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गुणव्रतः
दिव्रत
अनर्थदण्डव्रत
भोगोपभोग
दिव्रतः- - चार दिशा, चार विदिशा, ऊपर और नीचे अर्थात दशों दिशाओं की सीमा निर्धारित कर, मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नही जाऊँगा ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत हैं। वह दिग्व्रती शात्रक मर्यादा के बाहर के पाँचों पापों से बच जाता हैं।
अनर्थदण्डव्रत:- दशों दिशाओं में मर्यादा के भीतर ही मन, वचन, काय से पाप होते रहते है उन्हे अनर्थदण्ड कहते हैं। इनका जो रूचि से त्याग करते हैं गणधर देव उसे अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। इसके पाँच प्रकार हैं। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या।
पापोपदेश
हिंसादान
अपध्यान
दुःश्रुति
पापोपदेश:- इसके पाँच प्रकार हैं।
प्रमादचर्या
ईनों के व्यापार का उपदेश ?
1. तिर्यंक्रवणिज्याः- तिर्यंचों के व्यापार का उपदेश देना। 2. क्लेशवणिज्याः- दास-दासी आदि के व्यापार का उपदेश देना 3. हिंसोपदेशः- हिंसा के कारणों का उपदेश देना।
4. आरम्भोपदेशः- बाग लगाने, अग्नि जलाने आदि का उपदेश देना।
5. प्रलम्भोपदेशः- ठग विधा, इन्द्र जाल, आदि कामो का उपदेश देना।
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हिंसादानः- हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, अनेक प्रकार के शस्त्रों का देना हिंसादान अनर्थ दण्ड कहलाता हैं।
| अपध्यान:- देष की भावना वश पर के स्त्री, पुत्र, मित्र आदि को मन, वचन से बददुआ देना या चिंतनकरना | अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड हैं।
दुःश्रुतिः
:- मन को मलीन करने वाले शास्त्रों, पुस्तकों का सुनना, पढना यह सब दुःश्रुतिः नाम का अनर्थदण्ड
हैं।
प्रमादचर्या:- बिना प्रयोजन भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि का छेदन भेदन करना, व्यर्थ ही इधर-उधर धूमना या अन्य को धुमाना ये सब प्रमादचर्या