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समाधिमरण ।
[१३ दुख दीने, ते सब बकसो भाई ॥५॥ धन धरती जो मुखसो मांगै, सो सबही संतोषै । छहौं कायके प्राणी ऊपर, करुणाभाव विशेषै ॥ ऊँच नीच घर बैठ जगह इक, कछ भोजन कछु पैले । दूधाहारी क्रम क्रम तजिकै, छांछ अहार पहेले ॥ ६॥ छांछ त्यागके पानी राखे, पानी ताज संथारा । भूमिमाहि थिर आसन माई, साधर्मी लिंग प्यारा ||जब तुम जानो यह न जपै है, तब जिनबानी पढ़िये । यो कहि मौन लियौ सन्यासी, पंच परम गद गहिये ॥७॥ चौ आराधन मनमें ध्यावै, बारह भावन भावै । दशलक्षण मन धर्म विचार, रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैतीस सोलह षट पन चौ दुइ, एक बरन बिचारै । काया तेरी दुखकी ढेरी, ज्ञानमई तू सारै ॥ ८॥ अजर अमर निज गुणसों पूरै, परमानन्द सुभावै । आनँद कन्द चिदानँद साहब, तीन जगतपति ध्यावे ॥ क्षुधा तृषादिक होइ परीपह, सहै ‘भाव सम राखे । अतीचार पाँचों सब त्याग ज्ञान सुधारस चाखै ॥९॥ हाड़ मांस सब सूखी जाय जब, धरम लीन तन त्यागै,। अदभुत पुण्य उपाय सुरगमै, सेज उठै ज्यों जागै ॥ तहँतै आवै शिव पद पावै, बिलसै सुक्ख अनन्तो। 'द्यानत' यह गति होय हमारी, जैन धरम जयवन्तो ॥१०॥
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