूज्य महान देव होवोगे अर जो यहां भयादिक करि अपना ज्ञानस्वभावकू बिगाडि परमैं ममता धारि मरोगे तो एकेन्द्रियादिकका देहमें अपने ज्ञानका नाश करि जड़रूप होय तिष्ठोगे, ऐसें मलीन क्लेशसहित देहळू त्यागि क्लेशरहित उज्वल देहमैं जाना तो बड़ा उत्सवका कारण है ॥ ३॥
मुदत्तं प्राप्यते यस्माद् दृश्यते पूर्वसत्तमैः ।
भुज्यते स्वर्भवं सौख्यं मृत्युभीतीः कुतः सताम् ॥४॥ __ अर्थ-पूर्वकालमैं भए गणधरादि सत्पुरुष ऐसैं दिखाबें हैं जो जिस मृत्युतें भलेप्रकार दिया हुवाका फल पाइये अर स्वर्गलोकका
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मृत्युमहोत्सव ।
[१७ सुख भोगिये तातै सत्पुरुषकै मृत्युका भय काहे होय। भावार्थअपना कर्तव्यका फल तो मृत्यु भये ही पाइए है जो आप छयकायके जीवनिळू अभयदान दिया अर रागद्वेष काम क्रोधादिकका घातकरि असत्य अन्याय कुशील परधनहरणका त्यागकरि परमसंतोष धारणकरि अपने आत्माकू अभयदान दिया ताका फल स्वर्गलोक विना कहां भोगनमैं आवै सो स्वर्गलोकके सुख तो मृत्यु नाम मित्रके प्रसा. दते ही पाईए तातें मृत्यु समान इस जीवका कोऊ उपकारक नाहीं। यहां मनुष्य पर्यायका जीर्ण देहमें कौन २ दुःख भोगता कितने काल रहता आर्तध्यान रौद्रध्यानकरि तिर्यंच नरकमैं जाय पड़ता तातै अब मरणका भय अर देह कुटुंब परिग्रहका ममत्वकरि चिंतामणि कल्पवृक्ष समान समाधिमरणकू बिगाड़ि भयसहित समतावान हुवा कुमरणकरि दुर्गति जावना उचित नाहीं ॥४॥ और हू विचारै है
आग दुःखसंतप्तः प्रक्षिप्तो देहपारे।। नात्मा विमुच्यतेऽन्येन मृत्युभूमिपति विना ॥५॥
अर्थ-यो हमारो कर्म नाम वैरी मेरा आत्माकू देहरूप पीजरेमैं क्षेप्या सो गर्भमैं आया तिस क्षणमैं सदाकाल क्षुधा तृष्णा रोग वियोग इत्यादि अनेक दुःखनिकरि तप्तायमान हुवा पड़या हूं अब ऐसे अनेक दुःखकनिकरि व्याप्त इस देहरूप पीजराते मोकं मृत्यु नाम राजा विना कौंन छुड़ावै । भावार्थ-इस देहरूप पीज
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१८]
दिगम्बर जैन ।
रेमैं कर्मरूप शत्रुकरिपटक्या मैं इंद्रियनिके आधीन हुवा नाना त्रास सहूँ हूं नित्य ही क्षुधा अर तृषाकी वेदना त्रास देवै है अर सासती स्वास उच्छ्वासकी पवनका खेचना अर काढ़ना अर नाना प्रकारके रोगनिका भोगना अर उदर भरनै वास्तै नाना पराधीनता अर सेवा कृषि वाणिज्यादिकनिकरि महा क्लेशित होय रहना अर शीत उष्ण दुष्टनि करि ताड़न मारन कुवचन अपमान सहना कुटुंबके आधीन होना धनकै राजाकै स्त्री पुत्रादिककै आधीन रहना ऐसा महान् बंदीगृह समान देह मैं तैं मरण नाम बलवान राजा विना कौन निकासे? इस देहकूं कहां तांई बाहता जाकूं नित्य उठावना बैठावना भोजन करावना जल पावना स्नान करावना निद्रा लिवावना कामादिक विषयसाधन करावना नाना प्रकारके वस्त्र आभरणादिकरि भूषित करना रात्रि दिन इस देहहीका दासपना करता हूं आत्माकूं नाना त्रास देवें है भयभीत करै है आपा भुलावै है ऐसा कृतघ्न देहतैं निकसना मृत्यु नाम राजा विना नहीं होय जो ज्ञानसहित देहसों ममता छांड़ि सावधानी धर्मध्यानसहित संक्केशरहित वीतरागतापूर्वक जो समाधिमृत्यु नाम राजाका सहाय ग्रहण करूं तो फेरि मेरा आत्मा देह धारण ही नहीं करै दुःखनिका पात्र नहीं होय समाधिमरण नामा बड़ा न्यायमार्गी राजा है मोकूं याहीका शरण होहू मेरे अपमृत्यका नाश होहु ॥ ५ ॥ और ह कहै हैं—
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मृत्युमहोत्सव ।
[ १९ सर्वदुःखप्रदं पिण्डं दूरीकृयात्मदर्शिभिः । मृत्युमित्रप्रसादेन प्राप्यन्ते सुखसम्पदः ॥६॥
अर्थ--आत्मदर्शी जे आत्मज्ञानी हैं ते मृत्युनाम मित्रका प्रसादकरि सर्व दुःखका देनेवाला देहपिंडनूं दूर छांडकरि सुखकी संपदाकू प्राप्त होय हैं। भावार्थ-जो इस सप्तधातुमय महा अशुचि विनाशीक देहळू छोड़ि दिव्य वैक्रियक देहमैं प्राप्त होय नाना सुख संपदाकू प्राप्त होय है सो समस्त प्रभाव आत्मज्ञानीनिकै समाधिमरणका है समाधिमरण समान इस जीवका उपकार करनेवाला कोऊ नहीं है इस देहमैं नाना दुःख भोगना अर महान रोगादि दुःख भोगि करि मरना फिर तिर्यंच देहमैं तथा नरकमैं असंख्यात अनंतकालतांई असंख्यात दुःख भोगना अर जन्ममरणरूप अनंत परिवर्तन करना तहां कोऊ शरण नाहीं । इस संसार परिभ्रमणसों रक्षा करने• कोऊ समर्थ नाहीं है कदाचित् अशुभकर्मका मंद उदयतें मनुष्यगति उच्चकुल इंद्रियपूर्णता सतपुरुषनिका संगम भगवान् जितेन्द्रका परमागमका उपदेश पाया है। अब जो श्रद्धान ज्ञान त्याग संयमसहित समस्त कुटुंब परिग्रहमैं ममत्वरहित देहते भिन्न ज्ञाकस्वभावरूप आत्माका अनुभवकरि भयरहित च्यार आराधनाका शरण सहित मरण हो जाय तो इस समान त्रैलोक्यमैं तीन कालमैं इस जीवका हित है नाहीं। जोसंसार परिभ्रमण छूट जाना सो समाधिमरण नाम मित्रका प्रसाद है ॥६॥
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२०]
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दिगम्बर जैन ।
मृत्युकल्पद्रुमे प्राप्ते येनात्मार्थो न साधितः । निमग्नो जन्मजम्बाले स पश्चात् किं करिष्यति ॥ ७ ॥ अर्थ - जो जीव मृत्यु नाम कल्पवृक्षकूं प्राप्त होतैं हू अपना कल्याण नाहीं सिद्ध किया सो जीव संसाररूप कर्दम मैं डूबा हुवा पाछें कहा करसी : भावार्थ - इस मनुष्य जन्म मैं मरणका संयोग है सो साक्षात् कल्पवृक्ष है जो वांछित लेना है सो लेहु जो ज्ञानसहित अपना निजस्वभाव ग्रहणकर आराधनासहित मरण करो तो स्वर्गका महर्द्धिकपणा तथा इंद्रपणा अहमिंद्रपणा पाय पाछें तीर्थकर तथा चक्रीपणा होय निर्वाण पावो । मरणसमान त्रैलोक्य मैं दाता नहीं ऐसे दाताकूं पायकरि भी जो विषयकी वांछा कपाय सहित ही रहोगे तो विषयवांछाका फल तो नरक निगोद है । मरण नाम कल्पवृक्षकं बिगाड़ोगे तो ज्ञानादि अक्षयनिधानरहित भए संसारूप कर्द्दममैं डूब जावोगे अर भो भव्य हो जो थे वांछाका मारया हुवा खोटे नीच पुरुषनिका सेवन करो हो अतिलोभी भए विषयनिके भोगनेकूं धन वास्तै हिंसा झुंड चोरी कुशील परिग्रहमैं आसक्त भये निंद्यकर्म करो हो अर वांछा पूर्ण छ नहीं होय अर दुःखके मारे मरण करो हो कुटंबादिकनिकूं छांड़ि विदेशमैं परिभ्रमण करो हो निंद्य आचरण करो हो अर निद्यकर्म करिकै हू अवश्य मरण करो हो अर जो एकबार हू समता धारण करि त्यागत्रत -
हू
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मृत्युमहोत्सव |
[ २१
सहित मरण करो तो फेरि संसारपरिभ्रमणका अभावकरि अविनाशी सुखकं प्राप्त हो जावो तातैं ज्ञानसहित पंडितमरण करना ही उचित है ॥ ७ ॥
जीर्ण देहादिकं सर्व नूतनं जायते यतः ।
स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातोत्थितिर्यथा ॥ ८ ॥ अर्थ- जिस मृत्यु जीर्ण देहादिक सर्व छूटि नवीन हो जाय सो मृत्यु सत्पुरुषनिकै साताका उदयकी ज्यों हर्षके अर्थि नहीं होय कहा ? ज्ञानीनिकै तो मृत्यु हर्ष अर्थ ही है । भावार्थ यो मनुष्यनिको शरीर नित्य ही समय समय जीर्ण होय है देवनिका देह ज्यों जरारहित नहीं है दिन दिन बल घंटे है कांति अर रूप मलीन होय है स्पर्श कठोर होय है समस्त नसनिके हाड़निके बंधान शिथिल होय हैं चाम ढीली होय मांसादिकनिकूं छांड़ि ज्वरलीरूप होय है नेत्रनिकी उज्ज्वलता बिगड़े है कर्णनिमैं श्रवण करनेकी शक्ति बटै है हस्तपादादिकनिमें असमर्थता दिन दिन बधै है गमनशक्ति मंद होय है चालते बैठते उठते स्वास बधै है कफकी अधिकता होय है रोग अनेक हैं ऐसी जीर्ण देहका दुःख कहां तक भोगता अर ऐसे देहका
कहां तक होता ! मरण नाम दातार विना ऐसे निंद्यदेहकं astra नवीन देह मैं वास कौन करावे ? जीर्ण देह है तिसमैं बड़ा
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दिगम्बर जैन ।
असाताका उदय भोगिये है सो मरण नाम उपकारी दाता विना ऐसी असाताकं दूर कौन करै अर जे सम्यग्ज्ञानी हैं तिनकै तो मृत्यु होनेका बड़ा हर्ष है जो अब संयम व्रत त्याग शीलमैं सावधान होय ऐसा यत्न करै जो फेरि ऐसे दुःखका भरया देहेको धारण नहीं होय? सम्यग्ज्ञानी तो याहीकू महा शाताका उदय माने
मुखं दुःखं सदा वेनि देहस्थश्च स्वयं व्रजेत् । मृत्युभीतिस्तदा कस्य जायते परमार्थतः ॥९॥
अर्थ--यो आत्मा देहमैं तिष्ठतो हू सुखकू तथा दुःखकू सदा काल जान ही है अर परलोकप्रति हु स्वयं गमन करै है तो परमार्थतें मृत्युका भय कौनकै होय। भावार्थ--जो अज्ञानी बहिरात्मा है सो तो देहमैं तिष्ठता हु मैं सुखी मैं मरूं हूं मैं क्षुधावान मैं तृषावान मेरा नाश हुआ ऐसा मान । अर अंतरात्मा सम्यग्दृष्टी ऐसै मान है जो उपज्या है सो मरेगा पृथ्वीजलअग्निप वनमय पुद्गलपरमाणुनिके पिंडरूप उपज्यो यो देह है सो विनशैगो। मैं ज्ञानमय अमूर्तीक आत्मा मेरा नाश कदाचित् नहीं होय । ये क्षुधातृषावातपित्तकफादिरोगमय वेदना पुद्गलकै हैं मैं इनका ज्ञाता हूं मैं यामैं अहंकार वृथा करूं हूं। इस शरीरकै अर मेरे एक क्षेत्रमैं तिष्ठनेरूप अवगाह है तथापि मेरा रूप ज्ञाता है अर शरीर जड़ है,
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मृत्युमहोत्सव |
[ २३
मैं अमूर्तक, देह मूर्तीक, मैं अखंड एक हूं, शरीर अनेक परमाणुनिका पिंड है, मैं अविनाशी हूं, देह विनाशीक है अब इस देह मैं जो रोग तथा तृषादि उपजै तिसका ज्ञाता ही रहना मेरा तो ज्ञायक स्वभाव है पर मैं ममत्व करना सो ही अज्ञान है मिथ्यात्व है अर जैसे एक मकान छांड़ि अन्य मकान में प्रवेश करे तैसें मेरे शुभ अशुभ भावनकरि उपजाया कर्मकरि रच्या अन्य देह मैं मेरा जाना है इसमें मेरा स्वरूपका नाश नहीं अब निश्चयकरि विचार मरणका भय कौनकै होय ॥ ९ ॥
अर जे निजस्वरूपके
संसारासक्तचित्तानां मृत्युर्भीत्यै भवेन्नृणां । मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनां ॥ १० ॥ अर्थ -- संसार में जिनका चित्त आसक्त है अपना रूपकूं जे जाने नहीं तिनके मृत्यु होना भयके अर्थ है ज्ञाता हैं अर संसार विरागी हैं तिनकै तो मृत्यु है सो हर्षके अर्थि ही है । भावार्थ - - मिथ्यादर्शन के उदयतैं जे आत्मज्ञानकररहित देहहीकूं आपा माननेवाले अर खावना पीवना कामभोगादिक इंद्रियनिकै विषयनिकूं ही सुख माननेवाले बहिरात्मा हैं तिनके तो अपना मरण होना बड़ा भयके अर्थि है जो हाय ! मेरा नाश भया फेरि खावना पीवना कहां हू नहीं है नहीं जानिये मरे पीछे कहा होगा कैसे मरूँगा अब यह देखना मिलना कुटंबका समागम स
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२४ ]
दिगम्बर जैन । मेरे गया अब कौनका शरण ग्रहण करूँ कैसे जीऊँ ऐसे महा संक्लेश करि मरे हैं अर जे आत्मज्ञानी हैं तिनकै मृत्यु आये ऐसा विचार उपनै है जो मैं देहरूप बंदीगृहमैं पराधीन पड्या हुवा इंद्रियनिके विषयनिकी चाहनाकी दाह करि अर मिले विषयनिकी अतृप्तिताकरि अर नित्य ही क्षुधा तृषा शीत उष्ण रोगनिकरि उपजी महा वेदना तिनकरि एक क्षण इ थिरता नहीं पाई, महान दुःख पराधीनता अपमान घोर वेदना अनिष्टसंयोग इष्टवियोग भोगता महा संक्लेशते काल व्यतीत किया अब ऐसें क्लेश छुड़ाय पराधीनतारहित मेरा अनंतसुखस्वरूप जन्ममरणरहित अविनाशी स्थानकू प्राप्त करनेवाला यह मरणका अवसर पाया है यो मरण महासुखको देनेवालो अत्यंत उपकारक है अर यो संसारवास केवल दुःखरूप है यामैं एक समाधिमरण ही शरण है और कहूं ठिकाना नहीं है इस बिना च्यारों गतिनिमैं महा त्रास भोगी है अब संसारवासनै अति विरक्त मैं समाधिमरणका शरण ग्रहण करूँ ॥ १० ॥
पुराधीशो यदा याति सुकृतस्य बुभुत्सया । तदासौ वार्यते केन प्रपञ्चैः पाश्वभौतिकैः ॥ ११ ॥
अर्थ--जिस कालमैं यो आत्मा अपना कियाका भोगनेकी इच्छाकरि परलोककू जाय है तदि पंचभूत संबंधी देहादिक प्रपंचनिकरि याकू कौन रोकै ? भावार्थ--इस जीवका वर्तमान आयु पूर्ण
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मृत्युमहोत्सव ।
हो जाय अर जो अन्य परलोकसंबंधी आयुकायादिक उदय आ जाय तदि परलोककू गमन करते आत्माकू शरीरादिक पंचभूत कोऊ रोकनैकू समर्थ नहीं हैं तातें बहुत उत्साहितें चार आराधनाका शरण ग्रहणकरि मरण करना श्रेष्ठ है ॥ ११॥
मृत्युकाले सतां दुःखं यद्भवेद्याधिसंभवं । देहमोहविनाशाय मन्ये शिवमुखाय च ॥ १२॥
अर्थ--मृत्युका अवसरविषै जो पूर्वकर्मका उदयतें विनाशीक दीखै है अर देहका कृतघ्नपणा प्रकट दीखे है तदि अविनाशी पदके अर्थि उद्यमी होय है वीतरागता प्रगट होय है नदि ऐसा विचार उपनै है जो इस देहकी ममताकरि मैं अनंतकाल जन्ममरण नाना वियोग रोग संतापादिक नरकादिक गतिनिमें दुःख भोग अब भी ऐसे दुःग्वदाई देहमें ही फेरि हू ममत्वकरि आपाकू भूलि एकेंद्रियादि अनेक कुयोनिमैं भ्रमणका कारण कर्म उपार्जन करनेईं ममता करूं हूं जो अब इस शरीरमैं ज्वर काम श्वास शूल वात पित्त अतीसार मंदाग्नि इत्यादिक रोग उपदें हैं सो इस देहमैं ममत्व घटावनेके अर्थि बड़ा उपकार करें हैं धर्ममें सावधानता करावें हैं। जो रोगादिक नहीं उपजता तो मेरी ममता हु देहतें नहीं घटती अर मद ह नहीं घटता, मैं तो मोहकी अंधेरीकरि आंधा हुवा आत्माकू अजर अमर मान रह्या था सो अब यो रोगनिकी उत्पत्ति मोकू चेत कराया अब इस देहकू अशरण
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दिगम्बर जैन । जानि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपही• एक निश्चय शरण जानि आराधनाका धारक भगवान परमेष्ठीकू चित्तमैं धारणकरूं हूं। अब इस अवसरमैं हमारे एक जिनेंद्रका वचनरूप अमृत ही परम
औषधि होइ , जिनेंद्रका वचनामृत विना विषयकपायरूप रोगजनित दाहके मेटने कोऊ समर्थ नाहीं। बाह्य औषधादिक तो असाता कर्मके मंद होते किंचित् काल कोऊ एक रोगळू उपशम करै अर यो देह अनेक रोगनिकरि भरया हुवा है अर कदाचित् एक रोग मिट्या तो इ अन्य रोगजनित घोर वेदना भोगि फेरि इ मरण करना ही पड़ेगा तातें जन्मजरामरणरूप रोगकू हरनेवाला भगवानका उपदेशरूप अमृतहीका पान करूँ अर औषधादि हजारां उपाय करते हू विनाशीक देहमैं रोग नहीं मिटैगा तातै रोग” आति उपजाय कुगतिका कारण दुर्ध्यान करना उचित नहीं। रोग आवते इ बड़ा हर्ष ही मानो जो रोगहीके प्रभावतें ऐसा जीर्ण गल्या हुवा देहः मेरा छूटाना होयगा रोग नहीं आवै तो पूर्वकृत कर्म नहीं निर्जरै अर देहरूप महा दुर्गध दुःखदाई बंदीगृहत मेरा शीघ्र छूटना हू नहीं होय अर यो रोगरूप मित्रको सहाय ज्यों ज्यों देहमैं बधै है त्यों त्यों मेरा रागबंधनतें अर कर्मबंधननै अर शरीरबंधनतें छूटना शीघ्र होय है अर यो रोग तो देहमैं है इस देहकू नष्ट करैगा मैं तो अमूर्तिक चैतन्यस्वभाव अविनाशी हूं ज्ञाता हूं अर जो यो रोगन
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मृत्युमहोत्सव ।
[ २७
नित दुःख मेरे जानने में आवे है सो मैं तो जाननेवाला ही हूं याकी लार मेरा नाश नहीं है जैसें लोहकी संगतितैं अग्नि निकायात सहै है तैसें शरीरकी संगतितें वेदनाका जानना मेर ६ है अग्नितें झुपड़ी बलै है झुंपड़ीके माहिं आकाश नहीं बलै है तैसें अविनाशी अमूर्तिक चैतन्य धातुमय आत्मा ताका रोगरूप अग्निकरि नाश नहीं है अर अपना उपजाया कर्म आपकं भोगना ही पड़ेगा कायर होय भोगूंगा तो कर्म नहीं छांगा र धैर्य धारणकर भोगूंगा तो कर्म नहीं छोड़ेगा तातैं दोऊ लोकका बिगाड़नेवाला कायरपनाकूं धिक्कार होहू कर्मका नाश करनेवाला धैर्य ही धारण करना श्रेष्ठ है। अर हे आत्मन् ! तुम रोग आए एते कायर होते हो सो विचार करो नरकनिमैं यो जीव कौन कौन त्रास भोगी असंख्यात बार अनंत बार मारे बिदारे चीरे फाड़े गये हो इहां तो तुमारै कहा दुःख है अर तिर्यंच गतिके घोर दुःख भगवान ज्ञानी ६ वचनद्वारकरि कहनेकूं समर्थ नाहीं अर मैं तिर्यच हू पर्याय मैं पूर्वै अनंतबार अग्निमैं बलि बलि मरचा हूँ अर अनंत बार जलमैं डूवि डूब मरया हूँ अनंत बार सिंह व्याघ्र सर्पादिकनिकरि बिदारया गया हूँ शस्त्रनिरि छेद्या गया हूँ अनंत बार शीतवेदनाकरि मरया
अनंतबार उप्णवेदनाकरि मरचा हूँ अनंत बार क्षुत्रा की वेदनाकरि मरचा हूँ अब यह रोगजनित वेदना केतीक है ? रोग ही मेरा उपकार
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२८ ]
दिगम्बर जैन । करै है। रोग नहीं उपजता तो देहत मेरा स्नेह नहीं घटता अर समस्ततें छूटि परमात्माका शरण नहीं ग्रहण करता तातैं इस अवसरमैं जो रोग है सोहू मेरा आराधनामरणमैं प्रेरणा करनेवाला मित्र है ऐसे विचारता ज्ञानी रोग आये क्लेश नहीं करै है, मोहके नाश करनेका उत्सव ही मानै है ।। १२ ॥
ज्ञानिनोऽमृतसङ्गाय मृत्युस्तापकरोऽपि सत् ।
आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्पाकविधिर्यथा ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-यद्यपि इस लोकमैं मृत्यु है सो जगतके आतापका करनेवाला है तो इ सम्यग्ज्ञानीकै अमृतसंग जो निर्वाण ताके अर्थि है। जैसे काचा बड़ाकू अग्निमैं पकावना है सो अमृतरूप जलके धारणके अर्थि है जो काचा घड़ा अग्निमैं नहीं पकै तो घड़ामैं जल धारण नाहीं होय है अग्निमैं एक वार पकि जाय तो बहुत काल जलका संसर्ग• प्राप्त होय तैसें मृत्युका अवसरमैं आताप समभावनिकरि एक वार सहि जाय तो निर्वाणका पात्र हो जाय । भावार्थ--- अज्ञानीकै मृत्युका नाम भी परिणाममैं आताप उपजै है जो मैं अब चाल्या अब कैसे जीऊं कहा करूं कौन रक्षा करै ऐसे संतापकौं प्राप्त होय है क्योंकि अज्ञानी तो बहिरात्मा है देहादिक बाह्य वस्तुकू ही आत्मा मानै है अर ज्ञानी जो सम्यग्दृष्टी है सो ऐसा मान है जो आयु कर्मादिकका निमित्ततै देहका धारण है सो अपनी स्थिति
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मृत्युमहोत्सव ।
[ १९ पूर्ण भये अवश्य विनशैगा मैं आत्मा अविनाशी ज्ञानस्वभाव हूं जीर्ण देह छोड़ि नवीनमैं प्रवेश करते मेरा कुछ विनाश नाहीं है ॥१३॥
यत्फलं प्राप्यते सद्भिर्द्रतायासविडंबनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्युकाले समाधिना ॥१४॥
अर्थ, यहां सत्पुरुष हैं ते व्रतनिका बड़ा खेदकरि जिस फलकू प्राप्त होइये है सो फल मृत्युका अवसरमैं थोरे काल शुभध्यानरूप समाधिमरणकरि सुखरौं साधने योग्य होय है। भावार्थजो स्वर्गमैं इंद्रादिक पद वा परंपराय निर्वाणपद पंच महाव्रतादिक घोर तपश्चरणादिककरि सिद्ध करिये है सो पद मृत्युका अवसरमैं जो देह कुटुंबादिमु ममता छोड़ि भयरहित हुवा वीतरागता सहित च्यारि आराधनाका शरण ग्रहण करि कायरता छोड़ि अपना ज्ञायक स्वभावकू अवलंबनकरि मरण करै तो सहन सिद्ध हो तथा स्वर्गलोकेमैं महद्धिक देव होय तहांत आय बड़ा कुलमैं उपजि उत्तम संहननादि सामग्री पाय दीक्षा धारण करि अपने रत्नत्रयकी पूर्णताकू प्राप्त होय निर्वाण जाय है ॥ १४ ॥
अनार्तः शांतिमान्मत्यों न तिर्यम् नापि नारकः । धर्मध्यानी पुरो मत्योऽनशनीत्वमरेश्वरः ॥ १५ ॥
अर्थ,जाकै मरणका अवसरमैं आर्त्त जो दुःखरूप परिणाम नहीं होय अर शांतिमान कहिये रागरहित द्वेषरहित समभावरूप
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दिगम्बर जैन। चित्त हो सो पुरुष तिर्यच नहीं होय नारकी नहीं होय अर जो धर्मव्यानसहित अनशनव्रत धारण करके मेरै सो तो स्वर्गलोकमें इंद्र होय तथा महद्धिक देव होय अन्य पर्याय नहीं पावै ऐसा नियम है । भावार्थ-यो उत्तम मरणको अवसर पाय करिक आराधनासहित मरणमैं यत्न करो अर मरण आवते भयभीत होय परिग्रहमैं ममत्व धारि आत परिणामनिसों मरणकरि कुगतिमैं मत जावो । यो अवसर अनंतभवनिमें नहीं मिलेगा अर मरण छोड़ेगा तातें सावधान होय धर्मध्यानसहित धैर्य धारणकरि देहका त्याग करो ॥ १५ ॥
तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ॥१६॥
अर्थ,--तपका संताप भोगनेका अर व्रतनिके पालनेका अर श्रुतके पढ़नेका फल तो समाधि जो अपने आत्माकी सावधानी सहित मरण करना है। भावार्थ,--हे आत्मन् ! जो तुम इतने काल इंद्रियनिके विषयनिमैं वांछारहित होय अनशनादि तप किया है मो अनंतकालमैं आहारादिकनिका त्यागसहित संयमसहित देहकी ममतारहित समाधिमरणके अर्थि किया है अर जो अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य परिग्रहत्यागादि व्रत धारण किये हैं सो हु समस्त देहादिक परिग्रहमैं ममताका त्याग करि समस्त मनवचनकायतें आरंभादिक त्यागकरि समस्त शत्रु मित्रनिमैं वैर राग छोड़करि उपसर्गमैं धीरता धारणकरि अपना एक
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मृत्युमहोत्सव ।
[A ज्ञायकस्वभावको अवलंबनकरि समाधिमरण करनेके अर्थि किये हैं अर जो समस्त श्रुतज्ञानका पठन किया है सो हू संक्लेशरहित धर्मध्यानसहित होय देहादिकनि” भिन्न आपकू जानि भयरहित समाधिमरणके निमित्त ही विद्याका आराधनकरि काल व्यतीत किया है अर मरणका अवसरमैं हू ममता भय राग द्वेष कायरता दीनता नहीं छोड़ोगे तो इतने काल तप कीने व्रत पाले श्रुतका अध्ययन किया सो समस्त निरर्थक होंयगे तातें इस मरणके अवसरमैं कदाचित् सावधानी मत बिगाड़ो ॥ १६ ॥
अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्पीतिरिति हि जनवादः । चिरतरशरीरनाशे नवतरलाभे च किं भीरुः ॥ १७ ॥
अर्थ--लोकनिका ऐसा कहना है जो जिस वस्तुका अतिपरिचय अतिसेवन हो जाय तिसमैं अवज्ञा अनादर होनाय है रुचि घटि जाय है अर नवीनका संगममैं प्रीति होय है यह बात प्रसिद्ध है अर हे जीव! तू इस शरीरको चिरकालसे सेवन किया अब याका नाश होते अर नवीन शरीरका लाभ होते भय कैसे करो हो भय करना उचित नहीं। भावार्थ,-जिस शरीरकुं बहुतकाल भोगि जीर्ण कर दीना साररहित बलरहित हो गया अर नवीन उज्ज्वल देह धारण करनेका अवसर आया अब भय कैसे करो हो ? जीर्ण देह तो विनसैहीगो इसमें ममता धारि मरण बिगाडि दुर्गतिका कारण कर्मबंध मत करो ॥ १७ ॥
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३२]
दिगम्बर जैन ।
शार्दूलविक्रीडितम् । स्वर्गादेत्य पवित्रनिर्मलकुले संस्मर्यमाणा जनैदत्त्वा भक्तिविधायिनां बहुविधं वाञ्छानुरूपं धनं । भुक्त्वा भोगमहर्निशं परकृतं स्थित्वा क्षणं मण्डले, पात्रावेशविसर्जनामिव मृति सन्तो लभन्ते स्वतः ॥१८॥
अर्थ-ऐसें जो भयरहित होय समाधिमरणमैं उत्साहसहित चार आराधनानिकू आराधि मरण करै है ताकै स्वर्गलोग बिना अन्य गति नहीं होय है स्वर्गनिमैं महर्धिक देव ही होय है ऐसा निश्चय है बहुरि स्वर्गमैं आयुका अंतपर्यंत महासुख भोगि करिकै इस मनुष्यलोकविर्षे पुण्यरूप निर्मल कुलमैं अनेक लोयनिकरि चितवन करते करते जन्म लेय अपने सेवकजन तथा कुटुंब परिवार मित्रादि जननिकू नाना प्रकारके वांछित धन भोगादिरूप फल देय अर पुण्यकरि उपजे भोगनकू निरंतर भोगि आयु प्रमाण थोड़े काल पृथ्वीमंडलमैं संयमादि सहित वीतरागरूप भये तिष्ठ करके जैसै नृत्यके अखाड़ेमें नृत्य करनेवाला पुरुष लोकनिकै आनंद उपजाय निकल जाय है तैसैं वह सत्पुरुष सकल लोकनिकै आनंद उपजाय स्वयमेव देह त्यागि निर्वाणकू प्राप्त होय है ॥ १८ ॥
दोहा । मृत्यु महोत्सव वचनिका, लिखी सदासुखकाम । शुभ आराधन मरण करि, पाउंनिज सुख धाम ॥१॥ उगणीस ठारै शुकल, पंचमि मास अषाढ । पूरण लिखि बांचो सदा, मन धरि सम्यक गाद ॥२॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E निवेदन। सोनासण (प्रांतिन) निवासी गांधी नहालचंद सांकलचंदके पुत्र जुठाभाईका स्वर्गवास सं० 1969 चैत्र वदी 14 को सिर्फ सवा वर्षकी आयुमें हुआ था। उनके स्मरणार्थ शास्त्रदानके लिये कुछ रकम निकाली गई थी। उस रकमसे 'दिगंबरजैन' के ग्राहकोंको 'समाधिमरण' ग्रन्थ उपहारमें देनेकी हमें सूचना मिली थी जिससे यह ग्रन्थ दिगंबर जैन' के ग्राहकोंको नौवें वर्षका छठा उपहारस्वरूप वितरण किया जाता है। आशा है कि ऐसे शास्त्रदानका अनुकरण / हमारे अन्य भाई भी करेंगे। Serving Jin Shasan प्रकाशक। Printed by *Jain Vijay padia at his Khapatia 016102 qyanmandir@kobatirth.org Published by Moolchand Kigondas Kapadia from Khapatia chakla, Chandawadi-SURAT. For Private and Personal Use Only