Book Title: Mokshmarg Ek Adhyayan
Author(s): Rajesh Jain
Publisher: Rajesh Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2014 मोक्ष मार्ग एक अध्ययन शान्तिः ॐ | ॐ ॐ राजेश कुमार जैन, मुरादाबाद रचियता,संग्रह कर्ता एंव शोध कर्ता Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | "मोक्ष मार्ग एकअध्ययन” मूलनायक अतिप्राचीन तोकिरपोआदिजायजी ऊँ ही अहँ श्री आदिनाथाय नमः (ज्ञान, ध्यान, और तप) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |"मोक्ष मार्ग एकअध्ययन ਕਵn cਕੇ तममा मा ज्यातगमय: जय जिन्नेद्र “जिनवाणी की स्तुति” वीर हिमाचल तै निकसी गुरू गौतम के मुख कुण्ड ढरी है। मोह-महाचल भेद चली, जग की जडता-तप दूर करी है।। ज्ञान पयोनिधि माहि रली बहु भंग तरंगनि सों उछरी है। ता शुचि शारद-गंगनदी-प्रति मै अंजुरी करि शीश धरी है। या जग- मन्दिर मे अनिवार अज्ञान-अन्धेर छयो अति भारी। श्रीजिन की ध्वनि दीपशिखा सम जो नहि होत प्रकाशन हारी तो किस भांति पदारथ-पांति कहां लहते, रहते अविचारी। या विधि संत कहै धनि हैं धनि हैं जिन बैन बडे उपकारी।। जा वाणी के ज्ञान ते, सूझे लोक अलोक। सो वाणी मस्तक नमों, सदा देत हूं धोक।। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से: | “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन” को लिखने की प्रेरणा मुझे अपनी माता जी श्री मति प्रेम लता जैन से मिली, हुआ यो कि मै एक दिन अपनी माता जी से धर्म चर्चा कर रहा था और विषय था सम्यग्ज्ञान मेरे व्याख्यान से माता जी संतुष्ट होकर कहने लगी कि अब ये ज्ञान लोगों में बाटो। अक्टूबर-2012 से “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन” लिखना प्रारम्भ किया, और 13 जून 2013, श्रुत्र पंचमी के दिन wordpress पर अपलोड किया। शीध्र ही blogspot पर भी नमिनाथ भगवान के जन्म कल्याणक पर July 2, 2013 को अपलोङ किया। करीब नौ महीने का समय लगा। “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन" को लिखने का आधार निम्लिखित शास्त्र जी हैं। • समयसार, श्री कुन्द-कुन्द आचार्य, कविवर बनारसी दास। • तत्वार्थ सूत्र, श्रीमद उमास्वामि विरचित। • रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य श्री समन्तभद्र, पधानुवादक: श्री ज्ञानमति माताजी। • चोबीसी पुराण, आचार्य श्री समन्तभद्र, कविवर पं श्री पन्नालाल जी। • पद्म पुराण, आचार्य श्री रविषेण, कविवर पं दौलत राम जी।। सोशल साईट फेस बुक, टुईटर, ओरकुट पर प्रचार किया गया, तीर्थ क्षेत्र जम्बू दीप, कैलश पर्वत, शिखरजी, महावीरजी को ईमेल भेजा, जैन यूनिवर्सटी सोलापुर, मंगलायतन, टी.एम.यू को ईमेल भेजा ताकि सभी लोग पढ कर कमेंट भेज सकें। शुभकामनाएं मिली किसी ने भी कोई भी विरोध नहीजताया। अध्यात्म समुन्द्र के समान विशाल है और मेरी बुद्धि छोटी नदी के समान है, अतः मोक्ष मार्ग को रचने मे कुछ कमियाँ रह गयी होगी। पाठकों से मेरी विनती है कि कमियों को सुधारने मे सहयोग करें एंव ग्रंथ से धर्म लाभ प्राप्त करें। ___ मै अपने परिवार के उन सब लोगों का आभार प्रगट करना चाहता हूँ जिन्होंने मुझे सहयोग दिया। मैं पंच परमेष्टि का शुक्र गुजार करता हुआ, नमन करता हुआ अपनी कलम को विराम देता Dated: Sep 3, 2013 राजेश कुमार जैन पुत्र स्व श्री श्री पाल जैन, मुरादाबाद, यू.पी, भारत! Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शुभकामनाएं" "मोक्ष मार्ग एक अध्ययन” सम्पूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ हैं इसमे 11 मोती अर्थात मंगलाचरण, अणुव्रत, दश लक्षण धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, 16 भावनाएँ, समाधिमरण, जिनवाणी की स्तुति, ग्यारह प्रतिमाएं, एंव श्रावक प्रतिक्रमण हैं!लेखक राजेश मेरा बडा पुत्र जिसका जन्म 3-4-1961 ( तीन अप्रैल उन्नीस सौ इकसठ ) को मेरठ (यू.पी) मे हुआ था। बच्चपन से ही होशियार हैं। पिछले 30-35 वर्षों मे परिवार, प्रोफेशन, समाज एंव धर्म को समर्पित रहा हैं। “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन” का ज्ञान हर परिवार तक पहुँचाने की इच्छा हैं। स्थानः- मुरादाबाद प्रेम लता जैन दिनाकः- 25-5-2013 पंचम काल मे गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए चारो पुरूषार्थ अथार्त अर्थ, धर्म, काम, एंव | मोक्ष को प्राप्त करने का सच्चा मार्ग दिखाया गया हैं। मुझे आशा है कि इस ग्रंथ के अध्ययनसे मनुष्य लाभान्वित होंगे। लेखक राजेश कुमार जैन मेरा दामाद है और मै इसे पिछले 28 वर्षों से जानती हूं। मैं अक्सर पूछती हूँ तुम्हे इतना ज्ञान कहाँ से मिला और राजेश हँस कर टाल देता हैं। स्थानः- गाजियाबाद सुशीला जैन दिनाक:-26-5-2013 अणुव्रत, दश लक्षण धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, 16 भावनाएं, समाधिमरण का चित्रण सरल भाषा में किया हैं। आशा है कि इस के अध्ययनसे धर्म लाभ मिलेगा।लेखक राजेश कुमार जैन मेरे पति है।पिछले पाँच वर्षों में एकासन, ब्रह्मर्चय, मौन व्रत, रस त्याग, सामायिक, शास्त्र अध्ययनआदि से धर्म लाभ लिया हैं। अक्टूबर-2012 से “मोक्ष मार्ग एक अध्धयन” को रचने में अथक परिश्रम किया हैं। स्थानः- मुरादाबाद अल्का जैन दिनाकः- 29-5-2013 AR Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “प्रथम संस्करण हेतू अनुदान” स्वामी कार्तिकेय ने आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतू शास्त्र दान श्रावक के लिए प्रधान धर्म एंव अनिवार्य कर्म बताया हैं।“मोक्ष मार्ग एक अध्ययन" को मुफ्त में उपलब्ध कराने के लिए दान दाता राशि PNB की CBS Branch मे | A/C No 4070000300016263, राजेश कुमार जैन मे जमा कराऐं ! Branch IFS code is PUNB0407000. ।। श्री श्री 1008 श्री पार्श्वनाथाय नमः ॥ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं नमो आयरियाण णमो उवज्झायाणं णमो लोए सचसाहू Price: Rs 100/(One Hundred Only) Copyright © Rajesh Kumar Jain, Moradabad-UP-India, Email:skylark.jain@gmail.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा परमो धर्म सुविचार "जिओ और जीने दो जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है हमारा स्वभाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली. अगर हमारी आत्मा जागरित न हुई तो कागज की डिग्री व्यर्थ है। "जीवन परिचय --- प्रेमचंद नाम राजेश कुमार जैन पिता स्व श्री श्री पाल जैन माता । श्री मति प्रेम लता जैन गोत्र | गर्ग जन्म तिथि 3-4-1961 जन्म स्थान मेरठ (यू.पी) शिक्षा मिडिल नौकरी बीस वर्ष व्यवसाय सात वर्ष तकनीकी शिक्षा कम्पयूटर एप्लीकेशन तकनीकी मेम्बरशिप ITTAC(1988-1990) शास्त्र अध्ययन पाँच पत्नी श्री मति अल्का जैन E रजत जैन E वरूण जैन पुत्र वधु E वर्तिका जैन वर्तमान निवास । मुरादाबाद (यू.पी) ulnes 2000 माँ सरस्वति की मुझ पर असीम कृपा है, मुझे तीन बार शैषिक ज्ञान बढाने का अवसर मिला, पहला 1977-1980 जब मैं मेरठ यूनिवर्सिटी से बी.एस .सी. कर रहा था दो वर्ष बाद मुझे जाब पुत्र Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल गयी और मैने ड्रिग्री के बजाय जाब को चुना। दूसरा अवसर 1987-1992 जब मुझे मैकेनिकल ईन्जिनीयरिंग Institution of Engineers India, Calcutta (Distance learning) से मिला, विषयों का अध्ययन तो किया परन्तु, Exam न दे सका। तीसरा अवसर 1995 मे मिला जब मेरा एडमिशन बी. टैक. कम्पयूटर साईंस (पार्ट टाइम) ग्वालियर मे हुआ, दो वर्ष तक सब ठीक-ठाक चला परन्तु 1997 मे मुझे बडौदा ट्रांस्फर कर दिया गया और फिर ड्रिग्री न ले सका। मै खुश हू कि मुझे कम्पयूटर का ज्ञान तो मिला। मेरे दादा स्व. श्री मुकुन्द लाल जैन, श्वेताम्बर स्थानकवासी तथा मेरी दादी स्व. श्री सूर सुन्दरी देवी दिगम्बर जैन का मुझ पर असीम प्रेम था तथा दौनो ही धार्मिक प्रवृति के थे, सो मेरे दादा मुझे स्थानक मे ले जाते थे वहाँ मुझे आचार्य श्री 108 फूल चन्द जी महाराज एंव उन्के शिष्य आचार्य श्री 108 जिनेन्द्र मुनि महाराज से कई बार प्रवचन सुनने का मौका मिला। मेरी दादी मुझे दिगम्बर मुनि के प्रवचन सुनाने के लिए ले जाया करती थी। सो बचपन से ही धार्मिक संसकारों का धनी रहा। मेरे पिता स्व श्री श्री पाल जैन, जो कि सामायिक प्रवति के थे एंव उनकी प्रेरणा से मेरठ शास्त्री नगर डी ब्लाक में भव्य मन्दिरका निर्माण हुआ। मेरी माता जी श्री मति प्रेम लता जैन जप तप में समय व्यतीत करती हैं। अतः धर से ही धर्म ध्यान की शिक्षा मिली। पच्चीस वर्ष की आयु मे मुझे बडे गाँव मन्दिर प्रागण मे दिगम्बर साधु को नवधा भक्ति के साथ आहार दान एंव धर्म चर्चा का लाभ मिला। महाराज श्री ने मुझे अणुव्रत का पाठ पढाया। तीस वर्ष की आयु मे मुझे आचार्य श्री 108 कल्यान सागर जी महाराज के सानिध्य मे सिद्ध चक्र का पाठ (एकासना के साथ) मेरठ मे करने का धर्म लाभ मिला। तभी से मुझे मोक्ष मार्ग का ज्ञान प्राप्त हुआ। 2008 में आर्थिक मंदी के चलते मेरी जाब चली गयी तथा मुझे फिर से धर्म-ध्यान का अवसर मिला। 2010 मे मुझे स्वपन मे दौ प्रतिमाएं खडी अवस्था में (मेरी जन्म नगरी) मे दिखीं एंव वैराग्य भाव उत्पन्न हुऐं। परन्तु वर्तमान मे मुझ पर मेरी माता जी एवं पत्नी की जिम्मेवारी होने के कारण दीक्षा न ले सका एवं घर से ही धर्म-ध्यान (ज्ञान, ध्यान, और तप) में आसक्त हुआ। 2012 मे अचानक से मेरी कलम चलने लगी एंव मोक्ष मार्ग एक अध्ययनरचित हुआ। walk on kidol, Liv Healthy and Gave invironment Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “मंगलाचरण” सर्वे, श्रोतारः सावधानतया श्रृण्वन्तु! योग Nauset wat oueret मोखामो नमो ॐ नमः सिद्देभ्यः ॐ नमः सिद्देभ्यः ऊँ नमः सिद्देभ्यः, ऊँ जय जय जय नमोस्तु! नमोस्तु!! नमोस्तु!!! णमो अरिहंताणं, णमो सिद्राणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं! ओंकार बिन्दु संयुक्तं, नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ओंकारय नमो नमः।।1।। | अज्ञान- तिमिरांधानां ज्ञानान्जन-शलाकया। अविरल-शब्द-धनौध-प्रक्षालित-सकल-भूतल-मलकलङ्का। मुनिभिरूपासित तीर्था सरस्वती हरतु ना दुरितान् चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। 2।।, ।। श्री परमगुरवे नमः परम्पराचार्यगुरवे नमः।। सकल-कलुष-विध्वंसकं श्रेयसां परिवर्धकं, धर्म-सम्बन्धकं, भव्य-जीव-मनः प्रतिबोधकारकमिंद शास्त्र श्री “मोक्ष मार्ग का अध्ययन” नामधेयं रचियता, संग्रह कर्ता एंव शोध कर्ता, श्री राजेश कुमार जैन, मुरादाबाद है। मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाधो, जैन धर्मोङस्तु मंगलं ।। सर्व मंगल्य मांगल्य सर्व कल्याण कारकं । प्रधानं सर्व धर्माणां जैनं जयतु शासनम् ।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “मंगलाचरण” का हिन्दी भार्वाथ" बिन्दु सहित ओंकारको योगी सर्वदा ध्याते हैं।मनोवांछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ओंकारको बार-बार नमस्कार हो।। दिव्यध्वनि रूपी मेध-समूह से जिसने संसार सम्बन्धी समस्त पाप रूपी मैल को धो दिया है, मुनिगण जिसकी तीर्थ के रूप मे उपासना करते है ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो। जिसने अज्ञानरूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञान रूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं उस श्री गुरू को नमस्कार हो।परम गुरू को नमस्कार हो परम्परागत आचार्य गुरू को नमस्कार हो।समस्त पापों का नाश करने वाला, कल्याणों का बढाने वाला, धर्म से सम्बन्ध रखने वाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध - सचेत करने वाला यह शास्त्र “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन” नाम का है। इसके रचियता, संग्रह कर्ता एंव शोध कर्ता, श्री राजेश कुमार जैन, मुरादाबाद, हैं। महावीर स्वामी मंगल के कर्ता हों, गौतम गणधर मंगल कर्ता हों, कुन्दकुन्दस्वामी आदि आर्चाय मंगलकारी हों तथा जैन धर्म मंगलदायी होवे।सभी मंगलों में मंगल स्वरूप, सभी कल्याणकों को करने वाला, सभी धर्मों में प्रधान, जैन शासन जयवंत हो। | हे श्रोताओं सावधानी से ध्यान लगाकर सुनिये। 510 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रस्तावना अहिंसा परमो धर्म, जिओ और जीने दो के संदेश एंव जैन दर्शन को समझकर मोक्ष मार्ग का अध्ययनएक चुनौती पूर्ण कार्य था। बच्चपन के संस्कार, शास्त्रों का अध्ययन, गुरूओं का समागम, शंका समाधान, ध्यान और तप के चलते यह कार्य करने मे कुछ सफल रहा। अर्थ, धर्म, कर्म, एंव मोक्ष पुरूषार्थ हैं। ज्ञान और अनुभव के द्वारा इन सब को पाया जा सकता है, स्त्री, पुरूष एंव नपुंसक मे कोई भेद नही है। ज्ञान संग वैराग्य मोक्ष मार्ग की प्रेरणा है। _“अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप। अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोख सरूप"। अर्थात, अनुभव चिंतामणि रत्न है, शान्ति रस का कुआँ है, मुक्ति का मार्ग है और मुक्ति स्वरूप है।। "ग्यान सकति वैराग्य बल, सिव साधैं समकाल। ज्यौं लोचन न्यारे रहैं, निरखें दोउ नाल"।। अर्थात, ज्ञान - वैराग्य एक साथ उपजने से सम्यग्दृष्टि जीव मोक्ष मार्ग को साधते हैं, जैसे कि दोनों नेत्र अलग-अलग रहते है पर देखने का काम एक साथ करते हैं। पाप एंव पुण्य दौनौ ही से कर्मो का बंध होता है।कर्मो की निर्जरा ही मोक्ष है। ज्ञान, ध्यान और तप मोक्ष मार्ग की शुरूआत हैं। अणुव्रत मोक्ष मार्ग की पहली सीढी हैं। मेरा लचीला व्यवहार, पहनावा आदि देखकर कोई भी मुझे रसिक समझ लेता हैं। मै कहना चाहता हूँ कि अध्यातम एंव श्रृंगार रस दौनौ ही मुझ मे हैं। मेरा रसिक व्यवहार केवल मेरी पत्नी के लिए है और मै शील ब्रह्मर्चय व्रत का पालन करता हूँ। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “मोक्ष मार्ग एक अध्ययन अणुव्रतआदि श्रावक के आठ मूल गुण दश लक्षण धर्म सम्यग्दर्शन TALATHE सम्यकचारित्र 16 भावनाएं (ज्ञान, ध्यान, और तप) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत: अहिंसा सत्य अचौय अपरिग्रह ब्रह्मर्चय अहिंसा:-हिंसा का त्याग करना अहिंसा अणुव्रत का पालन है। सभी जीवो को अपना जीवन प्यारा होता है। उस जीव का धात करना अथवा कष्ट पहुँचाना ही हिंसा है। हिंसा चार प्रकार की होती है। 1. संकल्पी हिंसा 2. उधमी हिंसा 3. आरम्भी हिंसा 4. विरोघि हिंसा सत्य:- झूठ न सवंय बोलना न दूसरो से बुलवाना और ऐसा सत्य भी नही बोलना जो दूसरो को विपत्ति देने वाला हो जावे, उसे सत्य अणुव्रत कहते है। अचौय:- पर की वस्तु रखी हुई, गिरी हुई या भूली हुई हो ऐसी पर वस्तु को बिना दिए न स्वंय लेना न दूसरो को देना अर्गीय अणुव्रत कहलाता है। अपरिग्रह:- खेत (दुकान, फैक्ट्री), मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दास, दासी, वस्त्र, बर्तन आदि इन दस प्रकार का परिग्रहों का परिमाण करके फिर उससे अधिक नही चाहना अपरिग्रह परिमाण अणुव्रत है। ब्रह्मर्चय:- जो पाप के डर से हर स्त्री के साथ काम भोग न स्वंय करते हैं न ऐसा दुष्चरित अन्य से ही करवाते हैं, अर्थात अपनी स्त्री मे ही संतोष रखते हैं वे कुशील त्यागी मनुष्य शील धुरंधर व्रती ब्रह्मर्चय अणुव्रत के धारी होते हैं। 413 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “दश लक्षण धर्म" उत्तम उत्तम उत्तम उत्तम उत्तम उत्तम | उत्तम उत्तम| उत्तम | उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य | शौच संयम | तप त्याग आकिंचन ब्रह्मर्चय उत्तम क्षमाः- क्रोघ के क्षय होने से प्रगट होती है। क्षमावान् प्राणी कदापि किसी जीव से वैर विरोध नही करता है और न किसी को बुरा-भला कहता है। किन्तु दूसरों के द्वारा अपने उपर लगाये हुये दोषों को सुनकर अथवा आये हुवे उपद्रवों पर भी विचलित नही होता है, और उन दुख देने वाले जीवों पर उलटा करुणाभाव करके क्षमा देता है। इस प्रकार यह क्षमावान् पुरुष सदा निबैर हुआ, अपना जीवन सुख शांतिमय बनाता हैं। “मैं सबको नमन करू, सब प्रभुजी को नमन करें। मैं सब को क्षमा करू, सब मुझे क्षमा करें"।। उत्तम मार्दव:- मान के क्षय होने से होता है ।जाति, कुल, एशर्वय, विधा, तप, और रुपादि समस्त प्रकार के मदों के नाश होने से विनय भाव प्रकट होता है । प्राणी सबसे यथायोग्य मिषटवचन बोलता है | इसी से यह मिषट भावी विनयी पुरुष सर्वप्रिय होता है और किसी से द्वेष न होने से आनन्द मय जीवन यात्रा करता है। उत्तम आर्जव:- जो कुछ बात मन मे होती है, सो ही वचन से कहना और कही हुई बात को पूरी करना ऐसा पुरुष आर्जव (सरलता) को घारण करता है। इस प्रकार यह सरल परिणामी पुरुष निष्कपट होने के कारण सुखी होता है। उत्तम सत्य:- सत्यवान पुरुष सदैव जो बात जैसी है, अथवा वह जैसी उसे जानता समझता है, वैसी ही कहता है, अन्यथा नही कहता, कहे हुये वचनो को नही बदलता और न कभी किसी को हानि व दुख पहुँचाने वाले वचन बोलता है। वह तो सदैव अपने वचनो पर दृढ रहता हैं। इसके उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, ये तीनो धर्म अवश्य होते है। वह पुरुष संसार मे सम्मान व सुखो को प्राप्त होता है। उत्तम शौच:- शौचवान नर उपर्युत्त चारों धर्मो को पालता हुआ अपनी आत्मा को लोभ से बचाता है| और जो पदार्थ न्यायपूर्वक उधोग करने से उसे प्राप्त होते हैं उसी मे संतोष करता है और कभी स्वप्न मे भी परघन हरण करने के भाव नही रखता तृष्णा न होने के कारण सदा आनंद मे रहता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम संयम:- संयमी पुरुष अपनी इन्दियों को उनके विषयो से रोकता हैं। ऐसी अवस्था में उसे कोई पदार्थ इष्ट व अनिष्ट प्रतीत नही होते है तब वह समभाव होता हैं और आनंद को प्राप्त करता है। उत्तम तप:- तपस्वी पुरुष इन्दियों को वश करता हुआ मन को भी पूर्ण रूप से वश करता है। मन को चंचल होने से रोकता है किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नही होने देता है। इच्छा न रहने के कारण आकुलता नही होती है। अपने उपर आने वाले सब प्रकार के उपसर्गो को धीरता पूर्वक सहन करने मे समर्थ होता है। ऐसे पुरुष को धर्मध्यान व शुक्लध्यान होता है जिससे वह अनादि से लगे हुये कठिन कर्मो को अल्प समय मे नाश करके सच्चे सुखों का अनुभव करता है। उत्तम त्याग:- त्यागी पुरुष के उक्त सातों गुण तो होते ही है तथा उस पुरुष की आत्मा बहुत उदार हो जाती है। वह अपनी आत्मा से राग द्वेष भावों को दूर करके चार संघो को आहार आदि चारों प्रकार के दान देता है और दान देकर अपने को घन्य व स्व सम्पति को सफल हुई समझता हैं। उस व्यक्ति का मन धन आदि में फंसकर आर्त और रौद्र कभी नही होता है। ऐसा पुरुष सदा प्रसन्नचित रहता है और उसकी आत्मा सदगति को प्राप्त होती है। उत्तम आकिंचन:- समस्त प्रकार के परिग्रहों से ममत्व भावों को छोङ देने वाला पुरुष सदैव निभर्य रहता है, उसे कुछ भी खोने का डर नही होता है तथा अपने शरीर तक से निस्पृह रहता है तब ऐसे महापुरुष को कोईपदार्थ आकुलित नही कर सकता है। ऐसा पुरुष आत्मा के सिवाय समस्त पदार्थ को त्याज्य समझता है उसे कुछभी ममत्व शेष नही रहता है और समय-समय असंख्यात व अनन्तगुणी कर्मो की निर्जरा होती रहती है। उत्तम ब्रह्मर्चय:- ब्रह्मर्चयधारी महाबलवान पुरुष सदैव अपनी आत्मा मे ही रमण करता है। उसकी दृष्टि मे सब जीव संसार मे एक समान प्रतीत होते है तथा स्त्री पुरुष व नपुंसक आदि का भेद कर्म की उपाधि जानता है। यह शरीर हाङ, मांस, मल, मूत्र आदि रागी जीवों को सुहावना लगता है। यदि चाम की चादर हटा दी जाय अथवा बुढापा आ जाय तो फिर इसकी ओर देखने को भी जी न चाहे ऐसा सोचकर घृणित शरीर मे क्रीडा करना छोड देता है। ऐसे महापुरुष का आदर सब जगह होता है। अखण्ड ब्रह्मर्चयधारी संसार के समस्त कार्य करने में सक्षम होता है। "जाप' ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मर्चय, दश- लक्षण धर्माय नमः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “रत्नत्रय” सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान - सम्यकचारित्र सम्यग्दर्शन:- मद आदि पच्चीस दोषों से रहित एंव आठ अंगो सहित पुरूष सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता हैं। आठ मद शंकादि आठ दोष छः अनायतन आठ अंग मद:- अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, वैभव, तप, और रूप का गर्व करना आठ मद हैं। दोष:- जिन वचन में संदेह, आत्म स्वरूप से चिगना, विषयों की अभिलाषा, शरीरादि से ममत्व, अशुचि मे ग्लानि, सहधर्मियों से द्वेष, दूसरो की निंदा, ज्ञान की वृद्धि आदि धर्म - प्रभावनाओं मे प्रमाद। मूढता के तीन भेद कहे गये हैं। लोक मूढता देव मूढता गुरु मूढता लोक मूढता :- नदी या सागर में स्नान करके अपने को पवित्र मानना, बालू पत्थर के ढेर लगाने से, पर्वत से गिरकर मरने से, अग्नि में जलकर मरने से घर्म मानना लोक मूढता है। | देव मूढता:- वर प्राप्ति की इच्छा से रागी द्रेषी देव देवियों की उपासना करना देव मूढता है। गुरु मूढता:- जो आरम्भ, परिग्रह, और हिंसा मे सदा आसक्त रहते है। संसार समुन्द्र मे डूब रहे है तिर नही सकते हैं। जो ऐसे पाखंडी गुरुओं को गुरु मानकर उनकी उपासना करते हैं वे पाखंड को बढाने वाले हैं, वे ही गुरु मूढता वाले है। 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावना अंग अनायतन के छः भेद कहे गये हैं। कुगुरु । कुदेव । कुधर्म | कुगुरु उपासक | कुदेव उपासक | कुधर्म उपासक अंग के आठ भेद कहे गये हैं। निःशंकित निकांक्षित निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टि | उपगूहन स्थितिकरण वात्स | अंग | अंग | अंग | अंग | अंग ल्य अंग | अंग निःशंकित अंग:- मोक्ष मार्ग मे संशय रहित रूचि का होना निःशंकित अंग है। निकांक्षितअंग:- संसारिक सुखों मे कांक्षा नही करना निकांक्षित अंग है। निर्विचिकित्साअंग:- रत्नत्रय से युक्त मुनि के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नही करना और उनके गुणों मे प्रीति करना निर्विचिकित्साअंग है। अमूढदृष्टिअंग:- मिथ्यादृष्टि मानव को मन शरीर और वचन से सहमति न देना, सराहना अथवा प्रशंसा न करना अमूढदृष्टिअंग है। उपगूहनअंग:- मूढ अज्ञानी या असमर्थजनो के निमित से हुऐ दोषों को ढक देना उपगूहनअंग है। |स्थितिकरणअंग:- सम्यग्दर्शन या सम्यकचारित्र से च्युत हो रहे मानव को फिर से धर्म प्रेम वश उसी मे स्थिर कर देना स्थितिकरणअंग है। वात्सल्यअंग:- सहधर्मीजनों के प्रति हमेशा छल कपट रहित तथा सद्भावना एंव विनयपूर्वक व्यवहार करना वात्सल्यअंग है। प्रभावनाअंग:- अज्ञान अंघकार को दूर कर अपने जैन धर्म के माहात्मय का प्रकाश फैलाना प्रभावनाअंग है। K.17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञानः- जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को प्रत्यक्ष रूप से ज्यों का त्यों जानता है। उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इसके के चार भेद कहे गये हैं। प्रथमानुयोग । करूणानुयोग | चरणानुयोग | द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग:- जो ज्ञान अर्थ, धर्म, काम, और मोक्ष इन चारों पुरूषार्थों को किसी एक महापुरूष के चारित्र को त्रेसठ शलाका पुरूष के पुराण को कहता है उस ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं। जैसे पद्म पुराण। करूणानुयोग:- जो लोक अलोक के विभाग को, छः काल के परिवर्तन को, चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पाँच परिवर्तन को कहता है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकाता है, उस शास्त्र को करूणानुयोग कहते हैं। जैसे तत्वार्थ सूत्र। चरणानुयोग:-जो शावक और मुनि के आचरण रूप चारित्र का वर्णन करता है, उनके चारित्र की उत्पति, वृद्रि, और रक्षा के साधनों को बतलाता है उसे चरणानुयोग शास्त्र कहते हैं। जैसे रत्नकरण्ड। द्रव्यानुयोग:- जो तत्व अर्थात जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आर्सव, संवर, बंध, मोक्ष, एंव निर्जरा इन सभी तत्वों को सही-सही समझाता हैं। जो निज ओर पर का भान कराने वाला है उसे द्रव्यानुयोग शास्त्र कहते हैं। जैसे समयसार केवलज्ञान या उसे प्रत्यानुयोग का अवघिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ज्ञान: ज्ञान: श्रुतज्ञान मतिज्ञान मतिज्ञान एंव श्रुतज्ञान:- छह द्रव्यों ( जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल ) की कुछ पर्यायों को जान लेना मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय है। अवघिज्ञान:- अवघिज्ञानका विषय मूर्त पदार्थ अथवा उससे सम्बन्धित जीव की पर्यायों को जानता है। मनःपर्ययज्ञान:- सवविधि ज्ञान के द्वारा जाने गये द्रव्य के अनन्तवें भाग को मनःपर्ययज्ञान ज्ञान जानता हैं। केवलज्ञान:- केवलज्ञान का विषय समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायें हैं। केवलज्ञान ही मोक्ष का अंकुर हैं। नयः- द्रव्य या पर्याय की अपेक्षा से किसी एक धर्म के कथन करने को नय कहते हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकः- अघोलोक, मध्यलोक एंव ऊधर्वलोक जम्बू द्वीपः- समुंद्रो के मध्य में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है, जिसके मध्य में नाभि के | समान सुमेरू पर्वत है। इस जम्बू द्वीप मे भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। पद्म, आदि सरोवरों के कमलों पर क्रम से श्री, ह्रीं, धृर्ति, कीर्ति, बुद्धि, और लक्ष्मी ये छह देवियां सामानिक और पारिषद जाति के देवों के साथ निवास करती हैं। भरत एंव ऐरावत क्षेत्रों मे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह कालों द्वारा मनुष्यों की आयु, काम, भोगोपभोग मे वृद्धि और हानि होती रहती हैं। भरत एंव ऐरावत क्षेत्रों को छोडकर शेष पाँच छेत्रों में स्थिति ज्यों की त्यों नित्य एक सी रहती हैं उसमें काल का परिवर्तन नही होता। गतियाः- नरक, तिर्यंच, मनुष्य एंव देव ||देवः- देव चार प्रकार के होते हैं। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, और कल्पवासी। भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिषी, तथा सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देव मनुष्य और तिर्यन्चों की भांति शरीर से काम सेवन करते हैं। तीसरे स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक कुछ में देवियों के स्पर्श से कुछ मे रूप देखने से कुछ मे शब्द सुनने से तथा कुछ स्वर्गों में देव और देवियां मन मे एक दूसरे के स्मरण मात्र से तृप्त हो जाते हैं। सोलह स्वर्गों से ऊपर देव काम सेवन से रहित होते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये पाँच भेद ज्योतिषी देवों के है। पांचवे ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में लौकान्तिक देव रहते हैं जो स्वर्ग से चय कर मनुष्य का भव धारण करके मुक्त हो जाते है । विमानवासी अहमिन्द्र मनुष्य के दो भव तथा अहमिन्द्र एक भव धारण करके ही मोक्ष चले जाते हैं। तिर्यन्च सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त हैं। सम्बन्धित विषय को विस्तार से पढने के लिए तत्वार्थ सूत्र का पेज नम्बर 31-37 देखें। मनुष्यः- [:-आर्य और मलेच्छ ये दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। जो गुणों से सम्पन्न हो उन्हें आर्य कहते हैं। जो आचार विचार भ्रष्ट हों, घर्म- कर्म का कुछ विवेक न हो, निर्लज्जता पूर्वक चाहे जो कुछ बोलतें हों उन्हें मलेच्छ कहा गया हैं। आर्य भी दो प्रकार के होते हैं, ऋध्दि प्राप्त और दूसरे ऋध्दि रहित। काल: उत्सर्पिणी प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छः-छः भेद होते हैं। अवसर्पिणी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल सुखमा-सुखमा | सुखमा काल | सुखमा-दुखमा दुखमा-सुखमा | दुखमा काल | दुखमा-दुखमा काल ___काल | | काल दुखमा काल यह इक्कीस हजार से पच्चीस हजार वर्ष का होता हैं। दुखमा-दुखमा काल यह इक्कीस हजार वर्ष का होता हैं। अवसर्पिणी काल में पहिले काल से लेकर छठवें काल तक आयु, शरीर बल आदि का प्रमाण घटता जाता है तथा उत्सर्पिणी काल में छठवें काल से लेकर पहिले काल तक आयु ,शरीर बल आदि का प्रमाण बढता जाता है। सम्प्रति हुंडा अवसर्पिणी काल का पाँचवा दुखमा काल चल रहा है, जिसे व्यतीत हुए अभी लगभग 2500 वर्ष हुए हैं। जीवों को मुक्ति लाभ सिर्फ चतुर्थ काल में ही होता हैं। इस पंचम काल मे किसी को भी मोक्ष नहीं होगा, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आत्मोन्नित के लिए पुरुषार्थ नही किया जाय। भगवान ऋषभदेव तीसरे काल में ही मोक्ष गये। यह कार्य जैनागम के विरूद्ध हुआ, इसका कारण हुण्डावसर्पिणी काल का दोष हैं। श्रावक के आठ मूल गुण:- मदिरा, माँस एंव मधु का त्याग करके पाँच अणुव्रत का पालन करना ये आठ मूल गुण हैं जो कि श्रावक के लिए कहे गए हैं ।मूली, आलू, कंदमूल, गीली अदरक, मक्खन, नीम के पुष्प, केवडा के पुष्प, आदि मे फल थोडा तथा दोष अधिक है अतः इनको छोड देना चाहिये। जो अनुपसेव्य (सज्जन पुरूषों के सेवन योग्य नही) इन दोनों को भी छोड देना चाहिए। दिगम्बर मुनिः- दिगम्बर मुनि के पाँच भेद कहे गये हैं। __पुलाक मुनि | बकुश मुनि | कुशील मुनि | निर्ग्रन्थ मुनि । स्नातक मुनि पुलाक मुनि:- मूल गुणों में कभी-कभी दोष लग जाता हैं। बकुश मुनि:- शरीर व उपकरण बढाने की इच्छा रखते हों मूल गुणों का निद्रोष पालन करते हों। कुशील मुनि:- मूल गुणों में दोष लग जाता हैं। शरीर व उपकरण बढाने की इच्छा रखते हों निर्ग्रन्थ मुनि:-जिन्हें अन्तर्मुहूत मे केवल ज्ञान होने वाला हो। स्नातक मुनि:- केवली भगवान व्यसन:- जुआ खेलना, माँस खाना, मदिरा पान करना, शिकार खेलना, वेशया गमन करना, पर स्त्री गमन करना, चोरी करना ये सात व्यसन हैं । ये सदा सर्वदा त्याग करने योग्य हैं। अगिनः- क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदाराग्नि। आतमा के शत्रुः- क्रोध, मान, माया एंव लोभ । 420 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घर्म:- जो संसार समुद्र मे डूबे हुए संसारी प्राणी को हाथ का अवल्मबन देकर निकालकर उत्तम सुख मे पहुँचाता है और मोक्ष गामी है वही धर्म कहलाता है । पापः- हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील एंव परिग्रह पाँच पाप हैं । मोक्षः- जब जीव पुदगल कर्मों का साथ छोडकर निज स्वभाव व स्थिति को प्राप्त होता है अर्थात समस्त कर्मद्रव्य कर्म, भाव कर्म और नोकर्म क्षीण हो जाते हैं और केवल शुद्द आत्मा रह जाती है तब वह मुक्त हो जाता है। संवर और निर्जरा के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं। जीवः- जिसमें चेतना व ज्ञान हो वह जीव है। अजीव :- जिसमें प्राण नही हैं वे अजीव है। | आश्रवः- राग-द्वेष आदि भावों के अनुरूप पुदगल कर्म आकर्षित होकर आते हैं उसे आश्रव कहते हैं। बंध:- पुदगल कर्मों के आत्मा से बंधने का नाम बंध हैं। नि,दन धर्म का पालन, बारह भा संवर:- कर्मों को आने से रोकने का नाम संवर है। व्रत, समिति, गुप्ति, दस धर्म का पालन, बारह भावनाओं का चिंतन, बाइस परीषहों का सहन करना आदि भाव व क्रियाओं से संवर होता है, क्योकि इससे आत्मा की निज शक्ति प्रकट होती है और कर्म बंधन होने से रूकता है। निर्जरा:- कर्म के नष्ट होने का नाम निर्जरा है। आत्मा के जिस भाव से कर्म पुदगल नष्ट होते है, वह भाव निर्जरा है तथा जो कर्म रूप प्रभाव नष्ट होते हैं उसे द्रव्य निर्जरा कहते हैं समय आने पर जो कर्म फल देकर आत्मा से अलग होता है उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। तप व ध्यान के कारण जो कर्म बिना फल दिए अथवा समय से पूर्व फल देकर नष्ट हो जावे या निष्फल हो जावे वह अविपाक निर्जरा कहलाती हैं। अन्तराय नाम कर्म का आस्रवः- किसी दूसरे के दान, लाभ, भोग, और वीर्य में विश्न उत्पन्न करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है। तीर्थंकर नाम कर्म का आस्रव:- दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील और व्रतों मे अतिचार न लगाना, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और संवेग, यथा शक्ति त्याग और तप, साधु समाधि, वैयावृत्य, अर्हद भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्ग प्रभावना और प्रवचन वत्सलता इन 16भावनाओं से तीर्थंकर नाम प्रकति का आस्रव होता है। उपासक के तीन मुख्य कार्यः- ज्ञान, ध्यान एंव तप Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकचारित्रः- ये राग द्वेष आदि कषायें जब कुछ क्षयोपशम आदि रूप होती हैं, तभी हिंसा आदि पाँच पापों के दूर होने से चारित्र होता हैं। चारित्र के सकल चारित्र एंव विकल चारित्र ऐसे दो भेद होते हैं। सम्पूर्ण परिग्रह से रहित मुनि सकल चारित्र को धारण करते हैं और परिग्रह सहित श्रावक विकल चारित्र को ग्रहण करते हैं। सकल चारित्र विकल चारित्र सकल चारित्र: - महाव्रत पाँच गुप्ति तीन एंव समिति पाँच ऐसे 13 गुण सकल चारित्र के लिए कहे गये हैं। महाव्रत पाँच गुप्ति तीन समिति पाँच महाव्रत: - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, और परिग्रह इन पाँचों पापों का मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना रूप नव कोटि से संपूर्ण तया त्याग कर देना महाव्रत है इन्हें साधु एंव महापुरूष ही धारण करते हैं। अर्चीय अहिंसा सत्य ब्रहमर्चय अपरिग्रह गुप्ति: - सम्यक प्रकार से अथार्त विषय, अभिलाषा एंव यश की आकांक्षा को छोडकर मन, वचन, काय की प्रवृति को रोकना मनगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति कहलाती है। मनगुप्ति वचनगुप्ति कायगुप्ति समिति: - चार हाथ पृथ्वी देखकर चलना ईया समिति, हित मित प्रिय, असंदिग्ध, कषाय के अनुत्पादक, धर्म के अविरोधी वचन बोलना भाषा समिति, शुद्ध निर्दोष आहार करना ऐषणा समिति, पीछी अथवा कोमल वस्त्र से झाड-पोंछ कर उठाना रखना आदान निक्षेपण समिति, जीव रहित स्थान मे मल-मूत्र आदि का त्याग करना उत्सर्ग समिति कहलाता हैं। ईया समिति भाषा समिति ऐषणा समिति आदाननिक्षेपण उत्सर्गसमिति परीषहः- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषघा, शैय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण, मल, सत्कार, पुरूस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, और अदर्शन ये बाईस परीषह को जो मुनि | शान्त चित से सहन करता है वह आस्रव का निरोध करके संवर को प्राप्त करता है। तपः- तप के दो भेद होते हैं। बांह्य तप और अन्तरंग तप Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांह्य तप: बाह्य तप 1.अनशन ( संयम वृद्धि के लिए किया गया उपवास ) 2.अवमौदर्य ( कम भोजन करना ) 3. वृति परिसंख्यान ( भोजन मे मर्यादा रखना ) 4. रस परित्याग (रसों का त्याग करना) 5. काम – कलेश (घ्यान के द्वारा शरीर को कष्ट देना ) 6. विवित्र शय्यासन अन्तरंग तपः 1. प्रायश्चित 2. विनय 3. वैयावृत्य 4. स्वाध्याय 5. ध्यान 6. व्युत्सर्ग 7. मोनव्रत “दिन दस के मिहमान जगत जन, बोलि बिगारै कौन सौं। हम बैठे अपनी मौन सौं"।। ती। हम बैठे बानी अणुव्रतः ध्यान:- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ध्यान उपरोक्त चार प्रकार का होता हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान से मोक्ष प्राप्त होता हैं। पंचम काल मे शुक्लध्यान संभव नही हैं। विकल चारित्र:- विकल चारित्र के अणुव्रत पाँच, गुणव्रत तीन, शिक्षाव्रत चार ऐसे बारह भेद कहे गयेहैं। अणुव्रत पाँच गुणव्रत तीन शिक्षाव्रत चार अन्तरंग तप सत्य अपरिग्रह अहिंसा अर्चीय ब्रह्मर्चय Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणव्रतः दिव्रत अनर्थदण्डव्रत भोगोपभोग दिव्रतः- - चार दिशा, चार विदिशा, ऊपर और नीचे अर्थात दशों दिशाओं की सीमा निर्धारित कर, मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नही जाऊँगा ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत हैं। वह दिग्व्रती शात्रक मर्यादा के बाहर के पाँचों पापों से बच जाता हैं। अनर्थदण्डव्रत:- दशों दिशाओं में मर्यादा के भीतर ही मन, वचन, काय से पाप होते रहते है उन्हे अनर्थदण्ड कहते हैं। इनका जो रूचि से त्याग करते हैं गणधर देव उसे अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। इसके पाँच प्रकार हैं। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या। पापोपदेश हिंसादान अपध्यान दुःश्रुति पापोपदेश:- इसके पाँच प्रकार हैं। प्रमादचर्या ईनों के व्यापार का उपदेश ? 1. तिर्यंक्रवणिज्याः- तिर्यंचों के व्यापार का उपदेश देना। 2. क्लेशवणिज्याः- दास-दासी आदि के व्यापार का उपदेश देना 3. हिंसोपदेशः- हिंसा के कारणों का उपदेश देना। 4. आरम्भोपदेशः- बाग लगाने, अग्नि जलाने आदि का उपदेश देना। 5. प्रलम्भोपदेशः- ठग विधा, इन्द्र जाल, आदि कामो का उपदेश देना। COPY हिंसादानः- हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, अनेक प्रकार के शस्त्रों का देना हिंसादान अनर्थ दण्ड कहलाता हैं। | अपध्यान:- देष की भावना वश पर के स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को मन, वचन से बददुआ देना या चिंतनकरना | अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड हैं। दुःश्रुतिः :- मन को मलीन करने वाले शास्त्रों, पुस्तकों का सुनना, पढना यह सब दुःश्रुतिः नाम का अनर्थदण्ड हैं। प्रमादचर्या:- बिना प्रयोजन भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि का छेदन भेदन करना, व्यर्थ ही इधर-उधर धूमना या अन्य को धुमाना ये सब प्रमादचर्या Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामक अनर्थदण्ड हैं। भोगोपभोगः- जो वस्तु एक बार भोग कर छोड दी जाती है वह भोग कहलाती है जैसेः- भोजन और जो पुनः भोगने में आती है वह उपभोग है जैसेः- वस्त्र, आभूषण आदि। प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग को ही व्रत माना है। भोजन, वाहन, शय्या, स्नान, पवित्र अंग मे सुगंधित गंध माला, तम्बाखू, पान, वस्त्र, आभूषण, काम भोग, ||संगीत श्रवण, गीत नाटक आदि ये सभी भोगोपभोग सामग्री है। जैसे भी हो सके इन विषयों में लालसा को धटाना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता हैं। इसके दो भेद होते हैं। नियम यम नियम:- वस्तु का कुछ काल के लिए त्याग करना नियम है। यम:- वस्तु का जीवन भर के लिए त्याग कर देना यम कहलाता है। शिक्षाव्रत:- जो मुनि व्रत की शिक्षा देते हैं वे शिक्षाव्रत हैं इनमें चार भेद होते हैं। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य। | देशावकाशिक, सामायिक | प्रोषधोपवास | वैयावृत्य । | देशावकाशिक शिक्षाव्रत:- दिग्व्रत में जो दशों दिशाओं की लम्बी-चौडी मर्यादा की थी उसके अन्दर प्रतिदिन भी कुछ काल की अवधि पूर्वक नियम करते रहना देशावकाशिक व्रत है। इसकी मर्यादा के बाहर स्थूल तथा सूक्ष्म ऐसे पाँचों ही पापों का त्याग हो जाता हैं। सामायिक शिक्षाव्रत:- आकुलता उत्पादकता रहित शुद्ध एकांत स्थान में समय निश्चित करके पाँचों ही पापों का मन वचन और काय से त्याग कर देने से उसी काल मे श्रावक को सामायिक शिक्षाव्रत होता हैं। उपवास के दिन अथवा एकाशन के दिन सामायिक अवश्य करना चाहिये। प्रतिदिन भी जो श्रावक एकाग्रचित होकर इस व्रत का पालन करते हैं वे अपनी आत्मा को पहचान लेते हैं।श्रावक को दो वस्त्र मात्र रखकर शेष आरम्भ परिग्रह छोडकर सामायिक करना चाहिये।सामायिक करते समय शीत,उष्ण, डांस, मच्छर आदि की परीषह भी सहन करना चाहिये। यदि देव, मनुष्य या तिर्यंच कृत उपर्सग आ जावे तो उसे भी सहन करना चाहिये। सामायिक के समय आत्मा का ध्यान करते हुऐ मोक्ष की कामना करना चाहिये। प्रोषध उपवास और प्रोषधोपवास:- प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को अपनी इच्छा अनुसार चारों प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत हैं। तेरस को एकाशन करके चौदस का उपवास, पुनः पूनो को एकाशन करना प्रोषधोपवास है, ऐसे ही अष्टमी के लिए समझना। एक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार भोजन करना प्रोषध है। उपवास के दिन पाँचों पापों का त्याग करके, शरीर से ममत्व दूर करने हेतू वैराग्य भाव को धारण करते हुए शास्त्रों का पठन करें। ज्ञान और ध्यान मे समय बिताऐं। वैयावृत्य:- ज्ञान, ध्यान, एंव तप रूपी धन को धारण करने वाले मुनियों को दान देना वैयावृत्य है। यह चार प्रकार का होता है। आहारदान औषधिदान ज्ञानदान | आहारदान:- पडगाहन, उच्चस्थान, पाद प्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, और भोजन शुद्धि ये नवधा भक्ति कहलाती है। मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक जो आहार देते है, वही आहार दान हैं। अभयदान औषधिदान:- रोग से ग्रस्त को औषधि दान देना उसके स्वस्थ होने में सहयोग देना, रोगी की सेवा सुश्रुषा करना औषधिदान हैं। ||ज्ञानदान:- मुनियों तथा आर्यिका को शास्त्र देना, शावक एंव श्राविकाओं को स्वाध्याय की प्रेरणा देना, पठन व पाठन द्वारा ज्ञान का प्रसारण करना ज्ञानदान हैं। अभयदान:- मनुष्य, साधु, पशु, पक्षी आदि रोग ग्रस्त का कष्ट निवारण करना अभयदान हैं। मुनियों तथा आर्यिका को पिच्छी कमंडलु तथा वस्त्र दान देना उपकरण दान कहलाता हैं। अत्तम पात्रों मे दान | देना बताया गया हैं। "जाप" ऊँ ह्रीं सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रेभ्यो नमः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.मिथ्यात्व पाँच प्रकार का कहा गया है। एकान्त मिथ्यात्व विपरीत मिथ्यात्व विनय मिथ्यात्व संशय मिथ्यात्व अज्ञान मिथ्यात्व || एकान्त मिथ्यात्व:- जो व्यक्ति किसी एक नय मे लीन होकर अपने को तत्व ज्ञानी समझता है वोएकान्तवाद साक्षात् मिथ्यावादी है। विपरीत मिथ्यात्व:- जो व्यक्ति स्नान, छूआछूत आदि में धर्म बतलाता है वो पाखंडी विपरीत मिथ्यावादी है। विनय मिथ्यात्व:- जो व्यक्ति विवेक रहित सबकी भक्ति वन्दना करता है वह जीव विनय मिथ्यावादी है। संशय मिथ्यात्व:- जो व्यक्ति चंचल चित्त रहता है और स्थिर चित्त होकर पदार्थ का अध्ययन नही करता वह संशय मिथ्यावादी है। अज्ञान मिथ्यात्व:- जो व्यक्ति शारीरिक कष्ट से परेशान रहता है और सदैव तत्व ज्ञान से अनभिज्ञ रहता है, वह जीव अज्ञानी है, पशु के समान है। विशेषः- जोजीव मिथ्यात्व गुणस्थान से चढकर सम्यक्त्व का स्वाद लेता है और फिर मिथ्यात्व मे गिरता है वह सादि मिथ्यावादी है, जिसने मिथ्यात्व का कभी अनुदय नहीं किया वह आत्मज्ञान से शून्य अनादि मिथ्यात्वी है। 2.रस नव प्रकार के होते है। श्रृंगार रस वीर रस करूणा रस हास्य रस रौद्र रस वीभत्स रस भयानक रस अद्रभुद रस शान्त रस जब ह्रदय में सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है, तब एक ही रस मे नव रस दिखाई देते हैं, और शान्तरस मे आत्मा विश्राम लेता हैं। शान्तरस को अध्यातम रस भी कहते हैं। 3.बह्मर्चय की नव वाड:• महिलाओं के समागम में रहना • महिलाओं के पलंग पर सोना बैठना • काम कथा पढना, सूनना • कामोतेजक मूवी को देखना • भूख से अधिक गरिष्ट भोजन करना • पूर्व काल में भोगे हुए भोग-विलासों का स्मरण करना • मेकप से शरीर को आवश्यकता से अधिक सजाना इसके त्याग को जैनमत में बह्मर्चय की नव वाड कहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र को समझने के लिए मिथ्यात्व, नव रस, बह्मर्चय की नव वाड को समझना आवश्यक है। K27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव:- संसार में पाँच प्रकार के जीव निवास करते हैं। डूंधा जीव चूंधा जीव सूंधा जीव ऊंधा जीव धूंधा जीव डूंधाजीव:- जिनका कर्म - कालिमा रहित अगम्य, अगाध, और वचन-अगोचर उत्कृष्ट पद है वे सिद्ध भगवान डूंधा जीव हैं। चूंधा जीव:- चूंधा जीव चतुर हैं और मोक्ष का साघक हैं। जो उदास है जगत सौं, गहै परम रस प्रेम। सो चूंधा गुरू के वचन, चूंधे बालक जेम।। अथार्त,जो संसार से विरक्त होकर आत्म अनुभव का रस सप्रेम ग्रहण करता है और श्री गुरू के वचन बालक के | समान दुग्धवत् चूसता है वह चूंधा जीव है।। चूंधा साधक मोख कौ, करै दोष दुख नास। ח by V अथार्त, चूंधा जीव मोक्ष का साघक हैं, दोष और दुखों का नाशक है, संतोष से परिपूर्ण रहता है, उसके गुण वर्णन करता हूँ ।। लहै मोख संतोष सौं, वरनौं लच्छन तास।। कृपा प्रसम संवेग दम आस्तिभाव वैराग्य। ये लच्छन जाके हियै सप्त व्यसन कौ त्याग।। अथार्त, दया, प्रशम ( कषायों की मंदता), संवेग (संसार से भयभीत), इन्द्रियों का दमन, आस्तिभाव (जिन वचन पर श्रद्धा), वैराग्य और सप्तव्यसन का त्याग ये चूंधा अथार्त् साधक जीव के चिन्ह हैं। सूंधा जीव:[:- जो गुरू के वचन प्रेमपूर्वक सुनता है और ह्रदय में दुष्टता नही है-भद्र है, पर आत्म स्वरूप को नही पहिचानता ऐसा मन्द कषायी जीव सूंधा है। ऊंधा जीव :- जिसे शास्त्र का उपदेश तो अप्रिय और विकथाऐं प्रिय लगती हैं वह विषयाभिलाषी, द्वेषी क्रोधी और अधर्मी जीव ऊंधा है। धूंधा जीव:- वचन रहित, श्रवण रहित, मन रहित, अव्रती, अज्ञानी और धोर संसारी जीव धूंधा है। डूंगा जीव प्रभु हैं, सूंधा शुद्ध रूचिवंत हैं, ऊंधा दुबुद्धि और दुखी है, धूंधा महा अज्ञानी और चूंधा जीव मोक्ष का पात्र है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "16 भावनाएँ" दर्शन विनय | शीलव्रतों | अभीक्ष्ण शक्ति शक्तितस्तप | साधु समाधि विशुद्धि | सम्पन्नता प्वनतिचार | ज्ञानोपयोग | | संवेग | तस्त्याग वैयावृत्य बहुश्रुत प्रवचन __ अर्हद | आचार्य भक्ति आवश्यका | मार्ग | प्रवचन परिहाणि | प्रभावना वत्सलता करण भक्ति भक्ति भक्ति दर्शन विशद्धि: - 25 दोषों से रहित अष्टअंग सहित सम्यक दर्शन को धारण करने पर 1. प्रशम (समभाव, अर्थात दुख व सुख मे समुंद्र सरीखा गम्भीर रहना, धबराना नही) 2.संवेग (धर्मानुराद, संसारिक विषयों से विरक्त हो धर्म और धर्मायतनों में प्रेम बढाना) 3. अनुकंपा (करूणा, दीन दुखी जीवों पर दया भाव करके उनकी यथाशक्ति सहायता करना) 4. आस्तिक्य (श्रद्धा, अपने निर्णय किये हुए सन्मार्ग में दृढ रहना) ये चारो गुण प्रकट हो जाते हैं। किसी प्रकार का भय अथवा चिन्ता व्याकुल नही कर सकती, सदैव धीर वीर प्रसन्नचित रहते हैं तथा किसी चीज की प्रबल इच्छा नही होती, यही दर्शन विशुद्धि नाम की प्रथम भावना हैं। |विनय सम्पन्नता:- अहंकार (मान) को त्याग कर दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप और उपचार इन पाँच प्रकार की विनयों का वास्तविक स्वरूप विचार कर विनयपूर्वक प्रर्वतन करना, विनय सम्पन्नता नाम की दूसरी भावना हैं। मानी पुरूष को कभी कोई विधा सिद्ध नही होती क्योंकि विधा विनय से आती है।मानी पुरूष अपनी समझ में भले ही अपने आप को बडा माने परन्तु क्या कौआ मन्दिर के शिखर पर बैठ जाने से गरूड पक्षी हो सकता हैं। अहिंसा अहिंसा शीलव्रतोंप्वनतिचार: - सत्य अचौय अणुव्रत:- पाँच अपरिग्रह ब्रह्मर्चय 429 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणव्रत:- तीन दिग्व्रत । अनर्थदण्डव्रत भोगोपभोग शिक्षाव्रत:- चार देशावकाशिक । सामायिक | प्रोषधोपवास । वैयावृत्य पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत का पालन करे तथा व्रतों के दोषों को भी बचाऐं। इन व्रतों के निद्रोष पालन करने से कभी राज्य दंड और पंच दंड नही होता हैं। ऐसा व्रती पुरूष अपने सदाचार से सबका आदर्श बन जाता हैं। यही शीलव्रतोंप्वनतिचार भावना हैं। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग: - संसारी जीव सदैव अपने लिये सुख प्राप्ति की इच्छा से विपरीत ही मार्ग ग्रहण कर लेता है, जिससे सुख मिलना तो दूर रहा, किन्तु उल्टा दुख का सामना करना पडता हैं। इसलिये निरन्तर ज्ञान सम्पादन करना परमावशक हैं। क्योंकि जहाँ चर्म चक्षु काम नही दे सकते है वहा ज्ञान चक्षु ही काम देते हैं। ज्ञानी पुरूष नेत्रहीन होने पर भी अज्ञानी आँख वालों से अच्छा हैं। अज्ञानी न तो लौकिक ही कुछ साधन कर सकते हैं। वे ठौर- ठौर ठगाये जाते है और अपमानित होते हैं इसलिए आलस्य छोड कर ज्ञान उपार्जन करना आवश्यक है, ऐसा विचार करके निरन्तर विधाभ्यास करना व कराना, सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नाम की भावना संवेग: - उत्तम पुरूष अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोक कर मन को धर्मध्यान में लगा देते हैं। इसी को संवेग भावना कहते हैं। शक्तितस्त्याग: - आहार, औषध, शास्त्र, एवं अभय इस प्रकार के चार दानों को मुनि, आर्यिका, श्रावक, एवं श्राविकाओं में भक्ति से तथा दीन, दुखी, नर, पशुओं को करूणाभावों से देता है उसे दान या शक्तितस्त्याग नाम की भावना कहते हैं। शक्तितस्तप: - व्रत, रसत्याग आदि छः बाह्य और वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि छः अभ्यन्तर इस प्रकार बारह तपों मे प्रवत्ति करना शक्तितस्तप नाम की भावना कहलाती हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध समाधि: - साधु वर्गों पर आये हुए उपसर्गों को यथा सम्भव दूर करना साधु समाधि नाम की भावना हैं। वैयावृत्यकरणः- साधु समूह तथा अन्य साधर्मीजनों के शरीर में किसी प्रकार की रोगादिक आ जाने पर उनके दुख दूर करने के लिए उनकी सेवा तथा उपचार करने को वैयावृत्यकरण भावना कहते हैं। अर्हद भक्ति भावना: - अरहंत भगवान के गुणों में अनुराग करना, उनकी भक्ति पूर्वक पूजन, स्तवन तथा ध्यान करना अर्हद भक्ति भावना हैं। आचार्य भक्ति भावना: - आचार्य महाराज के गुणों की सराहना करना व उनमें अनुराग करना आचार्य भक्ति नाम की भावना हैं। बहथत भक्ति भावना: - उपाध्याय महाराज की भक्ति तथा उनके गुणों में अनुराग करना बहुश्रुत भक्ति भावना हैं। प्रवचन भक्ति भावना: - अरहंत भगवान के मुख कमल से प्रगटित मिथ्यात्व के नाश करने तथा जीवों के हितकारी वस्तु स्वरूप को बताने वाला श्री जैन शास्त्रों का पठन पाठनादि अभ्यास करना प्रवचन भक्ति नाम की भावना हैं। आवश्यका परिहाणि: - आश्रव के द्वार रोकने तथा संवर को प्राप्त करने के लिए सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्तवन, वन्दना, एंव कार्योत्सर्ग इन छः आवश्यक कार्यों को करना परम संवर का कारण आवश्यका परिहाणि नाम की भावना हैं। सामायिकः- मन, वचन, काय से समस्त कार्यों को रोककर मन को एकाग्र करके आत्मा में स्थिर करना सामायिक हैं। प्रतिक्रमणः- अपने किये हुए दोषों को स्मरण करके उन पर पश्चाताप करना प्रतिक्रमण हैं। प्रत्याख्यान:- दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान हैं। स्तवनः- पंच परमेष्ठियों तथा चौबीस तीर्थंकरों के गुण कीर्तन करना स्तवन हैं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनाः- अष्टांग नमस्कार करना तथा एक तीर्थंकर की स्तुति करना वन्दना हैं। कार्योत्सर्गः- समय विशेष का प्रमाण करके शरीर से मोह छोड देना, उस पर आये हुए समस्त उपसर्ग व परीषहों को समभावों से सहन करना कार्योत्सर्ग हैं। मार्ग प्रभावना: - समस्त जीवों पर सत्य (जिन घर्म) का प्रभाव प्रगट कर देना मार्ग प्रभावना हैं। प्रवचन वात्सल्य: - साधर्मियों तथा प्राणी मात्र से सहायता व उपकार का व्यवहार रखना प्रवचन वात्सल्य नाम की भावना हैं। "जाप" ॥ॐ हीं दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शीलव्रतोंप्वनतिचार, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्ति तस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु समाधि, वैयावृत्यकरण, अर्हद भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन ||भक्ति,आवश्यकापरिहाणि, मार्ग प्रभावना और प्रवचन वात्सल्यादि षोडशकारणेभ्यो नमः Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ “समाधिमरण” समाधिमरण धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसे समाधिमरण कहते हैं। तप का फल अंत समय मे समाधिमरण को ही कहते हैं। राग, द्वेष, मोह और परिग्रह को छोडकर शुद्ध मन से समाधिमरण की इच्छा से प्रिय वचनो द्वारा अपने परिवार एंव अन्य लोगों से क्षमा मांगना एंव स्वयं भी सभी की गलतियों को माफ कर देना चाहिये।समाधिमरण के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए। अन्नादि भोजन को छोडकर दूध आदि पेय पदार्थ को लेना चाहिये। पुनः दूध आदि छोडकर छाछ या गरम जल पीना चाहिये। पुनः छाछ एंव गरम जल को भी छोडकर यथा शक्ति उपवास करना चाहिए और सम्पूर्ण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते हुए शरीर का त्याग कर देना चाहिये। क्रम से त्याग करने से आकुलता नही होती हैं। जो भव्य जीव अणुव्रत से लेकर समाधिमरण तक व्रतों को पालते हैं वे निर्वाण के अधिकारी होते हैं एवं तीन लोक के गुरू बन जाते हैं। वे अनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत सुख) को प्राप्त कर लेते हैं। जिन्होंने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया हैं, सैंकडों कल्प काल के बीत जाने पर भी उनमें किंचित भी अंतर नही पडता हैं और न ही वे पुनः वापस इस संसार मे ही आते हैं। सम्बन्धित विषय को विस्तार से पढने के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार का पेज नम्बर 62-68 देखें। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सार" मोक्ष सीढी दर सीढी चढ कर ही प्राप्त होता है, यह एक दिन, एक वर्ष या एक भव का कार्य नही इसमें कई भव लग सकते हैं। प्रेम का भाव राग, धृणा का भाव द्वेष, परद्रव्य मे अहंबुद्धि का भाव मोह है अतः इन तीनों को छोड कर सभी के साथ समभाव एवं एकत्व भावना से संसार में जीना चाहिए। निरंतर निज शक्ति अनुसार ज्ञान, ध्यान, और तप के द्वारा आत्मचिंतन करते हुए संवर और निर्जरा को धारण करना चाहिए।यदि कोई व्यक्ति मौजूदा परिस्थितियों में दीक्षा न भी ग्रहण कर सके तब भी निरंतर घर से ही प्रयास करना चाहिए। व्यवहार नय से गुणस्थानों की उपेक्षा संसारी जीव के चौदह भेद हैं। सिद्ध भगवान गुणस्थानों की कल्पना से रहित है। शुक्ल ध्यान, केवल ज्ञान की अंतिम सीढी है। जैनागम के अनुसार पंचम काल में शुक्ल ध्यान संभव नही हैं परन्तु इसका यह अर्थ नही कि पुरूषार्थ न किया जाए। जैनागम के अनुसार पंचम काल में मोक्ष संभव नही है परन्तु मै कहना चाहता हूँ कि ऐसा केवल भरत एंव ऐरावत क्षेत्रों के लिए है बाकी के पाँच क्षेत्रों मे स्थिति हमेशा एक जैसी रहती है यदि पुरूषार्थ किया जाय तो संभव है कि उन क्षेत्रों मे जन्म लेकर तथा फिर पुरूषार्थ करके इसी काल में मोक्ष पाया जा सकता हैं। विदेह क्षेत्र की पाँच कर्म भूमियाँ है जहाँ से हमेशा मोक्ष होता है। पद्म पुराण में भगवान राम व हनुमान के चारित्र गुणगाण हैं अतः इनको नमस्कार करना मिथ्यादृष्टि नही हैं। भक्ताम्बर जी के 24-25 वे पद में ब्रह्मा, विष्णु, महेश एंव बुद्ध की तुलना भगवान श्रृषभदेव से की गयी है अतः इनको नमस्कार करना मिथ्यादृष्टि नही हैं।सरस्वति, केवली भगवान की ध्वनि खिरने में सहायक है अतः इनको नमस्कार करना मिथ्यादृष्टि नहीं हैं। एक से अधिक धर्म को समझना तथा अपनाना ऐसा ही है जैसेकि भोजन की थाली में एक से अधिक व्यंजन का होना।अतः कौन नही चाहेगा कि उसके जीवन में भी घर्म रूपी व्यंजन एक से अधिक अन्त में अपना अनुभव बाँटना चाहता हूँ, स्वाध्याय से मेरे ज्ञान मे वृद्धि हुई, ब्रह्मर्चय एंव मौन व्रत से मांसिक एंव शारिरीक शक्ति संचित हुई और तप के लिए बल मिला, तप से आत्मा की शक्ति प्रकट हुई, सामायिक से धर्मध्यान मिला, अतः दिव्य प्रकाश एंव असीम शान्ति मिली। "अणुव्रत (महाव्रत) + दश लक्षण धर्म + रत्नत्रय + 16 भावनाएँ + समाधिमरण मोक्ष मार्ग हैं।" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “श्रावक/उपासक के लिए ग्यारह पद अथवा प्रतिमा कही गयी हैं। "प्रतिमाएँ" • सम्यग्दर्शन मे विशुद्धि उत्पन्न करने वाली दर्शन प्रतिमा है। • अणुव्रत पाँच, गुणव्रत तीन एवं शिक्षाव्रत चार कुल बारह व्रतों का आचरण व्रत प्रतिमा हैं। • सामायिक की प्रवृति सामायिक प्रतिमा हैं। • पर्व में उपवास - विधि करना प्रोषध प्रतिमा हैं। • सचित्त का त्याग सचित्त विरत प्रतिमा हैं। • दिन मे स्त्री-स्पर्श त्याग दिवा मैथुन व्रत प्रतिमा हैं। OPY • आठों पहर स्त्री मात्र का त्याग ब्रह्मर्चय प्रतिमा हैं। • जो सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि का पापारंभ नही करता एंव धर्म मे सावधान रहता है वह निरारंभ प्रतिमा हैं। परिग्रह का त्याग, परिग्रह त्याग प्रतिमा हैं। • पाप की शिक्षा का त्याग अनुमतित्याग प्रतिमा है। • अपने वास्ते बनाये हुए भोजनादि का त्याग उद्देशविरति प्रतिमा है। सम्बन्धित विषय को विस्तार से पढने के लिए “समयसार” का पेज नम्बर 385 देखें। • (राजेश कुमार जैन, मुरादाबाद) ( रचियता, संग्रह कर्ता एंव शोध कर्ता) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्रावक प्रतिक्रमण" ऊँ नमः सिद्देभ्यः! ऊँ नमः सिद्देभ्यः! ॐ नमः सिद्देभ्यः चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने। प्रमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः।। पाँच मिथ्यात्व, बारह अव्रत, पन्द्रह योग, पच्चीस कषाय इस प्रकार सत्तावन आस्रव का पाप लगा हो, तो वह मिथ्या होवे। नित्य निगोद सात लाख, इतर निगोद, पृथ्वी काय सात लाख, अपकाय सात लाख, अग्निकाय सात लाख, वायुकाय सात लाख, वनस्पतिकाय दस लाख, नरकगति चार लाख, तिर्यंचगति चार लाख, दैवगति चार लाख, मनुष्यगति चौदह लाख, एंव चौरासी लाख माता पक्ष में पिता पक्ष में एक सौ साढे निन्यानवें लाख कुल कोटि, सक्ष्म बादर-पर्याप्त-अपर्याप्त भेद करि जो किसी जीव की विराधना की हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। तीन दंड, तीन शल्य, तीन गारव, तीन मूढता, चार आर्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार विकथा, इन सबका का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे।व्रत में उपवास में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। पंच मिथ्यात्व, पंच स्थावर, छह त्रस-धात, सप्तव्यसन, सप्तभय, आठ मद, आठ मूलगुण, दस प्रकार के बहिरंग एंव अंतरंग चौदह प्रकार के परिग्रह संबधी पाप किया हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। पंद्रह प्रमाद, सम्यकत्वहीन परिणाम का पाप लगा हो, हास्य-विनोददादि दुष्परिणाम का, दुराचार का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। पंद्रह प्रमाद, सम्यकत्वहीन परिणाम का पाप लगा हो, हास्य-विनोददादि दुष्परिणाम का, दुराचार का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे।हिलते - बोलते, दौडते, चलते, सोते, बैठते, बिना देखे जाने-अनजाने सूक्ष्म व बादर जीवों को दआया हो, डराया हो, छेदा हो, भेदा हो, अलग किया हो, मन-वचन-कायकृत मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। मुनि आर्यिका, श्रावक-श्राविका का रूप चतुर्विध संध की, सच्चे देव शास्त्र गुरू की निंदा कर अविनय का पाप किया हो मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। निर्माल्य द्रव्य का पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे। दस मन का, दस वचन का, बारह काय एंव बत्तीस प्रकार का सामायिक में दोष लगा हो, पांच इन्दियों व छठे मन से जाने अनजाने जो पाप लगा हो, मेरा वह सब पाप मिथ्या होवे।मेरा किसी के साथ बैर-विरोध, राग-द्वेष, मान, माया, लोभ, निंदा नही है, समस्त जीवों के प्रति मेरा उत्तम क्षमा हैं। मेरे कर्मों के क्ष्क्षय से, मुझे समाधिमरण प्राप्त हो, मुझे चारों गतियों के दुखों से मुक्ति मिले। ऊँ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "24 तीर्थंकरो के नाम, चिन्ह, जाप मंत्र" | तीर्थंकर का नाम | चिन्ह | जाप मंत्र आदिनाथ बैल ॐ हीं अहं श्री आदिनाथाय नमः । अजितनाथ हाथी ॐ हीं अहं श्री अजितनाथाय नमः सम्भवनाथ घोडा ॐ हीं अहं श्री सम्भवनाथाय नमः अभिनन्दननाथ बन्दर | ॐ हीं अहं श्री अभिनन्दननाथायनमः सुमतिनाथ चकवा ॐ हीं अहँ श्री सुमतिनाथाय नमः । पद्मप्रभु कमल | ॐ हीं अहँ श्री पद्म प्रभु नमः । सुपार्श्वनाथ सथिया | ॐ हीं अहँ श्री सुपार्श्वनाथाय नमः चन्द्रप्रभु चन्द्रमा ॐ हीं अहं श्री चन्द्रप्रभु नमः पुष्पदन्त मगर ॐ हीं अहँ श्री पुष्पदन्त नमः । शीतलनाथ कल्पवृक्ष | ॐ हीं अहँ श्री शीतलनाथाय नमः श्रेयान्सनाथ गेंडा ॐ हीं अहँ श्री श्रेयान्सनाथाय नमः । वासुपूज्य भैंसा ॐ हीं अहँ श्री वासुपूज्याय नमः विमलनाथ |शूकर ॐ हीं अहं श्री विमल प्रभु नमः । अनन्तनाथ अनन्तनाथाय नमः धर्मनाथ | बज्रदंड | ॐ हीं अहं श्री धर्मनाथाय नमः शान्तिनाथ हिरन हीं अहं श्री शान्तिनाथाय नमः । कुन्थुनाथ | बकरा ॐ हीं अहं श्री कुन्थुनाथाय नमः अरहनाथ मछली ॐ हीं अहं श्री अरहनाथाय नमः मल्लिनाथ कलश ॐ हीं अहं श्री मल्लिनाथाय नमः मुनिसुव्रतनाथ कछुआ ऊँ हीं अहँ श्री मुनिसुव्रतनाथाय नमः नमिनाथ नीलकमल ॐ हीं अहं श्री नमिनाथाय नमः नेमिनाथ शंख |ॐ हीं अहँ श्री नेमिनाथाय नमः पार्श्वनाथ सर्प ॐ हीं अहं श्री पार्श्वनाथाय नमः । | महावीर स्वामी | सिंह ॐ हीं अहँ श्री महावीराय नमः सेही Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ “आरती श्री महावीर स्वामी की" ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो। कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभों।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। सिद्धारथ धर जन्मे,वैभव था भारी, स्वामी वैभव था भारी।बाल ब्रह्मचारी व्रत,पाल्यो तपधारी।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। आतम ज्ञान विरागी, समदृष्टिधारी,स्वामी समदृष्टिधारी। माया मोह विनाशक,ज्ञान ज्योति जारी।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। जग में पाठ अहिंसा, आप ही विस्तारयो,स्वामी आप ही विस्तारयो।हिंसा पाप मिटा कर सुधर्म परिचारयो।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। यही विधि चाँदनपुर मे अतिशय दर्शायो,स्वामी अतिशय दर्शायो। ग्वाल मनोरथ पूरयो, दूध गाय पायो।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। प्राणदान मन्त्री को तुमने प्रभु दीना, स्वामी तुमने प्रभु दीना। मन्दिर तीन शिखर का निर्मित है| कीना।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। जयपुर नृप भी तेरे अतिशय के सेवी,स्वामी अतिशय के सेवी। एक ग्राम तीन दिनों, सेवा हित यह भी।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। जो कोई तेरे दर पर इच्छा कर आवे,स्वामी इच्छा कर आवे। धन सुत सब कुछ पावे, संकट मिट जावे।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। निशदिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति जरे, स्वामी जगमग ज्योति जरे। हम सब प्रभु चरणों मे आनन्द मोद भरे।। ओम जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो।। 1380 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMIG, B-23, Ram GangaVihar, Phase-2, Extension, Moradabad-UP-India