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१८]
दिगम्बर जैन ।
रेमैं कर्मरूप शत्रुकरिपटक्या मैं इंद्रियनिके आधीन हुवा नाना त्रास सहूँ हूं नित्य ही क्षुधा अर तृषाकी वेदना त्रास देवै है अर सासती स्वास उच्छ्वासकी पवनका खेचना अर काढ़ना अर नाना प्रकारके रोगनिका भोगना अर उदर भरनै वास्तै नाना पराधीनता अर सेवा कृषि वाणिज्यादिकनिकरि महा क्लेशित होय रहना अर शीत उष्ण दुष्टनि करि ताड़न मारन कुवचन अपमान सहना कुटुंबके आधीन होना धनकै राजाकै स्त्री पुत्रादिककै आधीन रहना ऐसा महान् बंदीगृह समान देह मैं तैं मरण नाम बलवान राजा विना कौन निकासे? इस देहकूं कहां तांई बाहता जाकूं नित्य उठावना बैठावना भोजन करावना जल पावना स्नान करावना निद्रा लिवावना कामादिक विषयसाधन करावना नाना प्रकारके वस्त्र आभरणादिकरि भूषित करना रात्रि दिन इस देहहीका दासपना करता हूं आत्माकूं नाना त्रास देवें है भयभीत करै है आपा भुलावै है ऐसा कृतघ्न देहतैं निकसना मृत्यु नाम राजा विना नहीं होय जो ज्ञानसहित देहसों ममता छांड़ि सावधानी धर्मध्यानसहित संक्केशरहित वीतरागतापूर्वक जो समाधिमृत्यु नाम राजाका सहाय ग्रहण करूं तो फेरि मेरा आत्मा देह धारण ही नहीं करै दुःखनिका पात्र नहीं होय समाधिमरण नामा बड़ा न्यायमार्गी राजा है मोकूं याहीका शरण होहू मेरे अपमृत्यका नाश होहु ॥ ५ ॥ और ह कहै हैं—
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