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दिगम्बर जैन । मेरे गया अब कौनका शरण ग्रहण करूँ कैसे जीऊँ ऐसे महा संक्लेश करि मरे हैं अर जे आत्मज्ञानी हैं तिनकै मृत्यु आये ऐसा विचार उपनै है जो मैं देहरूप बंदीगृहमैं पराधीन पड्या हुवा इंद्रियनिके विषयनिकी चाहनाकी दाह करि अर मिले विषयनिकी अतृप्तिताकरि अर नित्य ही क्षुधा तृषा शीत उष्ण रोगनिकरि उपजी महा वेदना तिनकरि एक क्षण इ थिरता नहीं पाई, महान दुःख पराधीनता अपमान घोर वेदना अनिष्टसंयोग इष्टवियोग भोगता महा संक्लेशते काल व्यतीत किया अब ऐसें क्लेश छुड़ाय पराधीनतारहित मेरा अनंतसुखस्वरूप जन्ममरणरहित अविनाशी स्थानकू प्राप्त करनेवाला यह मरणका अवसर पाया है यो मरण महासुखको देनेवालो अत्यंत उपकारक है अर यो संसारवास केवल दुःखरूप है यामैं एक समाधिमरण ही शरण है और कहूं ठिकाना नहीं है इस बिना च्यारों गतिनिमैं महा त्रास भोगी है अब संसारवासनै अति विरक्त मैं समाधिमरणका शरण ग्रहण करूँ ॥ १० ॥
पुराधीशो यदा याति सुकृतस्य बुभुत्सया । तदासौ वार्यते केन प्रपञ्चैः पाश्वभौतिकैः ॥ ११ ॥
अर्थ--जिस कालमैं यो आत्मा अपना कियाका भोगनेकी इच्छाकरि परलोककू जाय है तदि पंचभूत संबंधी देहादिक प्रपंचनिकरि याकू कौन रोकै ? भावार्थ--इस जीवका वर्तमान आयु पूर्ण
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