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मृत्युमहोत्सव ।
[ १९ सर्वदुःखप्रदं पिण्डं दूरीकृयात्मदर्शिभिः । मृत्युमित्रप्रसादेन प्राप्यन्ते सुखसम्पदः ॥६॥
अर्थ--आत्मदर्शी जे आत्मज्ञानी हैं ते मृत्युनाम मित्रका प्रसादकरि सर्व दुःखका देनेवाला देहपिंडनूं दूर छांडकरि सुखकी संपदाकू प्राप्त होय हैं। भावार्थ-जो इस सप्तधातुमय महा अशुचि विनाशीक देहळू छोड़ि दिव्य वैक्रियक देहमैं प्राप्त होय नाना सुख संपदाकू प्राप्त होय है सो समस्त प्रभाव आत्मज्ञानीनिकै समाधिमरणका है समाधिमरण समान इस जीवका उपकार करनेवाला कोऊ नहीं है इस देहमैं नाना दुःख भोगना अर महान रोगादि दुःख भोगि करि मरना फिर तिर्यंच देहमैं तथा नरकमैं असंख्यात अनंतकालतांई असंख्यात दुःख भोगना अर जन्ममरणरूप अनंत परिवर्तन करना तहां कोऊ शरण नाहीं । इस संसार परिभ्रमणसों रक्षा करने• कोऊ समर्थ नाहीं है कदाचित् अशुभकर्मका मंद उदयतें मनुष्यगति उच्चकुल इंद्रियपूर्णता सतपुरुषनिका संगम भगवान् जितेन्द्रका परमागमका उपदेश पाया है। अब जो श्रद्धान ज्ञान त्याग संयमसहित समस्त कुटुंब परिग्रहमैं ममत्वरहित देहते भिन्न ज्ञाकस्वभावरूप आत्माका अनुभवकरि भयरहित च्यार आराधनाका शरण सहित मरण हो जाय तो इस समान त्रैलोक्यमैं तीन कालमैं इस जीवका हित है नाहीं। जोसंसार परिभ्रमण छूट जाना सो समाधिमरण नाम मित्रका प्रसाद है ॥६॥
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