________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२]
दिगम्बर
एती वस्तु मिली भव भवमें, सम्यक गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहि कीनो। एक बारहू सम्पकयुत मैं, निज आतम नहिं चीनो ॥ जो निजपरको ज्ञान होय तो, मरण समय दुख काँई । देहविनासी मैं निजभासी, जोतिस्वरूप सदाई ॥५॥ विषय कपायनके वश होकर, देह आपनो जानो। कर मिथ्यासरधान हिये बिच, आतम नाहिं पिछानो ॥ यों कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो । सम्यकदर्शन ज्ञान तीन ये, हिरदेमें नहिं लायो॥६॥ अब या अरज कर प्रभु मुनिये, मरणसमय यह माँगों । रोगजनित पीड़ा मत हाऊ, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरणसमय दुखदाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यागद छीजे ॥७॥ यह तन सात कुधातमई है, देखत ही घिन आवै । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्ठा पावै ॥ अति दुर्गध अपावनसों यह, मूरख प्रीति बढ़ावै । देहविनासी यह अविनासी, नित्यस्वरूप कहावै ॥८॥ यह तन जीर्ण कुटीसम आतम, यातै प्रीति न कीजे । नूतन महल मिले जब भाई, तब यामें क्या छीजे ।।
For Private and Personal Use Only