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दिगम्बर जैन ।
देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहिं सु या जगमाहीं । मृत्युसमय में ये ही परिजन, सब ही हैं दुखदाई ॥ १४ ॥ यह सब मोह बढ़ावनहारे, जियको दुर्गतिदाता । इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता ॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, माँगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करौ तौ पात्रो संपति तेती ॥ १५ ॥ चौ आराधन सहित प्राण तज, तौ ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकतिमें जावो ॥ मृत्यु कल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मँझारे । ताक पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥ १६ ॥ इस तनमें क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है । तेज कांति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है ।। पाँचों इंद्री शिथल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड़े, समता उर नहिं लावै ॥ १७ ॥ मृत्युराज उपकारी जियको, तनसे तोहि छुड़ावै । नातर या तनं बंदीगृहमें, परयो परयो बिललावै ॥ पुदगलके परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी । यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञानजोति गुणखासी ॥ १८ ॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गललारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ||
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