Book Title: Namaskar Mantrodadhi
Author(s): Abhaychandravijay
Publisher: Saujanya Seva Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W EिMS -L-02 Cocon नमस्कार मंत्रोदधि सम्पादक महामना मानवतावादी सन्त शिरोमणी मुनिराज श्री अभयचन्द्रविजयजी महाराज प्रकाशक सौजन्य सेवा संघ 306/3 मिन्ट स्ट्रीट, मद्रास-600003 मुद्रक सज्जन प्रिन्टिग प्रेस त्रिपोलिया बाजार, जोधपुर-342001 मूलक: ०० रु० Scanned by CamScanner Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. ME5272 श्री नवकार महामन्त्र ॐ नमः सिद्धभ्यः ॐ नमः पञ्च परमेष्टिभ्यो नमः श्री नवकार महामन्त्र कल्प लिख्यते । आत्म शुद्धि मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं नमो अरिहन्ताणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो आयरियाणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो उवझायारणं ॥ ॥ॐ ह्रीं नमो लोए साहूरणं ॥१॥ मन्त्र का जाप करने वाले को प्रथम आत्म शुद्धि के लिए उपर लिखे हए मंत्र का एक हजार आठ जाप कर लेना चाहिये बाद में प्रवेश करना । ॥ इन्द्राह्वानन मंत्र ॥ ॥ॐ ह्रीं वज्राधिपतये आँ हाँ ए हूँ ह्रौं श्रूह क्षः ॥२॥ इस मन्त्र का इक्कीस बार जाप्य करके प्राण प्रतिष्ठा करना ___ चाहिये और बाद में इसी मन्त्र द्वारा निज़ की चोटि (शिखा) Scanned by CamScanner Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ( २ ) जनेऊ (उत्तरा सङ्ग) कङ्करण, कुण्डल, अंगूठी व कपड़े प्रादि को मन्त्रित करके सर्व सामग्री को शुद्ध करना चाहिये। ॥ कवच निर्मल मंत्र ॥ ॥ ॐ ह्रीं श्री वद वद वाग्वादिन्यै नमः स्वाहा ॥३॥ इस मन्त्र द्वारा कवच को निर्मल करना चाहिये । ॥ हस्त निर्मल मंत्र । ॥ ॐ नमो अरिहंतारणं श्रुतदेवी प्रशस्त हस्ते हूं फट् स्वाहा ॥ ४॥ इस मन्त्र द्वारा निज के हाथों का धूप के धूवें पर रख कर निर्मल करना चाहिये। ॥काय शुद्धि मंत्र ।। ॐ णमो ॐ ह्रीं सर्वपाप क्षयंकरी ज्वाला सहस्र प्रज्वलिते मत्पापं जहि जहि दह दह क्षा क्षीं हूं क्षौं क्षः क्षीरध्वले अमृत संभवे बधान बधान हू. फट् स्वाहा ॥५॥ इस मंत्र द्वारा शरीर को शुद्ध बनाना चाहिये और अन्तः करण को भी निर्मल रखना, जिससे तत्काल सिद्धि होगी। ॥ हृदय शुद्धि मन्त्र ।। ॐ ऋषभेण पवित्रेण पवित्रोकृत्य आत्मानं पुनिमहे स्वाहा ॥६॥ इस मन्त्र द्वारा हृदय-अन्तः करण को शुद्ध करना चाहिये । ईर्ष्या, द्वेष, कुविकल्प, क्रोध, मान, माया, लोभ का त्याग करना, मिथ्या नहीं बोलना इत्यादि कामों से दूर रहना। Scanned by CamScanner Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) ।। मुख पवित्र कररण मंत्र ॥ ॐ नमो भगवते झीँ ह्रीं चन्द्रप्रभाय चन्द्र महिताय चन्द्र मूर्त्तये सर्व सुख प्रदायिन्यै स्वाहा ॥ ७ ॥ इस मन्त्र द्वारा निज के मुख कमल को पवित्र बनाना, गम्भीरता, सरलता, नम्रता आदि का भाव धारण करना । ॥ चक्षु पवित्र करण मंत्र ॥ ॐ ह्रीं क्षीं महामुद्र कपिलशिखे हां फट् स्वाहा ॥ ८ ॥ इस मन्त्र द्वारा निज के नेत्रों को पवित्र करना और नेत्रों में स्नेह भाव सरलता का प्रकाश हो इस प्रकार नेत्र शुद्धि करना ! || मस्तक शुद्धि मंत्र ॥ ॐ नमो भगवती ज्ञान मूत्तिः सप्त शत क्षुलकादि महाविधाधिपतिः विश्व रूपिणी ह्रीं ह्र क्षीं क्षाँ ॐ शिरस्त्रारण पवित्रों करणं ॐ गमो अरिहंताणं हृदयं रक्षरक्ष ह्र. फट् स्वाहा ॥ ६ ॥ इस मन्त्र द्वारा मस्तक निर्मल करना और शुद्ध हृदय से यथा साध्य आराधन करना जिससे मन्त्र तत्काल सिद्ध होता है । ।। मस्तक रक्षा मंत्र ॥ ॐ गमो सिद्धाणं हर हर विशिरो रक्ष रक्ष ह्रीं फट् स्वाहा ।। १० ।। इस मन्त्र द्वारा मस्तक रक्षा की भावना भायी जाय । || शिखा बन्धन ' मंत्र ॥ ॐ गमो प्रायरियागं शिखां रक्ष हौं फट् स्वाहा ।। ११ ।। Scanned by CamScanner Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) इस मन्त्र द्वारा शिखा को पवित्र करके बाँधना चाहिये. बांधते समय गांठ न देना यूही लपेटना और स्थिर कर देना। _ ॥ मुख रक्षा मंत्र । ॐ रगमो उवज्झायारणं एहि एहि भगवति वज्रकवचं वज़िरिण रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा ॥ १२ ।। इस मन्त्र द्वारा मुख के तमाम अवयवों की रक्षा भावना भायी जाय । ॥ इन्द्रस्य कवच मंत्र ॥ ॐ गमो लोए सव्व साहूरणं क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनि दुष्टं रक्ष रक्ष आत्मानं रक्ष रक्ष ह्रफट् स्वाहा ।। १३ ।। इस मन्त्र द्वारा देव भय व अन्य कोई उपद्रव उपस्थित न होने की भावना भायी जाय। .... ... - ॥परिवार रक्षा मंत्र ।।.. ॐ अरिहय सर्व रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा ॥१४॥ इस मंत्र द्वारा कुटुम्ब-परिवार की रक्षा के लिए प्रार्थना करना जिससे मंत्र साध्य समय में कौटम्बिक उपद्रव उपस्थित न हो और मंत्र साधना निर्विघ्नतया सिद्ध हो सके । ॥ उपद्रव शांति मन्त्र । ॐ ह्रीं क्षों फट् स्वाहा, किटि किटि घातय घातय परं विघ्नान्छिन्द्धि-छिन्द्धि परं मंत्रान् भिन्द्धि भिन्द्धि क्षःफट् स्वाहा ॥१५॥ - 26 Scanned by CamScanner Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. ( ५ ) इस मन्त्र द्वारा मन्त्र साधने में दूसरों की ओर से मन्त्र बल से किसी प्रकार का कष्ट आने वाला हो तो वह रुक जाता है | अतः सर्व दिशा के सर्व प्रकार के उपद्रवादि को रोकने के हेतु इस मन्त्र का जाप करना चाहिये, और बाद में सकली करण करके विधी सहित जाप किया जाय तो अवश्य कार्य सिद्ध होगा । पन्च परमेष्टि मन्त्र । ।। ॐ . सि. प्रा. उ. सा. नमः ।। १६॥ इस पञ्च परमेष्टि जाप्य का मुद्रा सहित ध्यान करे तो मनोवान्छित फल की प्राप्ति होती है । यह महा कल्याणकारी मन्त्र है । इसमें अनेक प्रकार की सिद्धियां समाई हुई हैं । जो कर्म क्षय करने के निमित्त इस मन्त्र का ध्यान करते हैं उनको आवृत से करना चाहिये. और इसी तरह शङ्खावृत विधी से जाप करने का भी बहुत माहात्म्य बताया है। जो शङ्खावृत्त विधी से जाप करते हैं उनको शाकिनि, डाकिनी, भूत, प्र ेत आदि से भय - उपद्रव प्राप्त नहीं होता । शङ्खावृत को मध्यमा उङ्गली के बीच के पेरवें से गिनना चाहिये जिसकी समझ शङ्खावृत्त चित्र में दी गई है। जहां एक का अङ्क है वहीं से शुरुआत करना और बारह के श्रङ्को तक गिनना, फिर एक अङ्क से जारी करना । इस तरह नौ वख्त गिनने कमाल पूरी हो जाती है, और शङ्खावृत से गिनने वाला उत्कर्ष स्थिति को पहुंचता है महारक्षा सर्वोपद्रव शांति मन्त्र । || नमो अरिहन्ताणं शिखायां ।। ॥ नमो सिद्धाणं मुखावरणे ॥ || नमो आयरियाणं श्रङरक्षायां ॥ Scanned by CamScanner Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो उवन्झायाणं आयुद्धे । ॥ नमो लोए सव्वसाहूणं मौर्वीए । ।। एसो पञ्च नमुक्कारो पादतले ॥ ।। वज्र शिला सव्व पावप्परगासणो ॥ ॥ वज्र मय प्राकारं चतुर्दिक्ष मंगलाणंच ।। ॥ सव्वेसिखदिराङ्गारखातिका पढम हवा मङ्गलं ॥ ॥ प्रकारो परि वज्रमय ढाकणं ।। १७ ।। , सकली करण करके ध्यान करना चाहिये जिससे सर्व प्रकार के विघ्न शान्त हो जाय और इच्छित फल प्राप्त हो । महामन्त्र। ॐ गमो अरिहन्ताणं, ॐ हृदयं रक्ष रक्ष हू. फट् स्वाहा ।, ॐ गमो सिद्धाणं ह्रीं शिरो रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । ॐ गमो पायरियाणं है. शिखां रक्ष रक्ष ह. फट् स्वाहा ।। ॐणमो उवज्झायाणं ह्र एहि एहि भगवति वज्रकवचे " वज्रपाणि रक्ष रक्ष है. फट् स्वाहा । ॐ णमो लोए सव्व साहूणं ह्रः । क्षिप्रं साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनि दुष्टान् रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा । एसो पञ्च नमुक्कारो वज्रशिलाप्राकारः सव्व पावप्परगासरणो अमृतमयो परिखा। मंगलारणंच सवेसि महा वज्राग्नि प्राकारः पढमं हवइ मङ्गलम् ॥ १८ ॥ Scanned by CamScanner Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) आत्म रक्षा, अथवा कर्म क्षय निमित्तादि में यह मन्त्र अत्यन्त चमत्कारी है । मनो वाञ्छना पूर्ण करने वाला व सर्व प्रकार को ऋिद्धि सिद्धि को देने वाला है। ॥ वशीकरण मन्त्र (१) ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो अरिहन्ताणं ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं ॥ ।। ॐ ह्रीं नमो आयरियाणं ॥ ।। ॐ ह्रीं नमो उवझायाणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नवो लोए सव्व साहूणं ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो गाणस्स ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो दंसरणस्स ॥ ॥ अमुकंमम वशीकुरुकुरु स्वाहा ।।१६।। इस मन्त्र को साध्य करने के बाद जिसको आधीन करना हो "अमुकं" के बजाय नाम लेकर जाप्य किया जाय सवालक्ष जाप्य पूर्ण होने पश्चात् इक्कीस बार जाप्य करे और प्रति जाप्य वस्त्रे या पघडी के पल्ले ग्रन्थी(गांठ) देते जांय तो कार्य की सिद्धि होती है। ॥ वशीकरण मन्त्र (२) ।। ॥ ॐ नमो अरिहन्तारणं ॥ ॥ ॐ नमो सिद्धारणं ॥ ॥ ॐ नमो आयरियारणं ।। ॥ ॐ नमो उवज्झायारणं ।। ॥ ॐ नमो लोए सव्व साहूणं ।। Scanned by CamScanner Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) ॥ ॐ नमो नारणस्स ॥ ॥ ॐ नमो दंसणस्स ।। ।। ॐ नमो चारितस्स ॥ ॥ ॐ ह्रीं त्रेलोक्य वशंकरी ॥ ।। ह्रीं स्वाहा ।। २० ।। कार्य सकली करण करके इस मन्त्र को साध्य करने बाद जलादि मन्त्रित करके पीलाने से प्रयोजन सिद्ध होता है । लेकिन के हेतु यह मन्त्र काम में न लिया जाय समकितवन्त प्राणी को कार्य की तरफ ही दृष्टि रखना चाहिए । Scanned by CamScanner || वशीकरण मन्त्र (३) ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो लोए सव्व साहूणं ।। २१ ।। इस मन्त्र को सिद्ध कर उत्तर क्रिया में ए ह्रीं के साथ जाप्य करके वस्त्रे ग्रन्थी देता जाय और ।। १०८ ।। बार ग्रन्थी को शिला - पर फटकारता जाय तो कार्य सिद्ध होता है । वस्त्र नया और शुद्ध होना चाहिये । || बन्दीगृह मुक्त मन्त्र ॥ 1 || हुसाव्वस एलोमोर ॥ || गंयाज्भावउ मोरण | || गंयारियआ मोरण || ॥ द्धासि मौर ॥ ॥ संतारित्र मोरण || २२ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (&) इस मन्त्र को विपर्यास कहते हैं, इसको सिद्ध करने बाद जाप किया जाय तो बन्दी खाने से तत्काल मुक्त होता है । चित्त स्थिर रख कर जाप्य करे तो सिद्धि होती है ॥ सङ्कटमोचन मन्त्र ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो अरिहन्ताणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं ॥ ॥ ॐ ह्रीं नमो आयरियाणं ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो उवज्झायाणं ।। ॥ ॐ ह्रीं नमो लोए सव्व साहूणं ॥ इस मन्त्र का साढ़े बारह हजार जाप्य करे और बाद में नवाक्षरी मन्त्र का जाप करे सो बताते हैं । || || नवाक्षरी मन्त्र ||T FITT ॐ ह्रीं नमः श्रहं क्षीं स्वाहा ॥ २४ ॥ इस मन्त्र का उच्चार रहित जाप करे तो दुष्ट, तस्कर आदि भय मिट जाता है, और अनावृष्टि अथवा प्रतिवृष्टि में भी इस मन्त्र का उपयोग करे तो चमत्कार बताने वाला है । महा भय के समय या मार्ग में चोरादि भय निवार्ण के लिये इसका जाप्य करता जाय और चारों दिशा में फूंक देता जाय तो भय मिट जाता है । ॥ सर्व सिद्धि मन्त्र ॥ 11 ॐ अरिहन्त सिद्ध प्रायरिय उवज्झायः सव्वसाहू, सव्वधम्मतिथ्यय राणं, ॐ नमो भगवइए, सुयदेवयाए, संति देवयाणं, सव्वं पवयंरण देवाणं, पञ्चलोगपालाणं ॐ ह्रीं अरिहन्त देवं नमः ।।२५।। 1 Scanned by CamScanner Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) इस मन्त्र को साध्य करने के लिये देवस्थान या अन्यत्र और भूमि हो वहां बैठना चाहिये, और सिद्ध करने के बाद यह सर्व कार्य में सिद्धिदायक होता है । कठिन कार्य के समय विधि सहित जाप करने से कष्ट मिटता है, और सात बार मन्त्र बोल कर वस्त्र के गांठ लगाता जाय तो तत्काल चमत्कार बताता है। व्याघ्रादि हिन्सक प्राणी का या अन्य प्रकार का भय उपस्थित हुवा हो तो नष्ट हो जाता है । ॥ वैरनाशाय मन्त्र ॥ ॥ पंहुसाव्वस एलो मोण ॥ । ॥ णंयाज्झावउ मोरण ॥ ॥ यारिया मोरण ॥ ॥ पंडासि मोरण ॥ ॥ एताहरिप्र मोरण ॥२६॥ इस विपर्यास मन्त्र का कथन पहले कर चुके । लेकिन विधान दूसरा होने से फिर उल्लेख किया जाता है । इस मन्त्र का सवा लक्ष जाप्य विधी सहित करने बाद चतुर्थी अथवा चतुर्दशी के दिन साधना करे, और सिद्धि क्रिया के बाद परमेष्टि नमस्कार करके धूल की चिहूंटी भर कर प्रक्षेप करने से वैरभाव-शत्रुता मिट जाती है, और परस्पर प्रेमभाव बढता है। ॥मन चिन्तित फलदाता मन्त्र ।। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रह्रौं ह्रःप्र. सि.पा. उ. सा. नमः ॥२७॥ - इस मन्त्र की एक माला प्रतिदिन फेरना चाहिये जो इसका आराधन करेंगे उनको मन चिंतित फल की प्राप्ति होगी, लेकिन सिद्धि अवश्य कर लेना चाहिये । बिना सिद्धि किये मन्त्र फल नहीं देते। Scanned by CamScanner Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। लाभदायक मन्त्र ॥ ॥ॐ नमो अरिहन्तारणं ॥ ।। ॐ नमो सिद्धारणं ॥ ॥ ॐ नमो प्रायरियारणं ॥ ॥ ॐ नमो उवज्झायारणं ॥ ॥ ॐ नमो लोए सव्व साहूरणं । ॥ ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हौ हः स्वाहा ।। इस मन्त्र को पटनावृत से गिनना चाहिये उङ्गलीयों पर प्रावृत्त से भी गिन सकते हैं । उच्चार रहित जाप किया जाय और स्थिर चित्त से किया जाय तो लाभदाई है। प्रावृत का चित्र पजे में दिया है, सो "माला व प्रावृत्त विचार" के प्रकरण में देख लेना। - पटनावृत्त के लिये ऐसा भी सुना है कि प्रथम पद ब्रह्मरन्ध्र में, दूसरा ललाट, तीसरा कण्ठ-पिञ्जर,चौथा हृदय में और पांचवां नाभी कमल में स्थित कर इस मन्त्र का ध्यान करे। दूसरी तरकीब पटनावृत की यह है कि, ब्रह्मरन्ध्र, ललाट, चक्षु, श्रवण और पाचवां मुख इन पर ध्यान लगावे। १ परमा ११ ॥ अङ्गरक्षा मन्त्र पढम हवह मंगल बज्रमयो ........... शिला मस्तकोपरि, नमो परिहन्तारणं अंगुष्ठये "नमो सिदार तर्जन्या, Scanned by CamScanner Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) नमो आयरियारणं मध्यमयोः नमो उवझायारणं अनामिकयो, ।। नमो लोए सव्वसाहरणं कनिष्टकयोः एसोपञ्च नमुक्कारो वज्रमयं प्राकारं सव्व पावप्पणासरणो जल भृतां । खातिकां, मङ्गलाणंच सवेस्सिं ।। .: खदिराङ्गारपूर्णी खांतिकां, प्रात्मानं निश्चिन्त्य महाशकली करणं ॥२६॥ . - इस मन्त्र का विधान हमारे समझ में बराबर नहीं पाया अतः गुरूगम में जानना चाहिये । इसमें सकली करण भी पा गया है। ॥अनुपम मन्त्र ॥ ॐह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रप्र.सि.पा उ. सा. स्वाहा ॥३०॥ . यह मन्त्र अनुपम है, चित्त स्थिर रख कर कार्य शुद्धि कर विधि सहित साध्य करे तो अनुपम फलदाता सर्व सिद्धि दायक यह मन्त्र है। राम का ॥ सर्व कार्य सिद्धि मन्त्र ।। । ॐ ह्रीं श्री अहं प्र.सि. आ. उ. सा नमः ॥३१॥ यह मन्त्र सर्व कार्य की सिद्धि करने गला है । शुद्धोच्चार पूर्वक स्थिर चित्त से आराधन किया जाय बहुत आनन्ददायक है । बन्दीमुक्त मन्त्र TIME ॐ नमो अरिहन्ताणं जम्ल्य्यू निमः ॐ नमो सव्व सिद्धाण इल्ब्यूनमः Scanned by CamScanner Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) ॐ नमो पायरियाणं रम्ल्यूं नमः ॐ नमो उवझायाणं हम्ल्य्यू नमः ॐ नमो लोएसव्वसाहूणं नव्य्यू नमः अमुकस्य बंदिनो मोक्षं कुरु कुरु स्वाहा ।।३२॥ इस मन्त्र को साधन करते समय पट्ट पर यह मन्त्र अष्टगन्ध से लिखना, पट्ट सोने का हो, चांदी का, या तांबे का जैसी शक्ति हो लेवे । मन्त्र वाले पट्ट को बाजोट (पाटिया) पर स्थापित करे । आलम्बन में श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा अथवा मनमोहक चित्र स्थापित कर सामने बैठे चित्र निजकी नासिका के सामने याने ऐसा मध्य में स्थापित करे कि जो ठीक मध्य ही में आवे, पैठ कर धूप दीप आदि सामग्री जयणा सहितं काम में लेवे तत्पश्चात् पांच सौ पुष्प.सफेद जाई के लेकर एक पुष्प हाथ में लेता जाय और मन्त्र बोलता जाय, और मन्त्र पूर्ण होते ही पुष्प को उर्ध्वस्थिति में मन्त्र के उपर चढाता जाय तो बन्दीवान का तत्काल छुटकारा होता है। बन्दीवान के लिये दूसरा कोई जाप करे तो भी यह मन्त्र काम देता है। बहुत चमत्कारी है । ॥ स्वप्ने शुभाशुभं कथितं मन्त्र ।। ___ मन्त्र नम्बर ३२ जो उपर बता चुके हैं । इसको खड़े खड़े कायोत्सर्ग में स्थित रह कर ध्यान करे और फिर किसी से बोले बिना मौनपने भूमि शैय्या पर पूर्व दिशा की तरफ मस्तक रख कर सो जावे तो स्वपन में शुभाशुभ फल का भास होता हैं। Scanned by CamScanner Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विद्याध्ययन मन्त्र ।। अरिहन्त सिद्ध पायरिय, उवज्झाय सव्व साहू ॥३४॥ इस मन्त्र का जाप करने से विद्याध्ययन में सहायता मिलती है । द्रव्य प्राप्ती व सुख के करने वाला है । ॥आत्मचक्षु परचक्षु रक्षा मंत्र ॥ ___ॐ ह्रीं नमो अरिहन्ताणं पादौ रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं कटिं रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं नमो पायरियाणं नाभि रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं नमो उक्झायाणं हृदयं रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं नमो लोए । सव्वसाहूरणं ब्रह्माण्डं रक्ष रक्ष, ॐ . ह्रीं एसो पञ्च नमुक्कारो शिखां रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं सव्वपावप्पणासपो प्रासनं रक्ष रक्ष, ॐ ह्रीं मङ्गलाणंच . . . सम्बेसिपढमं हवइ मङ्गलं ॥३॥ इस मन्त्र की सिद्धि प्राप्त करने बाद इक्कीस बार जाप करने से कार्य सिद्ध हो जाता है । इसका विशेष स्पष्टीकरण गुरुगम से जानना चाहिये। । पथिक भयहर मन्त्र ।। - ॐ नमो मरिहन्ताणं नाभौ - ॐ नमो सिद्धाणं हृदये,... । ॐ नमो पायरियाणं कण्ठे, . ......... Scanned by CamScanner Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो उवझायाणं मुखे, - ॐ नमो लोए सव्व साहणं मस्तके, विगेषु अम्ह रक्ष रक्ष हिलि हिलि मातङ्गिनीं स्वाहा ।। रक्ष रक्ष ॐ नमो अरिहन्ताणं आदि, ॐ नमो मोहिणी मोहिणी मोहय मोहय स्वाहा ॥३६॥ इस मन्त्र को साध्य करे और रास्ते चलते समय विकट पन्थ में या निजगृह में अथवा अन्यत्र चोरादि उपद्रव उत्पन्न हुवा हो . तत् समय जाप्य करने से उपद्रव शान्त हो जाता है, और भय मुक्त हो जाता है। इसमें शक्ति तो इतनी है कि चोरादि का स्थम्भन हो जाता है , किन्तु ध्याता पुरुष का प्राकर्म हो तब इतनी सिद्धि तक पहुंच सकते हैं । सम्भव है श्री जम्बू स्वामी ने इसी मन्त्र का उपयोग किया हो । ज्ञानी गम्य । ॥ मोहन मन्त्र ।। ॐ नमो अरिहन्ताणं, अरे अरिणि मोहिरिण, अमुकं मोहय मोहय स्वाहा ॥३७॥ . इस मन्त्र को साध्य करते समय षटि क्रिया करके अमुक के नाम सहित जाप करे, और प्रत्येक मन्त्र सफेद पुष्प हाथ में लेकर . बोलता जाय और सामने के मालम्बन पर चढाता जाय तो मोहिनि मंत्र सिद्ध होता है । षटि क्रिया गुरु गम से जानना चाहिये । .5 ॥ दुष्ट स्थम्भन मन्त्र ।। २ ॐ ह्रीं अ. सि. आ. उ. सा. सर्व दुष्टान् स्थम्भय, स्थम्भय, मोहय मोहय, अधंय अंधय मुकय मुकय कुरु कुरु ह्रीं दुष्टान् ठः ठः ठः ॥३८॥ Scanned by CamScanner Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) साध्य करते समय प्रातःकाल मध्यान्ह, और सन्ध्या समय जाप्य करना चाहिये । पूर्व दिशा में मुख रख कर बैठना, और उत्तर क्रिया में ग्यारह सो जाप्य करने से सिद्धि होती है । इसकी साधना में “दलदारभ्यामुमुवे" श्रादि क्रियायें करनी चाहिये सो गुरुगम से ज्ञात करना । ।। व्यन्तर पराजय मन्त्र ॥ नम्बर ३८ वाला मन्त्र जो उपर बता चुके हैं इसी के प्रभाव से व्यन्तर का उपद्रव किसी मकान महल या मनुष्य स्त्री आदि में हो तो केवल ग्यारह सौ जाए विधी सहित करने से उपद्रव मिट जाता है । इसकी साधना में इशान कूरण में मुख रख कर बैठे और आठ रात्रि तक अर्द्ध रात्रि के समय साधना करे तो व्यंतरादि का भय नष्ट हो जाता है । Th TE जीवरक्षा मन्त्र । ॐ नमो अरिहन्तारणं, ॐ नमो सिद्धाणं ॐ नमो आयरियाण ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं, झुलु भुलु कुलु कुलु चुलु चुलु मुलु मुलु स्वाहा ॥४०॥. जीव रक्षा व बन्दीवान को मुक्त कराने के हेतु भुत इस मन्त्र को साध्य करना चाहिये | साध्य करते समय पट्ट पट या थाली तांबे की या सप्त धातु की लेकर प्रष्ट गन्ध से मन्त्र को लिखें और सत्रा लक्ष जाप करने बाद सिद्धि क्रिया में बलिकर्म अर्चनादि विधान बराबर करे तो देव सहायक होते हैं, और जीव रक्षा के समय अमुक संख्या में जाप करने पर विजय होता है। ● A Scanned by CamScanner Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) । ।। सम्पत्त प्रदान मंत्र । ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अ. सि. प्रा. उ. सा. चुलु चुलु हलु हृलु कुलु कुलु मुलु मुलु इच्छियमे कुरु कुरुस्वाहाः ।। ४१।। इस मन्त्र का चौबीस हजार जाप करना चाहिये विधी सहित जाप हो जाने बाद उत्तर क्रिया करना और उत्तर क्रिया के बाद में एक माला नित्य फेरना सर्व प्रकार की सम्पत्ति का लाभ होगा। ॥सरस्वती मन्त्र ॥ ॐ अ. सि. प्रा. उ. सा. नमोहं वाचिनी, सत्यवाचिनी वाग्वादिनी वद वद मम वन व्यक्त वाचया ह्रीं सत्यंथुहि सत्यंथुहि सत्यंवद सत्यंवद अस्खलितप्रचारं तं . देवं मनुजासुरसहसी ह्रीं हैं अ. सि. आ. उ. सा. नमः स्वाहा ।।४२॥ यह मन्त्र सरस्वती देवी की आराधना का है। इस मन्त्र द्वारा "बप्प भट्ट सूरजी" ने सरस्वती को प्रसन्न की थी। इस मन्त्र का एक लाख जाप्य करने से सिद्ध होता है । ॥शांतिदाता मन्त्र । ॐ अर्ह अ. सि. आ. उ. सा. नमः ॥४३।। इस मन्त्र का नित्य स्मरण करने से शान्ति होती है गृह कलह आदि का नाश होता है और सम्पत्ति आती है । ॥ मंगल मन्त्र ।। अ. सि. प्रा. उ. सा. नमः ॥४४॥ यह मन्त्र तुष्टि पुष्टि दाता है नित्य स्मरण करने से सुख की प्राप्ति होती है। Scanned by CamScanner Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) ॥ वस्तु विक्रय मन्त्र ।। नट्ठमयट्ठाणे परगट्ठ कमट्ट नट्ठ संसारे, परमट्ठनिट्ठिय? अट्ठगुणाधीसरंवंदे ॥४५।। इस मन्त्र की साधना श्मसान-स्थान में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन करे । सन्ध्याकाल के बाद प्रहरोर्द्व रात्रि के समय प्रारम्भ करे। धूप दीप जयणा सहित रक्खे, कट पत्र तैल गुग्गुलादिका होम जयणा सहित करे प्रति दिन दो हजार जाप कर सिद्धि प्राप्त करे । बाद जिस वस्तु को बेचना हो तब इक्कीस जाप से मन्त्रित कर विक्रय करे मनेच्छा मूल्य प्राप्त होगा। ॥सर्वभय रक्षा मन्त्र ।। ॐ अर्हते उत्पत उत्पत स्वाहा । त्रिभुवन स्वामिनी, ॐ थम्भेइ जल जलणादि घोवसग्गं मम अमुकस्य वायरणा सेउ स्वाहा ॥४६॥ इस मन्त्र को चन्दनादि द्रव्य से लिखने के हेतु सामग्री एकत्रित कर पाट उपर रखना और धूप दीप जयणा सहित रख कर १०८ बार नवकार मन्त्र का ध्यान करने बाद मंत्र लिखना, बाद में पट्ट को पूजन अर्चन सुगन्धी पुष्पादि से करके मंत्र सिद्ध करना, और भय उपस्थित समय अमुक जाप किया जाय तो भय नष्ट हो जाता है। ॥ तस्कर स्थम्भन मन्त्र ॥ ॐ नमो अरिहन्तारणं धधणु महा धणु महाधणु स्वाहा ॥४७॥ इस मन्त्र का ध्यान स्व ललाट विषे ध्यान लगा कर करे तो चोर-तस्कर स्थम्भन हो जाते हैं और षटि क्रिया करके मन्त्र Scanned by CamScanner Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) लिखता जाय और बांये ह थ से मिटा कर मुष्टि बन्ध करता जाय इस तरह अमुक संख्या में लिख ने बाद मुष्टि बन्ध कर जाप करेजाप पूर्ण होते हो मुष्टि खोल दिशा में फेंकने जैसा हाथ लम्बा करे तो चोरादि भय नहीं होता और चोर दृष्टिगत भी नहीं होते। ।।शुभाशुभ दर्शय मन्त्र ।। ___ॐ ह्रीं अहं नमः वीं स्वाहा ॥४८।। इस मन्त्र का जाप करने से पहले निज के हाथों को चन्दन से लिप्त कर लेवे बाद में १०८ जाप कर मौनपने भूमिशैय्या पर सो जावे तो स्वप्न में शुभाशुभ का भास होता है । ॥प्रश्नोत्तर विजय मन्त्र ।। ॐ नमो भगवइ सुय देवयाएसव्वसुय मायाए बारसंगपवयग जगणीए सरस्सइये सच्चवायरिण सुववउ अवतर अवतर देवी मम सरीरं पविस पुच्छं तस्स पविस्स सव्वजरणमय हरिए अरिहंत सिरिए स्वाहा ।।४।। इस मन्त्र को साध्य करने बाद प्रश्नोत्तर का कार्य हो तब या किसी मूकदमे के समय सवाल जवाब करने से पहले अमुक जाप इस मन्त्र के करने से विजय प्राप्त होगा, और हर्ष उत्पन्न होगा। ॥सर्व रक्षा मन्त्र ।। ॐनमो अरिहन्तारणं ॐनमोसिद्धारणं ॐनमो पायरियाणं, ॐनमो उवज्झायाणं, ॐनमो लोएसव्व साहूरणं, एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासपो, मङ्गलाणंचसम्वेसि, पढ़मं हवइ मंगलं, ॐ ह्रीं हुं फट् स्वाहा ॥५०॥ इस मन्त्र का स्मरण प्रत्येक कार्य में सुखदाई है । नित्यप्रति खूब ध्यान करना चाहिये सर्वथा आनन्ददायक यह महामन्त्र है। Scanned by CamScanner Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ॥ द्रव्य प्राप्ति मन्त्र ।। ॐ ह्रीं अरिहन्ताएं सिद्धाणं, सूरीणं आयरियाणं, उवज्झायारणं, साहूरणं मम ऋद्धि वृद्धि समिहितं कुरु कुरु स्वाहा ॥५१॥ इस मन्त्र को नित्यप्रति प्रातःकाल मध्यान्ह, और सायंकाल को प्रत्येक समय बत्तीस बार स्मरण करे तो सर्व प्रकार की सिद्धि और धन लाभ होता है, कल्याणकारी मन्त्र है। ॥ ग्राम प्रवेश मन्त्र ।। ॐनमो अरिहन्ताणं, नमो भगवइये चन्दाइये महाविझाए सत्तठाए गिरे गिरे हुलु हुलु चुलु चुलु मयूरवाहिनिए स्वाहा ॥५२॥ इस मन्त्र का जाप्य पोष वद दशमी के दिन उपवास करके करना चाहिये, कम से कम एक सौ बार तो अवश्य करे और उत्तर क्रिया कर सिद्ध कर लेवे, तत्पश्चात् ग्राम प्रवेश समय में सात बार जाप कर जिस तरफ का स्वर चलता हो वही पांव पहले उठा कर ग्राम प्रवेश करे तो लाभ प्राप्त होता है । साधू मुनिराज स्मरण करे तो अन्नादि का लाभ होता है और सत्कार पाते हैं । ॥ शुभाशुभं जानाति मन्त्र ।। ॐ नमो अरहि ॐ भगवउ बाहु बलीस्सय इह समरणस्स अमले विमले निम्मल नाण पयासिणि ॐ नमो सव्व भासइ अरिहा सव्व भासइ केवली एएणं सच्च वयोरणं सव्व होउ मे स्वाहा ॥५३॥ । इस मन्त्र का ध्यान कायोत्सर्ग में खड़े हुवे करे और ध्यान पूर्ण कर भूमि संथारे सो जावे तो स्वप्न में शुभाशुभ का भास होता है। Scanned by CamScanner Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) ॥ विवादे विजय मंत्र ॥ ॐहंसः ॐ ह्रीं अहऐं श्री अ.सि.पा.उ.सा. नमः ।।५४।। .. इस मन्त्र को इक्कीस बार अवाच्य स्मरण कर विवाद शुरु करे तो विजय प्राप्त होगा। ॥ उपवासफल मन्त्र ।। ॐ नमो ॐ अर्ह अ. सि. आ. उ. सा. रगमो अरिहन्ताणं नमः ।।५५।।। इस मन्त्र को १०८ बार स्मरण करने से उपवास जितना फल प्राप्त होता है। । अग्निक्षय मन्त्र ।। उपर बताये हुवे मन्त्र नम्बर "५५'को सिद्धि करने के बाद २१ दफा मन्त्र द्वारा जल मन्त्रित करे और अग्नि उपद्रव समय में तीन अञ्जली भर कर अथवा अन्य प्रकार से अग्नि वेष्टित जल धार देवे तो अग्नि उपद्रव शान्त हो जाता है। ॥ सर्पभयहर मन्त्र ।। ॐ ह्रीं अर्ह अ. सि. आ. उ. सा. अनाहत विजये अर्ह नमः ॥५७॥ ___इस मन्त्र को साध्य करे तब नित्यप्रति सुबह दोपहर को और सांयकाल को स्मरण करे और प्रत्येक दिपोत्सवी के दिन १०८ जाप्य करे तो यावज्जीव सर्प भय नहीं होता है। ॥ लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र ।। ॐ ह्रीं ह्ररमो अरिहन्ताणं ह्रौं नमः ।।५८॥ इस मन्त्र का नित्यप्रति १०८ जाप करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है । सुख मिलता है और द्रव्य पाता है । Scanned by CamScanner Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) ॥ कार्य सिद्धि मन्त्र ।। ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्लौं बलं अहं नमः ॥५६॥ इस मन्त्र के जाप से सर्व कार्य की सिद्धि होती है, साध्य करते समय इक्कीस हजार जाप करना चाहिये। ॥ शत्रु भयहर मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं श्रीं अमुकं दुष्टं साधय साधय अ. सि. प्रा. उ. सा. नमः ॥६०॥ इस मन्त्र की इक्कीस दिन तक प्रातः काल में माला फेरे, बाद में कार्य हो तब अमूक जाप करे तो शत्रु का भय नष्ट होता है। ॥ रोगक्षय मन्त्र ।। ॐ नमो सवोसहिपत्ताणं ॐ नमो खेलोसहिपत्ताणं ॐ नमो जलोसहिपत्ताणं ॐ नमो सव्वोसहिपत्ताणं स्वाहा ॥६१॥ इस मन्त्र के जाप्य से रोग-पीड़ा शान्त होंगे नित्य एक माला फेरने से व्याधि कम होती है। ॥ ब्रपहर मन्त्र | ॐ गमो जिरगाणं जावयाणं पुसोरिण अंएएरिण सव्वा वायेण वरणमापच्चं उमाघुष उमाफुट् ॐ ॐ ठः ठः स्वाहा ।।६२॥ इस मन्त्र से राख मन्त्रित कर व्रण-जिनको वरण भी कहते हैं बालकों के शरीर पर हो जाते हैं, उन पर अथवा शीतला के वरण पर लगावे तो व्रण मिट जाता है । Scanned by CamScanner Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ॥ सूर्य मंगल पीड़ा मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं ॥६३।। सूर्य, मंगल दोनों ग्रह शांति के हेतु एक हजार जाप नित्य प्रति जहां तक ग्रह पीड़ा रहे किया करें तो सुख प्राप्त होता है। ॥ चन्द्र शुक्र पीड़ा मन्त्र । ॐ ह्रीं नमो अरिहंतारणं ॥६४॥ चन्द्र शुक्र दोनों की दृष्टि पीडाकारी हो तब एक हजार जाप नित्यप्रति करने से सुख प्राप्त होता है। . ॥ वुध पीड़ा मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं नमो उवज्झायारणं ॥६५॥ बुध की दशा हानिकारक हो तब प्रसन्न करने के लिये इस मन्त्र का जाप एक हजार नित्यप्रति करना चाहिये। गुरु पीड़ा मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं नमो पायरियाणं ॥६६॥ गुरु की दृष्टि हानिकारक हो तब एक हजार जाप नित्य करना चाहिये। ॥ शनि राहू केतु पीड़ा मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं नमो लोए सव्वसाहूणं ॥६७।। इस मन्त्र का नित्य एक सहस्र जाप करने से शनीश्चर राहू केतु की दृष्टि हानिकर हो तो मिट जाती है और सुख मिलता है। Scanned by CamScanner Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणवाक्षर ध्यान । --*-- प्रणव अक्षर पहेलोपभणीजे । प्रणव अक्षर सर्व सिद्धि दायक है । इसका बयान करते शास्त्र में कहा है कि हृदय कमल में निवास करने वाला शब्द जो ब्रह्म के कारण रूप स्वर व्यन्जन सहित परमेष्टि पद का वाचक है और मस्तक में रही हुई चन्द्रकला से झरते हुए अमृत रस से भींजे हुए महामन्त्र प्रणव याने ।।ॐ।। का कुम्भक से चिन्तवन करना स्तम्भन करने में पीला, वशीकरण करने में लाल, क्षोभ करने में परवाले की कान्ति जैसा, विद्वष में काला और कर्म का घात करने में चन्द्र की कान्ति जैसा ॐकार का ध्यान करना चाहिये । तीन लोक को पवित्र करने वाला पञ्च परमेष्टि नमस्कार मन्त्र को निरन्तर चिन्तवन करना। एस पंच नमस्कार, सर्व पाप प्रणाशनं । मंगलानांच सर्वेषां, प्रथमं जयति मंगलम् पञ्च परमेष्टि को नमस्कार करने वाले के सर्व पाप क्षय हो जाते हैं, क्योंकि सर्वमङ्गल में यह पहला मङ्गल है । अर्थात महामन्त्र है और यह मंचपद ॐकार दर्शक है अतः इनका जो ध्यान करता है, उसे मन वांछित फल की प्राप्ति होगी, इसलिए ॐकार शब्द सूचक परमेष्टि को नमस्कार करना कर्तव्य है। नाभिकमल में स्थित "अ" आकार ध्यावे, (सि) सिवर्ण मस्तक कलल में स्थित ध्यावे, (आ) आकार मुख कमल में स्थित कर ध्यावे, (उ) उकार हृदय कमल में स्थित ध्यावे, और (सा) साकार कण्ठ पिञ्जर में स्थित कर ध्यावे तो यह जाप सर्व Scanned by CamScanner Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) कल्याण के करने वाला है। ऊपर कहे अनुसार अ. सि पा उ. सा. यह पांचों बीजाक्षर हैं और इन पांचों का ॐकार बनता है । जो इनका नित्य ध्यान करते हैं उनका कल्याण होगा । कहा है किॐकार बिन्दु संयुक्त, नित्यं ध्यायन्ति योगिन । कामदं मोक्षरं चैव, ॐकाराय नमोनमः ।। इसकी महिया अगाध है इसका वर्णन करने के लिये मैं समर्थ नहीं हूं। जिज्ञासुओं को चाहिये कि ज्ञानियों की सेवा कर प्राप्त करे। ह्रींकार का ध्यान --*-- ध्यायेत्सिताब्जं वक्रवान्तरष्ट वर्गीदलाष्ट को। ॐ नमो अरिहन्तारणमिति वानपि क्रमात् ॥१॥ मुख के अन्दर पाठ कमल वाला श्वेत कमल को चिन्तवन करे और उसके आठों कमल में अनुक्रम से "ॐनमो अरिहंतारणं" इन आठ अक्षरों को स्थापन करे। इनमें केसरा पंक्ति को स्वरमय बनावे और करिणका को अमृत बिन्दु से विभूषित करे। उन कणिकाओं में से चन्द्र बिम्ब से गिरते हुए मुख से सञ्चारते हुए प्रभामण्डल के मध्य में विराजित चन्द्र जैसी कान्ति वाले मायाबीज "ह्रीं" का चिन्तवन करे । चिन्तवन करने के बाद पत्रों में भ्रमण करते आकाशतल से सञ्चारित मन की मलीनता का नाश करते हुवे । अमृत-रस से झरते और तालूरन्ध्र से निकलते हुए भ्रकुटी Scanned by CamScanner Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) के मध्य में शोभायमान तीन लोक में अचिन्तय महात्म्य वाले तेजोमय की तरह अद्भुत एसे इस "ह्रीं" कार का ध्यान किया जाय तो एकाग्रता से लय लगाने वाले को वचन और मन का मेल दूर करने पर श्रुत ज्ञान का प्रकाश होता है। इस प्रकार के महीने तक अभ्यास करने वाला निज के मुख में से निकलती हुई धूम्र की शिखा को देखता है। इसी तरह एक वर्ष तक अभ्यास किया जाय तो मुख में से निकलती ज्वाला देखता है और ज्वाला देखने के बाद संवेगवान होकर सर्वज्ञ सच्चिदानन्द परमात्मा का मुख कमल देखता है। इतना देखने के बाद सतत् अभ्यास करते करते अत्यन्त महात्मय वाले कल्याणकारी अतिशय युक्त भामण्डल के मध्य में विराजित साक्षात सर्वज्ञ भगवान को देखता है। और उन सर्वज्ञ के विषेमन स्थिर कर निश्चययुक्त लय लगाता रहे तो परिणाम की धारा ऐसी चढ जाती है कि उसके निकट वृति शिव सुख-अर्थात् मोक्ष उपस्थित हो जाती है, और वह परम पद प्राप्त करता है। ह्रीं की महिमा अपरम्पार है। इसमें ऋषिमण्डल में कहे अनुसार वर्णवार चौबीस जिनकी स्थापना होती है। जो ध्यान करने वालों के लिए आलम्बन में उत्तम है। ह्रीं में अत्यन्त शक्ति का समावेश है। ह्रीं को लिखकर कैंची से कुछ पांच या सात टुकड़े बना लिये जायं तो उन टुकड़ों में स्वर व्यन्जन का समावेश होता है अर्थात् उन पांच या सात विभागों में स्वर व्यन्जन के सर्व अक्षर की योजना हो जाती। तथापि ह्रीं का जाप करने के लिये दो प्रकार के ह्रीं वृत हाथ के पन्जे में बताये गये हैं, उनका उपयोग अवश्य करना चाहिये। -* Scanned by CamScanner Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान विचार श्रावक का कर्तव्य है कि प्रातः काल में या चार घड़ी शेष रात्रि रहे निद्रा त्याग कर नमस्कार मन्त्र का जाप करे, यह मन्त्र कल्याण का करने वाला और मन वांछित फल देने वाला है। । इसका विधान बताते हुवे "व्यवहार भाष्य" सूत्र में लिखा है कि शैया में कुस्वप्न राग युक्त पाया हो या प्रद्वषादिमय अनिष्ट फल का सूचक हो उसको दूर करने के लिये शैय्या से उठते ही १०८ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करे। या १०० उच्छवास करे । जिन्हें श्वासोश्वास पर काउसग्ग करने का अभ्यास नहीं है उन्हें चार लोगस्स का काउसग्ग करना चाहिये और श्वासोश्वास से कायोत्सर्ग करने का अभ्यास नित्य प्रति करते रहना । शैया में बैठे-बैठे जो स्मरण करते हैं उन्हें चाहिये कि मन में ही पञ्च परमेष्टि का ध्यान किया करे । वचन उच्चार करके जो जाप करते हैं, उन्हें शैय्या त्याग कर शरीर शुद्धि किये बाद भूमि पर आसन बिछा पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुख रखकर नमस्कार मंत्र का ध्यान करने बैठे। जो कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े-खड़े ध्यान करना चाहें उनको व बैठे-बैठे ध्यान करें उनको चाहिये कि एकाग्रता के हेतु कमल (नेत्र) बंधकर जपादि करें। मन को साफ रखे ममता-माया का त्याग करे समभाव प्रालम्बित हो विषयादि शत्रों से विराम पाकर समपरिणामी हो ध्यान करना चाहिये । जिनको समभाव गुरण प्राप्त नहीं हुवा है उनको ध्यान करने में अनेक प्रकार की विडम्बनायें उपस्थित हो जाती हैं । अतः समपरिणामी होने का अभ्यास करना चाहिये क्योंकि समपरिणाम बिना ध्यान नहीं होता और बिना ध्यान के निष्कम्प-समता नहीं आ सकती Scanned by CamScanner Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) इस तरह अन्योन्य कारण है। समता गुरण में झीलता हुवा ध्यान का अभ्यास करे। स्थान शरीर वस्त्र और उपकरण शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिये क्योंकि पवित्रता से चित प्रसन्न रहता है और साध्यता सिद्ध होती है। जो लोग हृदय को पवित्र किये बिना ध्यान करते हैं उन्हें सिद्धि नहीं होती। एक राजा महाराजा को अपने गृह निवास में आमंत्रित करते हैं तो निवास स्थान को कैसा सुन्दर स्वच्छ बना कर सजाया जाता है। पवित्रता और आस-पास की जमीन स्वच्छता पर पूरा लक्ष दिया जाता है। तो त्रिलोकीनाथ को हृदय में प्रवेश करते समय मन-हृदय शरीर कितना निर्मल बनाना चाहिये जिसकी कल्पना पाठक स्वयं कर सकते हैं। जाप करने वाला मौनवृत्ति से जाप करे तो विशेष फलदायी होता है । जो मौनवृत्ति जाप करने से थकित हो जाते हैं उनकोजाप बांधकर ध्यान करना चाहिये । ध्यान से थक जाने पर जाप्य और दोनों से थक जाने पर स्रोत पढे और हस्व दीर्घ का भान रखता हुवा रहस्य को समझता जाय और जिस राग-रामिणो छन्दादि में स्रोत हो उसी राग में मधुरी आवाज से पाठ करे तो फलदाई होता है। प्रतिष्ठा कल्प पद्धति में श्री पालिप्ताचार्यजी महाराज ने लिखा है कि जाप तीन तरह के होते हैं। (१) मानस, (२) उपांशु, (३) भाष्य, इन तीन प्रकार के जाप्य में मानस जाप्य उसको कहते हैं कि जो मन ही में मग्नता पूर्वक स्थिर चित्त से एकाग्रता सहित लय लगाता हुवा ध्यान करता रहे । इस तरह के जाप्य को उत्तम कोटि में लिया है, और मानस जाप शान्ति तुष्टि पुष्टि के करने वाला है। दूसरा उपाँशु जाप उसे कहते हैं कि, दूसरा कोई पास में बैठा हो वह तो सुने नहीं लेकिन अन्तर जल्प रुप अर्थात निज के Scanned by CamScanner Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) मुंह में ही कण्ठ से या जिम्या से जाप्य करता रहे। इस तरह का जाप्य पुष्टिदायक होता है। अतः जो पुष्टि के हेतु जाप करते हैं उन्हें उपांसु विधान का उपयोग करना चाहिये । तीसरा भाष्य जाप्य उसे कहते हैं कि जाप्य करते समय का उच्चार आस-पास के सब सुन सके इस तरह शुद्धता पूर्वक पाठ करे ता इस तरह का जाप्य आकर्षणादि कार्य के लिये उपयोगी होता है अतः जैसो जिसकी भावना हो और कार्य हो तदनुसार लाभालाभ देखकर विधान करना चाहिये । ध्यान करते समय चित-चञ्चल न हो और परिणाम सम रहने के हेतु अनुकूल आसन स्थिर कर जाप्य ध्यान करना चाहिये जो आसन स्थिर नहीं रखते उनको ध्यान में स्थिरता नहीं आती अत: चपलता का त्याग कर आसन स्थिर बनना चाहिये । हम यहां कुछ आसन का स्वरूप बताना चाहते हैं। योग शास्त्र में इसका कुछ वर्णन है। ___--2-- प्रासन का विचार आसन शुद्ध करना और अनुकुल आसन में जय प्राप्त करना ध्यान साध्य में सहायक होता है । आसन जमाने के लिए एकान्त स्थान हो जहाँ किसी प्रकार की चिन्ता भय प्राप्त होने की सम्भावना न हो, अनुकुल संयोग व समाधि सहित ध्यान हो सके ऐसे स्थान को पसन्द करना चाहिये। जिसमें भी तीर्थ स्थान-जिनेश्वर भगवान की कल्याणक भूमि हो तो विशेष आनन्द दायक है। - आसन तो चौरासी प्रसिद्ध हैं। हम सबका उल्लेख करना नहीं चाहते लेकिन उपयोगी आसन जो गृहस्थ कर सकें उन्हीं का वर्णन करेंगे। Scanned by CamScanner Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) आसनों में से, पर्यङ्कासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रासन, दण्डासन, उत्कटिकासन, गौदोहिकासन और कायोत्सर्गासन, यह नौ प्रकार के आसन गृहस्थ सुगमता से कर सकते है। जिनमें पर्याङ्सन जिसे सखासन भी कहते हैं। यह इस तरह किया जाता है कि दोनों जङ्गा के नीचे का भाग पांव उपर कर बैठे याने पालखी लगाकर बैठे और दाहिना व बांया हाथ नाभि कमल के .. पास में ध्यान मुद्रा में रखे तो पर्यङ्कासन बन जाता है। दाहिना पांव बांयी जना पर व बाँया पांव दाहिनी जत्रा पर कर स्थिर बठे तो वीरासन बन जाता है। और वीरासन में ही दोनों पोठ की तरफ से लेकर दाहिने पांव का अंगुष्ट दाहिने हाथ से व बांये पाँव का अंगुष्ठ बांये हाथ से पकड़े तो वीरासन का वज्रासन बन जाता है। दोनों जङ्गा का परस्पर मध्य में सम्बन्ध कर बैठना इसको पद्मासन कहते हैं। पुरुष चिन्ह के प्रागे पांव के दोनों तलिये मिलाकर उनके ऊपर दोनों हाथ की उङ्गलियां परस्पर एक के साथ एक याने कर सम्मेलन करने के बाद दशों उङ्गलियां गिन सके इस प्रकार हाथ जोड़कर बैठना उसका नाम भद्रासन है। जिस आसन में बैठने से उङ्गलियां गुल्फ व जङ्गा भूमि से स्पर्श करे इस प्रकार पांव लम्बे कर बैठना उसको दण्डासन कहते हैं। गुदा और एडो के संयोग से वीरता पूर्वक बैठे जिसको उत्कटिकासन कहते हैं । गाय दूहने को बैठते हैं उस तरह बैठ ध्यान करना जिसको गौ दोहिकासन कहते हैं। खड़े-खडे दोनों भुजाओं को लम्बी कर घुटने की तरफ बढाना या बैठे बैठे काया की अपेक्षा नहीं रख कर ध्यान स्थित होना उसका नाम कायो. त्सर्गासन है। जिसको धार्मिक क्रिया में करने की प्रथा प्रचलित है। ध्यान करने को खड़े रहते है उस समय हाथों को बांईदाहिनी ओर ज्यादे फलाना नहीं चाहिये सीधे हाथ रखने Scanned by CamScanner Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) चाहिये । और खड़े रहते हुवे चरण की उङ्गलियों के मध्य में चार अंगुल अन्तर रखना व एडी के बीच में इससे कुछ कम अन्तर रख कर खड़ा रहना चाहिये। इस तरह खड़ा रहने से जिनमुद्रा होती है और वन्दन ध्यान में यह उपयोगी है । अतः अनुकूलता व शक्ति देख कर आसन सिद्ध कर लेना चाहिये। __जाप करने के लिए बैठे तब झुक कर या शरीर को शिथिल बना कर नहीं बैठना चाहिये बिलकुल टटार इस तरह बैठना कि श्वास की नली सीधी रहे और श्वास रोकने व निकालने में बाधा न आवे इस तरह सुखासन पर जो बैठते हैं उनका ध्यान अच्छा जमता है। ध्यान शक्ति के प्रभाव से तीन लोक को विजय कर सकते हैं। इसलिए ध्यान शक्ति पर श्रद्धा रखना चाहिये और ध्यान करते समय अनिवार्य संङ्कट सहन करना पड़े तो भी दृढ़ चित्त रहकर एकाग्रता सहित ध्यान करते रहना आत्म विश्वास रखना ज्ञानियों के वचन को सत्य मानना तो अवश्य उच्च पद प्राप्त होगा कितनेक कहते हैं कि क्या करें मन वश में नहीं रहता अतः • जप जाप्य में स्थिरता नहीं पाती। यह कहना स्वच्छन्दता का है। मन तो वश में रहता है किन्तु जप-ध्यान में हम नहीं रख सकते । अगर मन वश में न रहता हो तो रुपया गिनते वक्त, नोट सम्भालते समय, सोने का गहना कराते वख्त और भोग संभोग में कितनी स्थिरता रहती है सो पाठकों से छिपी नहीं है। हम इसके लिये विशेष विवेचन करना नहीं चाहते लेकिन प्रसंगोपात इतना जरूर कहेंगे कि मन तो वश में रहता है । तथापि हम ध्यान आदि में नहीं रख सकते । अतः मन ही पर सारा भार न डाल कर प्रयत्नशील बने और ध्यान विचार में बताये हुवे आसन आदि Scanned by CamScanner Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) द्वारा एकान्त स्थान में ध्यान करने का प्रयत्न किया जाय और जहां तक बन सके पिछली रात्रि को साढे चार बजे लगभग प्रयत्न किया जायगा तो आशा है कि मन भी वश में रहेगा और ध्यान समाधि मय निर्विघ्नता से बन सकेगा। --*-- ध्याता पुरुष की योग्यता ध्यान करने की इच्छा रखने वालों को निज की योग्यता बढाकर ध्याता, ध्येय और ध्यान को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। क्योंकि इन भेदों के समझे बिना कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा। अतः ध्यान करने वालों में कौनसे गुण होना चाहिये जिसका संक्षेप वर्णन करेंगे। ध्यानी मनुष्य धैर्यता रखने वाला शान्त स्वभावी, सम परिणामी और अत्यन्त सङ्कट प्राजाने पर भी ध्यान को नहीं छोड़े इस प्रकार अटल श्रद्धा वाला होना चाहिये और सबकी तरफ - समान भाव से देखने वाला, शीत आतापनादिक असह्य कष्ट से घबराता न हो और निज के स्वरूप से भ्रष्ट न हो, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का त्याग करने वाला, रागादि से मुक्त, कामवासना से विराम पाया हुआ, निज के शरीर पर मोह उत्पन्न न हो, इस तरह की भावना से संवेगरूपी द्रह में निमग्न सर्वदा समता का आश्रय लेने वाला, मेरु पर्वत की तरह निष्कम्प, चन्द्रमा के तुल्य आनन्ददाता और वायु की तरह सङ्गरहित इस तरह का बुद्धिमान ध्यान में निपुण ध्याता पुरुष हो वही प्रशंसा के योग्य है । अतः ध्याता पुरुष को अपनी योग्यता की तरफ पूरा लक्ष देना चाहिये क्योंकि योग्यता प्राप्त किए बिना प्रवेश किया जाय तो कार्य की सिद्धि असम्भव है। . Scanned by CamScanner Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डस्थ ध्येय स्वरूप पिण्डस्थं च पदस्थं च । रूपस्थं रूप वर्जितं ।। चतुर्धा ध्येय माम्नात । ध्यानस्यालम्बनं बुधै ॥ || योगशास्त्र || ध्येय का स्वरूप बताते हुए बयान किया है कि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्येय को ध्यान के आलम्बन भूत मानना चाहिये । ध्येय शुद्ध करने के बाद धारणा को समझना चाहिये । जिसके पांच भेद बताये गये हैं । प्रथम 'पार्थिवी' दूसरी 'आग्नेयी' तीसरी 'मारूती' चौथी 'वारूणी' और पाँचवी 'तत्वभू' यह पांचों धारणायें पिण्डस्थ ध्यान में होती हैं जिनका संक्षेप वर्णन इस प्रकार है । तीक लोक जितने क्षीर समुद्र की चिन्तवना करे और उसमें जम्बू द्वीप जितना एक हजार पांखड़ी वाला सुवर्ण जैसी कान्तियुक्त कमल का चिन्तवन करे । उस कमल की केसरा पंक्ति में प्रकाशमान प्रभावशाली मेरु जितनी पीले रंग की करिणका का चिन्तवन करे । उसके ऊपर श्वेत सिंहासन पर विराजमान निज की आत्मा का चिन्तवन करे, और कर्म निर्मूल करने के लिये प्रयत्नशील, उद्यमवन्त होकर कर्मक्षय का चिन्तवन करना उसको पार्थिवो धारणा कहते हैं । Scanned by CamScanner Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) दूसरी "आग्नेयी" धारणा का स्वरूप बताते हुये कहा है कि नाभि के अन्दर सोलह पांखड़ी युक्त कमल पुष्प की योजना करे, और उस कमल की कणिकाओं में "अहँ" महामन्त्र और दूसरे प्रत्येक पत्र में स्वर को पंक्ति स्थापन करे । रेफ बिन्दू को कला सहित महा-मन्त्र में जो "ह्र" अक्षर उसके रेफ में से धीरे-धीरे निकलती हुई धूम्र रेखा का चिन्तवन करे । उसमें अग्नि-कण की सन्तति अर्थात् चिनगारियां चिन्तवन कर बाद में अनेक ज्वाला का चिन्तवन करना, और उस ज्वाला के समूह से हृदय में रहे हए कमल को जलाना । इस तरह घाती अघाती आठों कर्म की रचना वाले आठ पत्र यक्त अधोमुख वाले कमल को महामन्त्र के ध्यान से उत्पन्न होने वाली ज्वाला जला देती है । इस तरह चिन्तवन करने के बाद शरीर से बाहर सुलगती हुई अग्नि का त्रिकोण अग्निकुण्ड चिन्तवन कर उसके अन्त में स्वस्तिक लाञ्छित अग्नि बीजयुक्त चिन्तवन करना । इस प्रकार महामन्त्र के ध्यान से उत्पन्न की हुई अग्नि से अर्थात अग्नि ज्वाला से शरीर और कमल को जलाकर भस्मसात् कर शान्त होना, इसी का नाम आग्नेयी धारणा है जो ध्यान द्वारा चिन्तवन की जाती है । तीसरी "मारूती" धारणा का स्वरूप इस प्रकार है कि तीन । भुवन के विस्तार जैसा पर्वतादि को चलायमान करने वाला समुद्र को क्षोभ प्राप्त कराने वाले वायु का चिन्तवन करना और भस्मरज को उस वायु से शीघ्र उडाने के बाद विशेष ध्यान के अभ्यासी को चाहिये कि उस वायु को शान्त बना देवे । इस प्रकार की क्रिया को मारुती धारणा कहते हैं। चौथो “ वारुणी " धारणा का स्वरूप इस प्रकार है कि अमृत समान बरसात बरसता हो, मेघमाला से व्याप्त हो ऐसे आकाश चिन्तवन करना, बाद में अर्द्ध चन्द्राकारयुक्त वरुण बीज सहित Scanned by CamScanner Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) मण्डल चिन्तवन करना और अमत समान जल से आकाश तल को पवित्र करके काया से उत्पन्न की हई रज और भस्म को धो डालना ऐसी क्रिया का नाम वारूणी धारणा है। पांचवी "तत्त्वभू” धारणा उसको कहते हैं कि शुद्ध बुद्धि वाला सप्तधातु रहित पूर्णचन्द्र समान निर्मल कान्तियुक्त सर्वज्ञ समान निजके आत्मा का स्मरण करे । बाद में सिंहासन पर आरूढ सर्व अतिशय से प्रभावित, सर्व कर्मो को क्षय करने वाला निज के निराकार आत्मा का स्मरण करे। इसीका नाम तत्त्वभू धारणा है। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के अभ्यास वाला योगी मोक्ष सुख प्राप्त करता है । पिण्डस्थ ध्यान का नित्यप्रति अभ्यास करने वाले को दुष्ट विद्या, मन्त्र, यन्त्र,यादि शक्तियां हानि नहीं पहुंचा सकती और शाकिनी या हलके वर्ण की योगिनियां पिशाच आदि ऐसे ध्यानी महापुरुष के तेज को सहन नहीं कर सकते । दुष्ट, हाथी, सिंह, सर्प, अष्टापद आदि जिनमें मारने की इच्छा रहा करती है वह भी ऐसे योगियों को देख स्थम्भित हो जाते हैं। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के महात्म्य का वर्णन संक्षेप से किया गया । .. पदस्थ ध्येय स्वरूप पवित्र पदों का पालम्बन लेकर ध्यान किया जाता है उसी को शास्त्र वेत्ताओं ने पदस्थ ध्यान बताया है। और इसका स्वरूप बताते हुए कहा है कि नाभि कमल के ऊपर सोलह पत्र वाले कमल के पत्र में प्रत्येक पत्र ऊपर भ्रमण करती हई स्वर की पंक्ति का चिन्तवन करना। हृदय में किये हुए चौबीस पत्रवाले और कणिका सहित कमल में पच्चीस वर्ण अनुक्रम से अर्थात् क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, Scanned by CamScanner Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प, फ, ब, भ, म तक चिन्तवन करना। उसके बाद मुख कमल में अाठ पत्र वाले कमल के अन्दर बाकी के आठ वर्ण, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, का चिन्तवन करना। इस प्रकार चिन्तवन करने से श्रुतपारगामी हो जाते हैं । इसका सविस्तार विधान समझने योग्य है। जो इसका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और अनादि सिद्धि वर्णात्मक ध्यान यथा विधि करते रहते हैं उनको अल्प समय में हो, गया, आया, हा, होने वाला, जीवन, मरण, शुभ, अशुभ आदि वृत्तान्त जान लेने का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। । नाभिकन्द के नीचे आठ वर्ग के अ, क, च, ट, त, प, य, श, अक्षर वाले आठ पत्तों सहित स्वर की पंक्ति युक्त केसरा सहित मनोहर पाठ पांखडी वाला कमल चिन्तवन करे। सर्व पत्रों को सन्धियां सिद्ध पुरुषों की स्तुति से शोभित करना । सर्व पत्रों के अग्र भाग में प्रणव व माया ।। ॐ ह्रीं ।। से पवित्र बनाना । उन कमल के मध्य में रेफ से () आक्रान्त कलाबिन्दु । ) से रम्य स्फटिक जैसा निर्मल आद्यवर्ण ।। सहित अन्त्यवर्णाक्षर ।।।। स्थापन करना “अहँ" यह पद प्राण प्रान्त को स्पर्श करने वाले को पवित्र करता हुआ, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सूक्ष्म और अति सूक्ष्म ऐसा उच्चारण होगा। उसके बाद नाभिकी, कण्ठकी, और हृदय को, घंटिकादि ग्रन्थियों को अति सूक्ष्म ध्वनि से विदारण करता हुआ मध्य मार्ग से वहन करता हुआ चिन्तवन करना । और विन्दुमेंसे तप्त कला द्वारा निकलते दूध जैसे गौर अमृत के कल्लोलों से अन्तरात्मा को भींजता हुआ चिन्तवन कर, अमृत सरोवर में उत्पन्न होने वाले सोलह पांखड़ी के सोलह स्वर वाले कमल के मध्य में आत्मा को स्थापन कर उसमें सोलह विद्यादेवियों की स्थापना करना। Scanned by CamScanner Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) देदिप्यमान स्फुटिक के कुम्भ में से झरते हुवे दूध जैसे श्वेत अमृत से निज को लम्बे समय से सिञ्चन होता हो ऐसा चितवन करना। इस मन्त्राधिराज के अभिधेय शुद्ध स्फूटिक जैसे निर्मल परमेष्टि अहर्त का मस्तक में ध्यान करना और ऐसे ध्यान के आवेश से "सोऽहं, सोऽहं" वारम्वार बोलने से निश्चय रूप से आत्मा की परमात्मा के साथ तन्मयता समझना । इस तरह तन्मयता हो जाने बाद अरागी, अद्वेषि, अमोही, सर्वदर्शी, देवताओं से पूजनीय ऐसे सच्चिदानन्द परमात्मा समव सरण में धर्मोपदेश करते हों ऐसी अवस्था का चिन्तवन करके आत्मा को परमात्मा के साथ अभिन्नता पूर्वक चिन्तवन करना चाहिये, जिससे ध्यानी पुरुष कर्म रहित होकर परमात्म पद पाता है । बुद्धिमान ध्यानी योगी पुरुष को चाहिये कि मंत्राधिप के उपर व नीचे रेफ सहित कला और बिन्दू से दबाया हुअा-अनाहत सहित सुवर्ण कमल के मध्य में बिराजित गाढय चन्द्र किरणों जैसा निर्मल आकाश से सञ्चरता हुवा दिशाओं को व्याप्त करता हो इस प्रकार चिन्तवन करना । मुख कमल में प्रवेश करता हवा, भ्रकूटी में भ्रमण करता हुवा, नेत्र पत्रों में स्फूरायमान, भाल मण्डल में स्थिर रूप निवास करता हवा, तालू के छिद्र में से अमृत रस भरता हो, चन्द्र के साथ स्पर्धा करता हवा ज्योतिष मण्डल में स्फुरायमान, आकाश मण्डल में सञ्चार करता हुवा मोक्ष लक्ष्मोके साथ में सम्मिलित सर्व अवयवादि से पूर्ण मन्त्राधिराज को कुम्भक से चिन्तवन करना चाहिये । जिसका विशेष स्पष्टी करण करते हैं कि ॥ ॥ जिस की आद्य में है और । ह।। जिसके अन्त में है । और बिन्दू सहित रेफ जिसके मध्य में अर्थात् ।। अहँ । यही परम तत्त्व है । और इसको जो जानते हैं वही तत्त्वज्ञ हैं। Scanned by CamScanner Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) ध्यानी, योगी स्थिर चित्त से लय लगाता हुवा इस महातत्त्व का ध्यान करता है। तो फल स्वरूप प्रानन्द और सम्पत्ति की भूमि रूप मोक्ष लक्ष्मी उसके पास आकर खड़ी हो जाती है। रेफ बिन्दू और कला रहित शुभ्राक्षर ।।ह।। का ध्यान करते हैं। बाद में यही अक्षर अनक्षरता को प्राप्त हया हो जो बोलने में नहीं आवे इस प्रकार इसका चिन्तवन करे । चन्द्रमा की कला जैसे सूक्ष्म आकार वाले, सूर्य जैसे प्रकाशमान अनाहत नामके देवको स्फूरायमान होता हो इस प्रकार चिन्तवन करना । और बाद में अनुक्रम से केशके अग्रभाग जैसा सूक्ष्म चिन्तवन करना और क्षण वार जगत को अव्यक्त ज्योति वाला चिन्तवन करना । लक्षसे मन को हटाया जाय तो अलक्ष में स्थिर करते हवे अनुक्रमसे अक्षय इन्द्रियों से अगोचर ऐसी ज्योति प्रगट होती है। इस प्रकार लक्ष के आलम्बन से अलक्ष्य भाव प्रकाशित किया हो तो उससे निश्चल मन वाले योगी ध्यानी का इच्छित सिद्ध होता है। योग शास्त्र में कहा है कि ध्यान करते समय पाठ पांखडी के कमल का चिन्तवन करे मूलमें सप्ताक्षरी मंत्र नमो अरिहंताणं का ध्यान करे बाद में सिद्धादिक चारों पद अनक्रम से चारों दिशा के कमल पत्त-पांखडी में स्थापित करे और चारों विदिशा चूलिका में चारों पद ज्ञान दर्शनादि चिन्तवन कर ध्यान की लय लगावे तो महान लाभ प्राप्त होता है। इसकी अाराधना करने वाले परम पुरुष महालक्ष्मी प्राप्त करके तीन लोक के पूजनीय हो जाते हैं। पञ्च परमेष्टि विद्या गुरुपञ्चक के नाम से उत्पन्न हुई जिसको 'षोडशाक्षरी" विद्या कहते हैं याने Scanned by CamScanner Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ॥अरिहंत सिद्ध प्रायरिय उवझाय साहु ॥ ___ इसका दो सौ बार जाप करे तो उपवास का फल पाते हैं अरिहंत सिद्ध षडाक्षरी मंत्र तीन सौ बार अरहंत चतुरा क्षरी मंत्र चार सौ बार और असिआउसा पञ्चाक्षरी मंत्र पाँच सौ बार जाप करे तो परमार्थ से इसका फल स्वर्ग व मोक्ष का देने वाला होता है और कल्याणकारी है । असिआउसा इस पञ्चाक्षरी मंत्र में पञ्च वर्णमयी हाँ ह्री ह ह्रौं ह्र: यह पञ्च तत्व विद्या का निरन्तर जाप किया जाय तो संसार के क्लेश दूर हो जाते हैं। चार मङ्गल चार लोकोत्तम और चार शरण इन तीन पदों को अव्यग्र मन से अरिहंतादिक चार पदों का ॥अरिहंत सिद्ध साहू ॥ ॥ केवलि पन्नत्तो धम्मो ॥ . इस प्रकार साथ मिलाकर स्मरण किया जाय तो मोक्ष सुख प्राप्त होता है। ॥ ॐ अरिहंत सिद्ध । ॥ सयोगी केवलि स्वाहा । यह पन्द्राक्षरी मन्त्र विद्या का ध्यान करना अति उत्तम और परम पददाता है। ॐ श्रीं ह्रीं अहँ नमः ॥ इस मंत्र का जाप परम कल्याणकारी है। सर्व ज्ञान प्रकाशक सर्वज्ञ समान यह मंत्र है । इस मंत्र के प्रभाव को सर्वथा कहने Scanned by CamScanner Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) के लिये कोई समर्थ नहीं है । इस मंत्र का ध्यान कर लय लगाने वाला सर्वज्ञ भगवान की समानता धारण कर सकता है । अतः इसका ध्यान अवश्य करना चाहिये । चन्द्र के बिम्ब से उत्पन्न हुई हो और उसमें से नित्य अमृत भरता हो और कल्याण के कारुरण रूप भाल स्थल (कपाल) में रही हुई ॥ त्री ॥ नाम की विद्या का ध्यान करना । क्षीर समुद्र में से निकलती हुई, अमृत जलसे भींजती हुई, मोक्ष रूपी महल में जाने के लिये नीसरनी रूप शशि कला को ललाट के अन्दर चिन्तवन करना । इस विद्या के स्मरण मात्र से संसार में परिभ्रमण कराने वाले कर्म क्षय हो जाते हैं और परमानन्द के कारण रूप अव्यय पद को पाता है । नासिका के अग्र भाग पर प्रणव ॥ ॐ ॥ शून्य (० और अनाहत (ह) इन तीनों का ध्यान करने वाला आठ प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर लेता है । जिनके नाम इस प्रकार हैं । [ १ ] अरणीमा सिद्धि [२] महिमा सिद्धी, [३] लघीमा सिद्धि, [४] गरिमा " सिद्धि, [५] प्राप्त शक्ति सिद्धी, [ ६ ] प्राकम्य शक्ति सिद्धी, [७] शित्त्व सिद्धी, और [5] वाशित्व सिद्धी, जिसका बयान विस्तार से षट पुरुष चरित्र के प्रथम सर्ग में श्लोक ८५२ से ६५६ तक किया है, जिज्ञासुत्रों को वह देखना चाहिये । इस प्रकार सिद्धियां प्राप्त कर निर्मल ज्ञान पाता है । इन तीनों का अर्थात ॐ, और अनाहत "ह" का ध्यान करने वाले को समग्र विषय के ज्ञान में प्रगल्लभता प्राप्त होती है । Scanned by CamScanner Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) द्वि पार्श्व प्रणव द्वन्द्व । प्रान्त योर्मायमाऽऽवृतम् ॥ "सोऽहं" मध्ये "वि' मर्धानं । अह म्ली कारं विचिन्तयेत् ।। होनों तरफ दो दो "ॐकार" अन्त के भाग में माया बीज , "ह्रीं" से वेष्टित मध्य में “सोऽहं” और सिर पर "वि' ऐसे "अहम्ली कार" का चिन्तवन करना जो इस प्रकार है । ॥ ह्रीं, ॐ, ॐ, स, हम्ली , हँ, ॐ, ॐ, ह्रीं ॥ ___यह विद्या गणधर महाराज भाषित है और निरवद्य विद्या है जो कामधेनु की तरह अचिन्त्य फल देने में समर्थ व कल्याणकारी है। षट कोण चक्र के प्रत्येक कोण में “फट' अक्षर स्थापन करना, और दाहिनी तरफ बाहर के भाग में "विचक्राय" स्थापन करना, बाईं तरफ "स्वाहा' स्थापन कर चिन्तवन करे और उसके बाहर, ॥ ॐ पूर्व नमो जिणाणं । इत्यादि से बाहर वेष्टित करले और फिर ध्यान करे। अष्टाक्षरी विद्या इस प्रकार बताई है कि आठ पत्र वाले कमल के अन्दर दीप्त तेजोमय प्रात्मा का ध्यान करना, और ॐकार पूर्वक पाद्यमन्त्र के वर्ण अनुक्रम से पत्र में स्थापित करना, और प्रथम पत्र पूर्व दिशा की तरफ गिनकर सब पत्रों में अनुक्रम से आठ वर्ण स्थापित कर ग्यारह सौ बार अष्टाक्षरी मन्त्र का जाप करना । पूर्व दिशा के अनुक्रम से दूसरे पत्रों को स्थापित कर Scanned by CamScanner Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) तमाम प्रकार के विघ्नों की शांति के लिये आठ रात्रि पर्यन्त योगीध्यानी कोई जाप करे तो आठ रात्रि व्यतीत होने के बाद जाप करते करते कमल के अन्दर पत्रों में आठ वर्ण अनुक्रम द्रष्टिगत होंगे । और इनको देखे बाद ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है कि भयङ्कर सिंह, सर्प, हाथी, राक्षस व व्यन्तरादि भी क्षण वार में शान्त हो जाते हैं और किसी प्रकार की पीडा न करते हैं बैठ जाते है या पास में फिरने लगते हैं। एहिक फल की इच्छा रखने वालों लो प्रणव ।। ॐ ।। पूर्वक इस मन्त्र का ध्यान करना चाहिये । और मोक्ष पद प्राप्त करने की इच्छा वालों को प्रणव रहित ध्यान करना चाहिये । ॥ श्रीमद्ऋषभादि वद्धं मानान्ते भ्यो नमः ।। इस मन्त्र को कर्म समूह की शान्ति के लिये चिन्तवन करना, और अन्य जीवों पर उपकार करने के लिये कर्मक्षय निमित्त ॐ अर्हन्मुख कमल वासिनी पापात्म क्षयं करि, श्रुत ज्ञान ज्वाला सहस्र प्रज्वलिते हे सरस्वती मत्पापं हन, हन, दह, दह, क्षाँ क्षी हूं क्षौं क्षः क्षीर धवले अमृत सम्भवे वं वं हँ हुँ स्वाहा ।। इस पाप भक्षिणी विद्या का स्मरण करना। इस विद्या के अतिशय प्रभाव से चित प्रसन्न होता है । पाप कालुष्य दूर हो जाता है, और ज्ञान रूप प्रदीप का प्रकाश होता है । ऐसा यह महा चमत्कारी मोक्ष लक्ष्मी का बीज भूत यह मन्त्र विद्या प्रवाद नाम के दशवें पूर्व में से उद्ध त किया हुआ है। ऐसे ज्ञानियों के Scanned by CamScanner Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) वचन हैं । यह मन्त्र जन्म जरा मृत्यु रूप दावानल को शान्त करने में न ये मेघ के समान है । अत: सिद्ध चक्र को गुरु गम से ज्ञात करके ध्यान करना चाहिये। नाभि कमल में रहे हुये सर्व व्यापि ।।अ।। अकार का चिन्तवन करना, मस्तक कमल में रहे हए ।। सि ।। वर्ण का चिन्तवन करना । मुख कमल में ।। आ ।। आकार चिन्तवन करना । हृदय कमल में ।। उ ।। उकार और कण्ठ पिञ्जर में ।। सा ।। साकार चिन्तवन करना और भी कल्याणकारी बीजाक्षर हैं उनका चिन्तवन करना चाहिये, और श्रुतरूप समुद्र में से जिनकी उत्पत्ति है ऐसे तमाम अक्षर पद आदि का ध्यान किया हो तो मोक्ष पद की सिद्धि प्राप्त होती है । ___ ध्यान करने वाले को चाहिये कि राग रहित होकर ध्यान करे तो अवश्य फलदायी होगा। रुपस्थ ध्येय स्वरूप जिनके सामने मोक्ष लक्ष्मो तैयार है। और सर्व कर्म का नाश करने में समर्थ हैं, चतुर्मुख वाले समस्त भुवन को अभय दान देने वाले, तीन मण्डल जैसे श्वेत तीन छत्र सहित शोभायमान, सर्य को विटम्बना करता भामण्डल जिनके पीछे झगझगाट कर रहा है, दिव्य देव दुन्दुभि के सुहावने नाद-गीत-गान के साम्राज्यसम्पत्ति वाले, भ्रमर शब्दों के झङ्कार से वाचाल अशोक वक्ष से शोभायमान, सिंहासन पर विराजमान, जिनके ऊपर चामर ढल रहे हैं, सुरासुर नमस्कार करते हैं, सुरासुर के रत्न जडित मकट कुण्डल की कान्ति से नमस्कार के समय पांव Scanned by CamScanner Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) के नख की दीप्त कान्ति वाले, दिव्य पुष्प-समूह से व्याप्त विशाल परिषद भूमि जहां विद्यमान है, ऐसा सुन्दर, रमणीय, सुहावना स्थान है, जहां पर मृग, सिंह, हाथी आदि तिर्यञ्च प्राणी भी निज का स्वाभाविक जाति वैर भाव को छोड़कर समवसरण के समीप आकर जिस जगह परमेष्टि स्वरूप त्रिलोकीनाथ सच्चिदानन्द परमात्मा विराजित हैं, उनके समीप आकर सर्व प्राणी मैत्री भाव से बैठे हुए हैं । उस समवसरण में अतिशय युक्त केवलज्ञान से प्रकाशमान ऐसे अरिहन्त भगवान के रूप का आलम्बन कर ध्यान करना उसको रूपस्थ ध्यान कहते हैं । राग, द्वेष और मोहादि विकारों से अकलङ्कित शान्त-कान्त मनोहर सर्व लक्षण युक्त, सुन्दर योग मुद्रा वाले जिनके दर्शन मात्र से अद्भुत आनन्द प्राप्त हो और नेत्र जहां से हटते भी न हो ऐसी जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा का भी निर्मल मन से लय लगाता हुआ निर्निमेष दृष्टि से ध्यान करे तो इस प्रकार के ध्यान को भी रूपस्थ ध्यान बताया है और यह अत्यन्त कल्याणकारी है । रूपस्थ ध्यान में तन्मय होकर लय लगाता हुआ ध्यान करने वाला प्रगट रूप में निज का सर्वज्ञ भूत होना देखता है । और उसे भास होता है कि यह जो सर्वज्ञ भगवान हैं, सो निश्चय करके मैं ही हूं । इस प्रकार की तन्मयता वाला ध्यानी पुरुष सर्वज्ञ की कोटि में गिना जाता है । वीतराग प्रभु का ध्यान करते हुए कर्मों का क्षय होता है, और ध्यानी वीतराग बन जाता है । जो मनुष्य रागी का आलम्बन लेगा रागी बनेगा । जो वीतराग का आलम्बन लेगा वीतराग बनेगा | क्योंकि यन्त्र वाहक जिस जिस भाव से तन्मय होता है, उसके साथ आत्मा विश्व रूप मरिण की तरह तन्मयता पाता है । और यह उदाहरण स्पष्ट है जैसे स्फटिक मरिण के पास 1 Scanned by CamScanner Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) जैसा रङ्ग होगा वैसा ही दीखता रहेगा, अतः सफेद अरिसा के तुल्य हृदय बनाकर रूपस्थ ध्यान किया जाय तो आनन्द की सीमा न रहेगी, जो लोग ध्यान के अभ्यासी हैं उनके लिये यह ध्यान कोई मुश्किल बात नहीं है । जो अनन्त सूख की अभिलाषा वाले हैं उन्हें यह ध्यान अवश्य करना चाहिये । रुपातीत ध्येय का स्वरूप अमूर्त, सच्चिदानन्द स्वरूप निरञ्जन-सिद्ध परमात्मा का ध्यान जो निराकार-रूप रहित जिसको रूपातीत ध्यान कहते हैं । रूपातीत ध्यान बहुत उच्च कोटि का है । जो इस ध्यान को सिद्ध (स्वरूप) भगवान का आलम्बन लेकर नित्य प्रति ध्यान करते हैं, वह योगी ग्राह्य, ग्राहक भावरहित तन्मयता को प्राप्त करता है और अनन्य शरणी होकर इस प्रकार तन्मय हो लयलीन हो जाता है कि ध्यानी और ध्यान के अभाव से ध्येय के साथ एकरूपता प्राप्त कर लेता है । जो इस प्रकार एकरूपता में लीन हो जाता है उसका नाम आसमरसीभाव कहते हैं । अर्थात् एकीकरण, अभेदपन माना है कि जो आत्मा अभिन्नता से परमात्मा के विषे लयलीन होता है उसी के कार्य की सिद्धि होती है। लक्ष्य ध्यान के सम्बन्ध से अलक्ष्य ध्यान करना । स्थूल ध्यान से सूक्ष्म ध्यान का चिन्तवन करना सालम्बन से निरालम्बन होना, इस प्रकार करने से तत्त्वज्ञ योगी शीघ्र ही तत्व प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार चार तरह के ध्यानामृत से मग्न होने वाला मुनि योगी का मन जगत् के तत्वों को साक्षात कर आत्मा की शुद्धि कर लेता है। Scanned by CamScanner Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) धर्म ध्यान आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान का चिन्तवन करने से ध्येय के भेद सहित धर्म ध्यान के चार प्रकार बताये गये हैं जिसका संक्षेप वर्णन इस प्रकार है । (१) श्राज्ञा ध्यान उसको कहते हैं कि सर्वज्ञ प्रभु की अबाधित प्रज्ञा समक्ष रखकर तत्त्व बुद्धि से अर्थ चिन्तवन करना, उसका मनन करना और वर्तन करना । जिनेश्वर भगवान् के वचन सूक्ष्म हैं और हेतु युक्ति से खण्डित नहीं हो सकते, जिनेश्वर प्रभु असत्य उच्चार नहीं करते, इसलिए उनके वचन ग्रहण करने योग्य होते हैं । और जो ग्रहण करते हैं वह आज्ञा रूप ध्यान की कोटि में गिने जाते हैं । 1 (२) पाय विचय ध्यान उसको कहते हैं कि जिस ध्यान के प्रताप से राग, द्व ेष, कषाय आदि से उत्पन्न होने वाले दुखों का चिन्तवन होता हो, और जिसको इस प्रकार का चिन्तवन होता है वह पुरुष इस लोक व परलोक सम्बन्धी पाप का त्याग करने में तत्पर होकर सर्व प्रकार के पाप कर्म से निवृत्ति पाता है । और सन्मार्ग में चलता है व कर्म बन्धन को रोकता रहता है । (३) विपाक विचय ध्यान उसको कहते हैं कि इस ध्यान से क्षरण क्षरण में उत्पन्न होने वाले कर्म फल के उदय का अनेक रूप से विचार किया जाय और कर्म समूह से अलग होने की भावना भायी जाय और यही सोचता रहे कि अरिहन्त भगवान् को जो सम्पदा सम्प्राप्त है, और नर्क के जीवों को जो विपदा प्राप्त है । उसमें पुण्य और पाप का ही साम्राज्य है । ( ४ ) संस्थान विचय ध्यान उसका नाम है कि जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, और नाश स्वरूप वाले अनादि अनन्त लोक की Scanned by CamScanner Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) प्रकृति का चिन्तवन हो । और विविध द्रव्यान्तरगत अनन्त पर्याय का परिवर्तन होने से नित्य आसक्त होने वाला मन राग द्वेषादि मोहजन्य प्रवृत्ति की तरफ आकुलता को प्राप्त नहीं करता । इस प्रकार चारों भेद का वर्णन संक्षेप से किया गया । इसका वर्णन विस्तार पूर्वक जानना चाहते हों उन्हें मुनि महाराज आदि से पूछना चाहिये । विधि-विधान जैन सिद्धान्त मंत्र - शास्त्रों में जप जाप्य का स्पष्टीकरण विशेष रूप से किया है । लेकिन वर्तमान जैन प्रजा में से बहुत से व्यक्ति का लक्ष्य विधि-विधान की तरफ तो कम हो गया और कार्य सिद्धि की तरफ बढ़ गया हो ऐसा मेरा अनुमान है ! परन्तु विधि-विधान ज्ञात किये बिना मन्त्र सिद्धि असम्भव है । हर एक मन्त्र साध्य करने के पहले शुभ महीना शुभ पक्ष पञ्चमी दशमी पूर्णिमादि पूर्णा तिथि चन्द्र बल सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, आनन्द योग, श्री वत्स योग, छत्र योग आदि श्रेष्ठ देखकर बलवान नक्षत्र और बलवान लाभकारी चौपड़ियों में निज का सूर्य स्वर चलता हो तब प्रवेश करना चाहिये । साध्य करने के लिये देवस्थान, या अन्य उत्तम स्थान, बाग या जलाशय के समीप भूमि पर याने ऊपर की मंजिल पर नहीं और भूमि तल या तल घर में बैठकर ध्यान करना चाहिये । ध्यान करने में दत्त चित्त रहना और किसी कार्य की सिद्धि के लिये प्रयत्न हो तो यथा योग्य सामग्री एकत्रित कर धूप दीप, फल मादि की व्यवस्था कर लेना चाहिये, दीपक लालटेन में और जीव Scanned by CamScanner Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) को विराधना न हो, इस प्रकार उपयोग सहित रखना चाहिये। जैसा मन्त्र हो वैसा ही आलम्बन सामने स्थापित करना जो पाटबाजोट पर हो और आलम्बन के दाहिनी तरफ दीपक रखना जो , आलम्बन के चित्र की चक्षु के बराबर याने सीध में रहे धूपअगरबत्ती आलम्बन के बांई तरफ रखना। न द्रव्य की इच्छा वाले को पूर्व दिशा की तरफ मुख रखते हुए बठना चाहिये । सफेद कपड़े सफेद आसन सफेद माला लेना और हिक सुख आदि में भी यही विधान उपयोगी होगा। * कष्ट निवारणार्थ संकट दूर करने हेतु जाप किया जाय तो उत्तर दिशा लाल आसन लाल रङ्ग की माला और कपड़े भी लाले पहन कर जाप करना चाहिये। अन्य क्रूर कार्य उच्चाटन आदि में दक्षिण दिशा नीले व .. काले रङ्ग का आसन काली माला या नीली आसमानी वर्ण की माला लेनी चाहिये। किसी कार्य के हेतु पीले रङ्ग का आसन पीली माला पीले कपड़े और पश्चिम दिशा भी ली गयी है । जाप करने से पहले जिस कार्य के लिये जाप करना हो उसके नाम से लेकर अमूक : संख्या में त्रिकाल या प्रांतःकाल जिस तरह जाप करने का विचार हो सङ्कल्प करना चाहिये, और सङ्कल्प के बाद जाप पूरा हो जाने पर किसी उत्तम पुरुष की साक्षी में उत्तर क्रिया याने सिद्धि क्रिया करना चाहिये जिसके अलग अलग विधान है, साध्य कराने वाला जैसा योग्य हो उस मुवाफिक क्रिया करावे और सिद्धि क्रिया में षोडांश जाप अवश्य करना उचित है। सिद्धि क्रिया का समय अर्द्ध रात्रि या पिछली रात्रि का है और प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य के समय तो जैसा समय दिन को या रात को अनुकूल आवे । तदनुसार करने में हर्ज नहीं है। * समाप्त * Scanned by CamScanner Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * LESS PRINTED BOOKS Clause 121 of P. & T. XF B drill Guleb cheind Nemichand kotcher. ou Surana market ryo b| 30o PALI- 306401 Eel4) 385210 (B.K.) Fromमुनि अभयचन्द्र विजय Co भारत प्रोविजन स्टोस FALNA-306 16 (W.Rty:) Scanned by CamScanner