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दिगम्बर जैन । करै है। रोग नहीं उपजता तो देहत मेरा स्नेह नहीं घटता अर समस्ततें छूटि परमात्माका शरण नहीं ग्रहण करता तातैं इस अवसरमैं जो रोग है सोहू मेरा आराधनामरणमैं प्रेरणा करनेवाला मित्र है ऐसे विचारता ज्ञानी रोग आये क्लेश नहीं करै है, मोहके नाश करनेका उत्सव ही मानै है ।। १२ ॥
ज्ञानिनोऽमृतसङ्गाय मृत्युस्तापकरोऽपि सत् ।
आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्पाकविधिर्यथा ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-यद्यपि इस लोकमैं मृत्यु है सो जगतके आतापका करनेवाला है तो इ सम्यग्ज्ञानीकै अमृतसंग जो निर्वाण ताके अर्थि है। जैसे काचा बड़ाकू अग्निमैं पकावना है सो अमृतरूप जलके धारणके अर्थि है जो काचा घड़ा अग्निमैं नहीं पकै तो घड़ामैं जल धारण नाहीं होय है अग्निमैं एक वार पकि जाय तो बहुत काल जलका संसर्ग• प्राप्त होय तैसें मृत्युका अवसरमैं आताप समभावनिकरि एक वार सहि जाय तो निर्वाणका पात्र हो जाय । भावार्थ--- अज्ञानीकै मृत्युका नाम भी परिणाममैं आताप उपजै है जो मैं अब चाल्या अब कैसे जीऊं कहा करूं कौन रक्षा करै ऐसे संतापकौं प्राप्त होय है क्योंकि अज्ञानी तो बहिरात्मा है देहादिक बाह्य वस्तुकू ही आत्मा मानै है अर ज्ञानी जो सम्यग्दृष्टी है सो ऐसा मान है जो आयु कर्मादिकका निमित्ततै देहका धारण है सो अपनी स्थिति
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