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दिगम्बर जैन । जानि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपही• एक निश्चय शरण जानि आराधनाका धारक भगवान परमेष्ठीकू चित्तमैं धारणकरूं हूं। अब इस अवसरमैं हमारे एक जिनेंद्रका वचनरूप अमृत ही परम
औषधि होइ , जिनेंद्रका वचनामृत विना विषयकपायरूप रोगजनित दाहके मेटने कोऊ समर्थ नाहीं। बाह्य औषधादिक तो असाता कर्मके मंद होते किंचित् काल कोऊ एक रोगळू उपशम करै अर यो देह अनेक रोगनिकरि भरया हुवा है अर कदाचित् एक रोग मिट्या तो इ अन्य रोगजनित घोर वेदना भोगि फेरि इ मरण करना ही पड़ेगा तातें जन्मजरामरणरूप रोगकू हरनेवाला भगवानका उपदेशरूप अमृतहीका पान करूँ अर औषधादि हजारां उपाय करते हू विनाशीक देहमैं रोग नहीं मिटैगा तातै रोग” आति उपजाय कुगतिका कारण दुर्ध्यान करना उचित नहीं। रोग आवते इ बड़ा हर्ष ही मानो जो रोगहीके प्रभावतें ऐसा जीर्ण गल्या हुवा देहः मेरा छूटाना होयगा रोग नहीं आवै तो पूर्वकृत कर्म नहीं निर्जरै अर देहरूप महा दुर्गध दुःखदाई बंदीगृहत मेरा शीघ्र छूटना हू नहीं होय अर यो रोगरूप मित्रको सहाय ज्यों ज्यों देहमैं बधै है त्यों त्यों मेरा रागबंधनतें अर कर्मबंधननै अर शरीरबंधनतें छूटना शीघ्र होय है अर यो रोग तो देहमैं है इस देहकू नष्ट करैगा मैं तो अमूर्तिक चैतन्यस्वभाव अविनाशी हूं ज्ञाता हूं अर जो यो रोगन
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