________________
( ४१ )
द्वि पार्श्व प्रणव द्वन्द्व ।
प्रान्त योर्मायमाऽऽवृतम् ॥ "सोऽहं" मध्ये "वि' मर्धानं । अह म्ली कारं विचिन्तयेत् ।।
होनों तरफ दो दो "ॐकार" अन्त के भाग में माया बीज , "ह्रीं" से वेष्टित मध्य में “सोऽहं” और सिर पर "वि' ऐसे "अहम्ली कार" का चिन्तवन करना जो इस प्रकार है ।
॥ ह्रीं, ॐ, ॐ, स, हम्ली , हँ, ॐ, ॐ, ह्रीं ॥ ___यह विद्या गणधर महाराज भाषित है और निरवद्य विद्या है जो कामधेनु की तरह अचिन्त्य फल देने में समर्थ व कल्याणकारी है।
षट कोण चक्र के प्रत्येक कोण में “फट' अक्षर स्थापन करना, और दाहिनी तरफ बाहर के भाग में "विचक्राय" स्थापन करना, बाईं तरफ "स्वाहा' स्थापन कर चिन्तवन करे और उसके बाहर,
॥ ॐ पूर्व नमो जिणाणं । इत्यादि से बाहर वेष्टित करले और फिर ध्यान करे।
अष्टाक्षरी विद्या इस प्रकार बताई है कि आठ पत्र वाले कमल के अन्दर दीप्त तेजोमय प्रात्मा का ध्यान करना, और ॐकार पूर्वक पाद्यमन्त्र के वर्ण अनुक्रम से पत्र में स्थापित करना, और प्रथम पत्र पूर्व दिशा की तरफ गिनकर सब पत्रों में अनुक्रम से आठ वर्ण स्थापित कर ग्यारह सौ बार अष्टाक्षरी मन्त्र का जाप करना । पूर्व दिशा के अनुक्रम से दूसरे पत्रों को स्थापित कर
Scanned by CamScanner