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मृत्युमहोत्सव ।
हो जाय अर जो अन्य परलोकसंबंधी आयुकायादिक उदय आ जाय तदि परलोककू गमन करते आत्माकू शरीरादिक पंचभूत कोऊ रोकनैकू समर्थ नहीं हैं तातें बहुत उत्साहितें चार आराधनाका शरण ग्रहणकरि मरण करना श्रेष्ठ है ॥ ११॥
मृत्युकाले सतां दुःखं यद्भवेद्याधिसंभवं । देहमोहविनाशाय मन्ये शिवमुखाय च ॥ १२॥
अर्थ--मृत्युका अवसरविषै जो पूर्वकर्मका उदयतें विनाशीक दीखै है अर देहका कृतघ्नपणा प्रकट दीखे है तदि अविनाशी पदके अर्थि उद्यमी होय है वीतरागता प्रगट होय है नदि ऐसा विचार उपनै है जो इस देहकी ममताकरि मैं अनंतकाल जन्ममरण नाना वियोग रोग संतापादिक नरकादिक गतिनिमें दुःख भोग अब भी ऐसे दुःग्वदाई देहमें ही फेरि हू ममत्वकरि आपाकू भूलि एकेंद्रियादि अनेक कुयोनिमैं भ्रमणका कारण कर्म उपार्जन करनेईं ममता करूं हूं जो अब इस शरीरमैं ज्वर काम श्वास शूल वात पित्त अतीसार मंदाग्नि इत्यादिक रोग उपदें हैं सो इस देहमैं ममत्व घटावनेके अर्थि बड़ा उपकार करें हैं धर्ममें सावधानता करावें हैं। जो रोगादिक नहीं उपजता तो मेरी ममता हु देहतें नहीं घटती अर मद ह नहीं घटता, मैं तो मोहकी अंधेरीकरि आंधा हुवा आत्माकू अजर अमर मान रह्या था सो अब यो रोगनिकी उत्पत्ति मोकू चेत कराया अब इस देहकू अशरण
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