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दिगम्बर जैन ।
असाताका उदय भोगिये है सो मरण नाम उपकारी दाता विना ऐसी असाताकं दूर कौन करै अर जे सम्यग्ज्ञानी हैं तिनकै तो मृत्यु होनेका बड़ा हर्ष है जो अब संयम व्रत त्याग शीलमैं सावधान होय ऐसा यत्न करै जो फेरि ऐसे दुःखका भरया देहेको धारण नहीं होय? सम्यग्ज्ञानी तो याहीकू महा शाताका उदय माने
मुखं दुःखं सदा वेनि देहस्थश्च स्वयं व्रजेत् । मृत्युभीतिस्तदा कस्य जायते परमार्थतः ॥९॥
अर्थ--यो आत्मा देहमैं तिष्ठतो हू सुखकू तथा दुःखकू सदा काल जान ही है अर परलोकप्रति हु स्वयं गमन करै है तो परमार्थतें मृत्युका भय कौनकै होय। भावार्थ--जो अज्ञानी बहिरात्मा है सो तो देहमैं तिष्ठता हु मैं सुखी मैं मरूं हूं मैं क्षुधावान मैं तृषावान मेरा नाश हुआ ऐसा मान । अर अंतरात्मा सम्यग्दृष्टी ऐसै मान है जो उपज्या है सो मरेगा पृथ्वीजलअग्निप वनमय पुद्गलपरमाणुनिके पिंडरूप उपज्यो यो देह है सो विनशैगो। मैं ज्ञानमय अमूर्तीक आत्मा मेरा नाश कदाचित् नहीं होय । ये क्षुधातृषावातपित्तकफादिरोगमय वेदना पुद्गलकै हैं मैं इनका ज्ञाता हूं मैं यामैं अहंकार वृथा करूं हूं। इस शरीरकै अर मेरे एक क्षेत्रमैं तिष्ठनेरूप अवगाह है तथापि मेरा रूप ज्ञाता है अर शरीर जड़ है,
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