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घर्म:- जो संसार समुद्र मे डूबे हुए संसारी प्राणी को हाथ का अवल्मबन देकर निकालकर उत्तम सुख मे पहुँचाता है और मोक्ष गामी है वही धर्म कहलाता है ।
पापः- हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील एंव परिग्रह पाँच पाप हैं ।
मोक्षः- जब जीव पुदगल कर्मों का साथ छोडकर निज स्वभाव व स्थिति को प्राप्त होता है अर्थात समस्त कर्मद्रव्य कर्म, भाव कर्म और नोकर्म क्षीण हो जाते हैं और केवल शुद्द आत्मा रह जाती है तब वह मुक्त हो जाता है। संवर और निर्जरा के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं।
जीवः- जिसमें चेतना व ज्ञान हो वह जीव है।
अजीव :- जिसमें प्राण नही हैं वे अजीव है।
| आश्रवः- राग-द्वेष आदि भावों के अनुरूप पुदगल कर्म आकर्षित होकर आते हैं उसे आश्रव कहते हैं। बंध:- पुदगल कर्मों के आत्मा से बंधने का नाम बंध हैं।
नि,दन धर्म का पालन, बारह भा
संवर:- कर्मों को आने से रोकने का नाम संवर है। व्रत, समिति, गुप्ति, दस धर्म का पालन, बारह भावनाओं का चिंतन, बाइस परीषहों का सहन करना आदि भाव व क्रियाओं से संवर होता है, क्योकि इससे आत्मा की निज शक्ति प्रकट होती है और कर्म बंधन होने से रूकता है।
निर्जरा:- कर्म के नष्ट होने का नाम निर्जरा है। आत्मा के जिस भाव से कर्म पुदगल नष्ट होते है, वह भाव निर्जरा है तथा जो कर्म रूप प्रभाव नष्ट होते हैं उसे द्रव्य निर्जरा कहते हैं समय आने पर जो कर्म फल देकर आत्मा से अलग होता है उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। तप व ध्यान के कारण जो कर्म बिना फल दिए अथवा समय से पूर्व फल देकर नष्ट हो जावे या निष्फल हो जावे वह अविपाक निर्जरा कहलाती हैं।
अन्तराय नाम कर्म का आस्रवः- किसी दूसरे के दान, लाभ, भोग, और वीर्य में विश्न उत्पन्न करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है।
तीर्थंकर नाम कर्म का आस्रव:- दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शील और व्रतों मे अतिचार न लगाना, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और संवेग, यथा शक्ति त्याग और तप, साधु समाधि, वैयावृत्य, अर्हद भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्ग प्रभावना और प्रवचन वत्सलता इन 16भावनाओं से तीर्थंकर नाम प्रकति का आस्रव होता है।
उपासक के तीन मुख्य कार्यः- ज्ञान, ध्यान एंव तप