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पिण्डस्थ ध्येय स्वरूप
पिण्डस्थं च पदस्थं च ।
रूपस्थं रूप वर्जितं ।।
चतुर्धा ध्येय माम्नात । ध्यानस्यालम्बनं बुधै ॥
|| योगशास्त्र ||
ध्येय का स्वरूप बताते हुए बयान किया है कि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के ध्येय को ध्यान के आलम्बन भूत मानना चाहिये ।
ध्येय शुद्ध करने के बाद धारणा को समझना चाहिये । जिसके पांच भेद बताये गये हैं । प्रथम 'पार्थिवी' दूसरी 'आग्नेयी' तीसरी 'मारूती' चौथी 'वारूणी' और पाँचवी 'तत्वभू' यह पांचों धारणायें पिण्डस्थ ध्यान में होती हैं जिनका संक्षेप वर्णन इस प्रकार है ।
तीक लोक जितने क्षीर समुद्र की चिन्तवना करे और उसमें जम्बू द्वीप जितना एक हजार पांखड़ी वाला सुवर्ण जैसी कान्तियुक्त कमल का चिन्तवन करे । उस कमल की केसरा पंक्ति में प्रकाशमान प्रभावशाली मेरु जितनी पीले रंग की करिणका का चिन्तवन करे । उसके ऊपर श्वेत सिंहासन पर विराजमान निज की आत्मा का चिन्तवन करे, और कर्म निर्मूल करने के लिये प्रयत्नशील, उद्यमवन्त होकर कर्मक्षय का चिन्तवन करना उसको पार्थिवो धारणा कहते हैं ।
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