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जिनभाषित
आश्विन, वि.सं. 2061
वीर निर्वाण सं. 2530
सिद्धक्षेत्र श्री गिरनार जी जूनागढ़ (गुजरात)
अक्टूबर 2004
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विद्यासागरगंगा
आर्यिका श्री मृदुमति जी
विद्यासागरगंगा, मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥
इक मूलाचार का कूल, इक समयसार तट है। दोनों होते अनुकूल, संयम का पनघट है। स्याद्वाद वाह जिसका, दर्शक मन हरती है। विद्यासागर गंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥
मुनिगण राजा हंसा, गुणमणि मोती चुगते । जिनवर की संस्तुतियाँ, पक्षी कलरव करते। शिवयात्री क्षालन को, अविरल ही बहती है। विद्यासागरगंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥
नहीं राग द्वेष शैवाल, नहीं फेन विकारों का । मिथ्यात्व का मकर नहीं, नहीं मल अतिचारों का । ऐसी विद्यागंगा, 'मृदु' पावन करती है। विद्यासागरगंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥
जिसमें परीषह लहरें, और क्षमा की भँवरें हैं। करुणा के फूलों पर, भक्तों के भौंरे हैं। तप के
पुल में से वह, मुक्ति में ढलती है। विद्यासागरगंगा, मन निर्मल करती है।
ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर से मिलती है ॥
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रजि. नं. UPIHIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्रं.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05
अक्टूबर 2004
मासिक
वर्ष 3, अङ्क १
जिनभाषित
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
पृष्ठ
।।
सम्पादकीय : गिरनार जी में स्थिति अभी भी ज्यों की त्यों
3
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
7
सहयोगी सम्पादक पं.मूलचन्द लुहाड़िया (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ.श्रेयांस कुमार जैन, बडौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन, 'भारती', बुरहानपुर
प्रवचन • धर्म के संरक्षण में धर्मधारी ही समर्थ
आ. श्री विद्यासागर जी • मुक्ति-पथगामियों का मोक्ष यात्रा संकल्प
मुनि श्री आर्जवसागर जी * लेख • अभूतपूर्व संयम प्रभावना मूलचंद लुहाड़िया
सर्वनाश का साधक क्रोध ब्र.शांतिकुमार जैन जल सोचता, अनुभव करता और व्यक्त करता है
. प्रभुनारायण मिश्र शाकाहार
श्रीमती सूरज जैन केन्द्रीय सरकार जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित
करने का निर्णय शीघ्र ले : सुप्रीम कोर्ट • जैन समुदाय हेतु संवैधानिक सुरक्षा कवच
अरुण जैन • पाकिस्तान के जैन मंदिर सुधीर जैन
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे.आर.के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी,
आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428,
2152278
* प्राकृतिक चिकित्सा
• क्या कहते थे बापू ?
डॉ. वन्दना जैन
* जिज्ञासा- समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
* समाचार
29-32
सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक
5,000 रु. आजीवन
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* बोध कथा
• निस्सार का अर्जन, सार का विसर्जन
• श्रद्धा और विवेक की परम्परा * कविता . . विद्यासागरगंगा . : आर्यिका मृदुमति जी आ.पृ. 2
सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें।
लेखक के विचारों से सम्पादक को सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित विवादों के लिए न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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मुक्ति-पथगामियों का मोक्ष यात्रा संकल्प
मुनि श्री आर्जव सागर जी हमें गौरव है कि हमारा भारत आध्यात्मिक देश । कहते हैं कि मोक्षमंजिल को पाने हेतु एक-एक व्रत की कहलाता है, जहाँ आत्म ध्यान के माध्यम से ऋषभदेव, | सीढ़ी पर चढ़ते हुए ब्रह्मचारी, प्रतिमाधारी, क्षुल्लक, ऐलक राम, हनुमान, महावीर आदि महापुरुषों ने संसार और पापों बनकर परिपक्वता के साथ साधु बनने पर मोक्ष का पथ से मुक्ति पाकर मोक्ष पद को प्राप्त किया। इसी तरह आज सरल हो जाता है एवं जो भव्य ब्रह्मचारी अवस्था से सीधा भी महापुरुषों की इस जन्म धरा (भारत) पर हजारों साधु,
मुनि बनने का धैर्य रखते हैं, वह सुयोग्यता धारण कर आत्मा पवित्र ध्यान करते हुए अपनी आत्मा को विशुद्ध
सीधा मुनि पद भी अंगीकार कर सकता है। परिग्रह पाप बना रहे हैं। उन्हीं संतों में से एक विरले अनोखे संत । का कारण है। संसार के पदार्थों से मोह जब तक रहता है शिरोमणि हैं- आचार्य श्री विद्यासागर। जिनके संघ में तब तक आत्मा के ध्यान में एकाग्रता नहीं आ सकती। शताधिक साधु एवं अनेकानेक साध्वियां, व्रती, ब्रह्मचारी "चाह लंगोटी की दुख भालें" वाली बात हमेशा आदि सच्चे सद्गृहस्थ जीवन में आत्मकल्याण करने हेतु __ ध्यान करवाते हैं और ध्यान के लिए यह मुनि भेष ही उत्तम मोक्षमार्ग में आकर स्व-पर कल्याण करने में तत्पर हैं।
साधन है, यह बतलाते हैं। मुनि लोग अधिक समय तक हाल ही नर्मदा के तट पर स्थित तिलवारा घाट जबलपुर में एवं निर्विकल्प रूप से जो ध्यान कर पाते हैं, उसका कारण पच्चीस बाल ब्रह्मचारी श्रावकों ने संसार मार्ग का परित्याग उनकी निष्परिग्रहता, निर्मोहता, अलौकिकता और योग धारण कर निर्ग्रन्थ दिगम्बर दीक्षा आचार्यश्री के चरणों में धारण
ही समझना चाहिए। अभी जिन पच्चीस भव्यों ने मुनिदीक्षा की और आचार्यश्री की शिष्य परंपरा में जुड़कर मुक्ति पथ धारण की है वे सभी लौकिक शिक्षा में अग्रणीय होकर में अग्रेषित होते हुए मोक्ष की यात्रा प्रारंभ की। इस दीक्षा
अपने परिजनों की अनुमतिपूर्वक, मोक्ष पथ में अभ्यस्त के अवसर पर उनके परिग्रह त्याग के दृश्य को, लाखों होकर, आचार्य श्री से निवेदन कर, इस पुनीत साधु पद को लोगों ने देखकर अपने आपको धन्य माना।
प्राप्त हुए हैं। इससे जैनधर्म मात्र ही नहीं, सारे देश एवं ___मोक्ष मार्ग में साधु बनने से पहले सच्चा श्रावक बनना
विश्व की गरिमा बढ़ी है। हमें विश्वास है इनकी तपस्या एवं लोक शिक्षण से परिपक्व होना आवश्यक है। आचार्य
जन-जन के हित का कारण बनते हुए इन्हें अपने मुक्ति विद्यासागर जी इसीप्रकार का भाव रखकर भव्यों को अपने
लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त करायेगी। यह भाव टी.टी. नगर जैन संघ में ग्रहण करते हैं। सच्चे श्रावक बनने के लिए श्रावकों
मंदिर, भोपाल में ससंघ चातुर्मास कर रहे आचार्य विद्यासागर को श्रावकाचार पढ़ने की सत्प्रेरणा देते हैं एवं मात्र साधुओं
| जी महाराज के धर्म प्रभावक प्रौढ़ शिष्य 108 मुनि श्री को सच्चे मुनि पद पर दृढ़ रहने हेतु मूलाचार पढ़ाते हैं। वे | आर्जवसागर जी महाराज ने व्यक्त किए।
शाकाहार रैली परमपूज्य मुनि 108 श्री आर्जवसागर जी महाराज के | के निमित्त की जानेवाली जीव-जन्तुओं की हिंसा पर प्रतिबंध ससंघ सान्निध्य में दिनांक 2-10-2004 को श्री दिगम्बर जैन , लगाया जाए, क्योंकि आज प्रायः कई स्थानों पर इस कार्य पर मंदिर टी.टी. नगर (टीन शेड) भोपाल में मुख्यमंत्री श्री गौर | प्रतिबंध लग चुका है। के मुख्य आतिथ्य में शाकाहार रैली एवं विशाल धर्म सभा का 3. गाय से एक कल्पवृक्ष के सदृश दूध मिलता है और आयोजन किया गया।
घृतादिक का निर्माण होता है अतः उसे मोर और सिंह जैसा ___ अपने प्रवचनों में मुनि श्री आर्जवसागर जी महाराज ने राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए। मुख्य रूप से निम्न विषयों को रखकर मुख्यमंत्री जी से उन ____4. आचार्य समन्तभद्र स्वामी अनेक संस्कृत शास्त्रों को पर शीघ्र निर्णय लेने पर बल दिया
रचने वाले, आज से 2000 वर्ष पहले हुए हैं, जो तमिलनाडु 1. मंदिरों, तीर्थों, सार्वजनिक स्थानों पर दी जा रही में जन्मे तथा राजपुत्र थे। उनके नाम पर वर्ष में एक बार पशु पक्षियों की बलि देना रोका जाय क्योंकि कई प्रदेशों में समारोह आयोजित किया जावे। यह कानून बन चुका है।
मुख्यमंत्री ने अपने उद्बोधन में इन पर विचार कर शीघ्र ____ 2. स्कूलों, कालेजों में बायलॉजी पढ़ने वाले विद्यार्थियों | निर्णय लेने का आश्वासन दिया। अजित जैन, भोपाल 2 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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सम्पादकीय
गिरनार जी में स्थिति अभी भी ज्यों की त्यों
'जैन संस्कृति रक्षा मंच' जयपुर का पत्र जैन गजट' (26 अगस्त 2004) में प्रकाशित हुआ था, जिसमें कहा गया था कि मंच के प्रयास से गुजरात के राज्यपाल महामहिम पं. नवलकिशोर जी शर्मा ने गिरनार-प्रकरण में हस्तक्षेप किया। परिणामस्वरूप पर्वत पर जैन धर्मावलम्बियों की पूजा-अर्चना में बाधा डालनेवाले उपद्रवी तत्त्वों का सरगना गिरफ्तार कर लिया गया। अब जैन बिना किसी बाधा के पूजा अर्चना कर सकेंगे। इस पत्र के प्रकाशन के बाद श्री निर्मलकुमार जी बण्डी का पत्र प्राप्त हुआ जो इस प्रकार है___ "अ.भा. तीर्थ रक्षा समिति के अध्यक्ष श्री रमेशचन्द्र जी साहू के नेतृत्व में जैन समाज का प्रतिनिधि मण्डल केन्द्रीय सांस्कृतिक मंत्री श्री जयपाल रेड्डी से मिला एवं उन्होंने त्वरित कार्यवाही का आश्वासन दिया। श्री बन्डीलाल जी दिगम्बर जैन कारखाना गिरनार की एफ.आई.आर. पर प्रशासन ने कार्यवाही करते हुए निर्माणकार्य रुकवाया एवं कर्मचारी को गिरफ्तार कर तुरन्त छोड़ दिया। आज भी उक्त स्थान पर अन्य समाज के प्रतिनिधियों का ही अधिकार है। पुरातत्त्व विभाग का एक आदमी प्रतिदिन पाँचवे टूक पर जाकर मूर्ति एवं चरणकमल की स्वच्छता पर सतत निगाहें रखे हुए हैं। कल दिनांक 15 अगस्त को ही करीबन 150 तीर्थ यात्रियों ने पांचवें टूक की वन्दना की। दर्शन में किसी भी प्रकार की रुकावट हमें नहीं मिल रही है, परन्तु भगवान की जय जयकार नहीं करने दे रहे हैं।"
"श्री गिरनार तीर्थ रक्षा समिति के राष्ट्रीय संयोजक श्री निर्मलकुमार बन्डी ने बताया कि गुजरात की मोदी सरकार के मातहत गिरनार पर्वत पर अतिक्रमण को पूरे भारतवर्ष से जैन समाज के आ रहे दबाव के तहत अस्थायी रूप से रोक दिया गया है एवं निर्माणसामग्री नष्ट कर भगवान नेमिनाथ की मूर्ति, चरणकमल स्वच्छ कर दर्शन लायक बना दिये गये हैं। परन्तु अन्य मूर्ति एवं निर्माण जस का तस मौजूद है। आपने समग्र जैन समाज से पुनः आह्वान किया कि गिरनार जी की रक्षा करना प्रत्येक जैन का प्रथम कर्त्तव्य है एवं हमें पुनः संगठित होकर शासन एवं केन्द्र पर दबाव बनाना चाहिए। पचास वर्ष पूर्व जो पाँचवें टूक की स्थिति थो, वही रखी जावे एवं निर्माण तथा अन्य देवता की मूर्ति को वहाँ से तत्काल हटाया जाय। सभी जैन बन्धुओं को पत्र द्वारा एवं जैन संस्थाओं को ज्ञापन के माध्यम से सतत दबाव बनाये रखना है, जब तक कि गिरनार पर्वत पर अपना अधिकार न प्राप्त हो जाये। साथ ही गुजरात सरकार को तुरन्त बर्खास्त कराने की माँग करनी चाहिए।"
इसके बाद मैं 3 सितम्बर 2004 को पूज्य मुनि श्री सुधासागर जी के दर्शनार्थ सूरत (गुजरात) गया। वहाँ ललितपुर (उ.प्र.) के यात्री गिरनार जी की वन्दना से लौटते हुए मुनिश्री के दर्शन के लिए सूरत आये। उन्होंने भी निम्नलिखित समाचार दिये
1. चरणों की छतरी पर अभी भी पूर्णत: बाबाओं का आतंक है और जो बाबा वहाँ बैठते हैं, वे चरणों को फूलों से ढके हुए हैं।
2. वे चरणों का अभिषेक और पूजन नहीं करने दे रहे हैं।
3. दत्तात्रेय की जो नवीन मूर्ति स्थापित की गयी है, उसे अभी तक नहीं हटाया गया है और न जो छतरी अवैधानिक रूप से बाबाओं ने बनायी है, वह मिटायी गयी है।
4. कोर्ट के स्टे आर्डर के बाद भी छतरी का कार्य पूर्ण किया गया और पूर्ण होने के बाद मात्र जैन समाज के आक्रोश को शान्त करने के लिए एक मिस्त्री को, जो छतरी का पलस्तर कर रहा था, गिरफ्तार करके यह प्रचार करा दिया गया कि सरकार ने काम रुकवा दिया है।
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इससे सिद्ध है कि "जैन संस्कृति रक्षा मंच जयपुर" के द्वारा पेम्फलेट एवं समाचार पत्रों के जरिए गिरनार के विषय में जो यह प्रचार किया जा रहा है कि गिरनार की पाँचवीं टोंक पर पूजन-अभिषेक की छूट मिल गयी है, वह मिथ्या है। 'जैन संस्कृति रक्षा मंच वालों' से हमारा निवेदन है कि यदि छूट मिल गई है, तो वे स्वयं वहाँ जाकर अभिषेक-पूजन करें और उसके फोटोग्राफ जनता को दिखायें।
चूँकि गिरनार की स्थिति अभी भी ज्यों की त्यों है, अत: जैनों से हमारा अनुरोध है कि वे अपना विरोध जारी रखें और न्याय पाने के लिए सरकार से तब तक गुहार करते रहें , जब तक कि दत्तात्रेय की मूर्ति एवं अनधिकृत छतरी को वहाँ से हटा न लिया जाय, चरणों को फूलों से ढकना बन्द न कर दिया जाय और दिगम्बर जैन पुजारी तथा जैन तीर्थयात्रियों को अभिषेक-पूजन का अधिकार न मिल जाय।
उपर्युक्त अवैध कार्य का विरोध हम गुजरात सरकार एवं भारत सरकार को पत्र एवं ज्ञापन देकर तथा रैलियाँ आयोजित कर करते रहें। संभव हो तो अपने-अपने स्थानों पर जो रजिस्टर्ड संस्थाएँ हैं, उनके द्वारा न्यायालय की शरण में जाकर, न्याय पाने का प्रयत्न किया जाए।
"जैन संस्कृति रक्षा मंच" के पदाधिकारियों को विचार करना चाहिए कि स्वप्रशंसा के लिए बिना जानकारी के समाज को गलत सन्देश देना और धोखे में डालना कहाँ तक उचित है? उन्हें सोचना चाहिए कि जैनों की जो माँगें हैं, उनमें से कौन सी पूरी की गयी है, जो वे जनता को अपना आक्रोश शान्त करने की सलाह देते हैं?
"जैन संस्कृति रक्षा मंच" से हम अपेक्षा करते हैं कि वह गिरनार के प्राचीन स्वरूप को पूर्णत: सुरक्षित करने के लिए राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रभाव डालकर न्याय दिलाने में सहयोग करे तथा वहाँ से दत्तात्रेय की मूर्ति एवं छतरी हटवाकर जैनयात्रियों को अभिषेक-पूजन का अधिकार दिलाये।
रतनचन्द्र जैन
गिरनार पर अवैध निर्माण के विरोध में रैली
गुजरात प्रान्त के जूनागढ़ जिलान्तार्गत स्थित जैन तीर्थ स्थल भगवान नेमिनाथ की निर्वाण भूमि की पाँचवीं टोंक पर भगवान नेमिनाथ के चरण कमल का स्वरूप परिवर्तित कर अन्य धर्म के लोगों द्वारा निर्माण कार्य किये जाने से सम्पूर्ण देश का जैन समाज आक्रोशित एवं उद्वेलित है। अतः प्रदेश की राजधानी भोपाल में भी गिरनार बचाओ प्रांतीय समिति के आह्वान पर एक विशाल रैली निकाली गई, जो चौक मंदिर स्थित धर्मशाला में प.पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी की परम विदुषी शिष्या वात्सल्यमूर्ति आर्यिकारत्न मृदुमति माताजी के आशीष वचन से प्रारंभ हुई। __दो हजार वर्ष पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा निर्वाणकाण्ड में, आचार्य समन्तभद्र देव द्वारा रचित स्वयंभूस्त्रोत में, आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित निर्वाणभक्तिचरित एवं नंदीश्वरभक्ति में नेमिनाथ और गिरनार का संबंध प्रस्तुत किया गया है। जिस उद्देश्य से रैली निकाली जा रही है, वह जब तक पूर्ण न हो, तब तक प्रयास जारी रहना चाहिए।
इस अवसर पर अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष मो. इब्राहिम कुरैशी ने भी रैली को संबोधित करते हुए कहा कि इस कार्य के लिए मेरा पूरा सहयोग है। मैं तन-मन-धन से समर्पित हूँ। अनधिकृत निर्माण को रोकने और उसे हटाने हेतु म.प्र. अल्पसंख्यक आयोग की तरफ से उन्होंने भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पुरातत्त्व विभाग, गुजरात के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को पत्र लिखे हैं। रैली चौक मंदिर से प्रारंभ होकर राजभवन पहुँची, जहाँ राज्यपाल की अनुपस्थिति में उनके सचिव को ज्ञापन सौंपा। रैली में विशेष रूप से परम आदरणीय बा.ब्र. विदुषी बहिन पुष्पा दीदी (रहली), बा.ब्र. सुनीता दीदी पिपरई, रवि दीदी एवं सुधा दीदी की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण रही। इस सबंध में जैन समाज के सभी सदस्य भारत के प्रधानमंत्री, गुजरात के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को विरोध पत्र लिखें।
ब्र. सुमतिकुमार जैन
4 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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अभूतपूर्व संयम प्रभावना
मूलचंद लुहाड़िया
देश की सम्पूर्ण दि. जैन समाज ने इस युग के प्रथमाचार्य | टी.वी. युग के भोगाकर्षक वातावरण में जीते हुए, सम्पन्न आचार्य शांतिसागर जी महाराज की पुण्य स्मृति में इस वर्ष | घरानों में जन्म लेने वाले इन महाभाग्य युवकों में ऐसी तीव्र को संयम वर्ष के रूप में मनाए जाने का संकल्प किया है। | वैराग्य की भावना का उदय हुआ कि उन्होंने प्रथम बार में किंतु संयम वर्ष को किस प्रकार मनाया जाना चाहिए, ही उत्कृष्ट संयम का पद धारण करने का साहस कर लिया संभवतः इस दिशा में हमने अधिक विचार नहीं किया है। यह अपने आप में एक अत्यंत विस्मयकारी घटना है। ___ जिस प्रकार विषय भोगों को पुष्ट करने वाले लौकिक
वस्तुतः उन पुण्य श्लोक युवाओं के हृदयों में अध्यात्म कार्यक्रमों को मनाये जाने के तरीकों में हम स्वयं विभिन्न
और वैराग्य की वेगवती धारा बहाने में पू. आचार्य प्रकार के इन्द्रियों के भोगोपभोग के ही साधन आयोजित
विद्यासागर जी महाराज का व्यक्तित्व प्रमुख निमित्त बना करते हैं। जिस कार्यक्रम में जितने अच्छे और विशाल रूप
है। आचार्य श्री की वैराग्योत्पादक तेजस्वी मुद्रा के बारे में से इन्द्रिय विषयों के साधनों को उपलब्ध कराया जाता है,
आचार्य पूज्यपाद स्वामी के शब्द "अवाक विसर्ग वपुषां उस कार्यक्रम को उतना ही अधिक सफल माना जाता है।
मोक्षमार्ग निरूपयंति" सार्थक सिद्ध होते हैं। इस निकृष्ट
पंचमकाल में भी चतुर्थकाल जैसा यह उत्कृष्ट संयम प्रभावना विवाह, जन्मदिन, गृहप्रवेश, उद्योग-व्यापार का
का आयोजन देखने को मिला है यह हम सब का सौभाग्य शुभारंभ आदि के अवसरों पर इन्द्रिय विषयों की भरपूर
है। पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने इस युग में अब सामग्रियां एकत्र कर उन आयोजनों को भव्यता से मनाया
तक सर्वाधिक 241 दीक्षाएं प्रदान की हैं। केवल दीक्षाओं जाता है। इसी प्रकार संयम वर्ष मनाए जाने का सर्वाधिक
की संख्या में ही उत्कृष्टता नहीं है अपितु गुणात्मकता में भी उपयुक्त विधान यही हो सकता है कि धार्मिकजनों द्वारा
आचार्य श्री से दीक्षा प्राप्त साधुजन उत्कृष्ट हैं । इस संघ की संयम को यथाशक्ति जीवन में प्रयोगात्मक रुप से ग्रहण
यह एक विशेषता है कि सभी दीक्षित साधु जन बाल किये जाने और संयम के प्रति उत्साह एवं आकर्षण उत्पन्न
ब्रह्मचारी हैं, सभी साधु अपनी पदानुकूल निर्दोषचर्या पालन करने वाले कार्यक्रम आयोजित किए जायें। केवल आचार्य
करते हुए ज्ञान, ध्यान, तप में लं न रहते हैं। अब तक शिक्षा शांतिसागर जी महाराज के गुणगान कर लेना पर्याप्त नहीं
प्राप्त 241 साधुओं के अतिरिक्त अभी बड़ी संख्या में बाल होगा और न यह संयम वर्ष मनाए जाने का प्रभावी तथा
ब्रह्मचारी युवक-युवतियां साधनारत रहते हुए दीक्षा के सार्थकरूप ही होगा।
लिए कतार में खड़े हैं। आने वाले समय में हम ऐसे पू. आचार्य शांतिसागर जी पहाराज की परंपरा के प्रेरणास्पद एवं प्रभावक दृश्य देखने के लिए प्रतिक्षारत हैं, सातिशय प्रभावक आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने संयम दूसरी ओर पू. आचार्य श्री से देशव्रत के नियम ग्रहण कर वर्ष मनाने की दिशा में एक अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित श्रावक धर्म की साधना करने वाले भारी संख्या में पुरूष किया है। दिनांक 21 अगस्त 2004 को तिलवारा घाट और महिलाएं घर में रहते हुए साधना कर रहे हैं। इस जबलपुर में 25 बाल ब्रह्मचारी उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों प्रकार मुनि-आर्यिका-श्रावक- श्राविका चतुर्विध संघ का को संयम के सर्वोकृष्ट पद दिगम्बर मुनि दीक्षा प्रदान की निर्माण कर आचार्य परमेष्ठी संयम की अभूतपूर्व प्रभावना गई। भारत वर्ष में दिगम्बर जैन जगत में गत 400-500 कर रहे हैं। वर्ष के इतिहास में संयम प्रभावना की यह अद्वितीय
__ आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने विलुप्त प्राय हुई अतिशयकारी घटना है। आज के युग में जबकि युवा वर्ग
दिगम्बर जैन मुनि परंपरा को पुनर्जीवित किया और उनकी पर भोग प्रधान उपभोक्ता वादी संस्कृति ने सर्वत्र अपने पांव
ही परंपरा के आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने इस परंपरा पसार कर अपना एक छत्र शासन स्थापित किया हुआ है,
को उल्लेखनीय ऊंचाइयाँ प्रदान की। दि. जैन जगत के तब सह शिक्षा के साथ कॉलेज में उच्च अध्ययन प्राप्त,
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इतिहास में यह आ. शांतिसागर युग और आ. विद्यासागर प्रभावक आ. विद्यासागर जी महाराज ने। युग इस सहस्त्राब्दी को स्वर्णिम युग के रूप में जाना
आइए हम सब भी संयम की शीतल छाया तले अपना जायेगा।
शेष जीवन बिताने की ओर अग्रसर होने का संकल्प करें। आ. शांतिसागर जी महाराज की स्मृति में मनाया जा | प्रतिक्षण जीवन बीत रहा है और मृत्यु निकट आ रही है। रहा यह संयम वर्ष बातों से नहीं कामों से मनाए जाने का इस संयम वर्ष के उपलक्ष्य में अपने अंदर आत्म बल अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है, उनके ही समान उत्कृष्ट उत्पन्न कर आज ही नहीं अभी ही यथाशक्ति संयम धारण साधुचर्या के पक्षधर उनकी ही परंपरा के युग दृष्टा सातिशय | | कर संयम वर्ष को सार्थक रूप में मनाएं।
बोध कथा
निस्सार का अर्जन, सार का विसर्जन
(प्रस्तुत कथा में निस्सार-ग्राही संसार की दशा दर्शाई गयी है।)
एक व्यक्ति किसी समय यात्रा के लिए निकला।। लाया था, जिसमें राह के लिए नाश्ता रखा था। उसने उसे यात्रा में पहाड़ के ऊपर चढ़ना था। अतः इस यात्रा इस थैले को तो राह में छोड़ दिया बोझ कम करने के के लिए उसने उपयुक्त जूते खरीदे और जूते पहिनकर लिए, किन्तु उसने उस थैले को नहीं छोड़ा राह में, जो उसने चलना आरम्भ किया। पहाड पर अभी वह कछ उसे पड़ा मिला था, जिसे कि उसने अब तक खोलकर ही दूर चढ़ पाया कि राह में उसे एक सुन्दर थैला पड़ा भी नहीं देखा था। इस थैले को लिए अब फिर चढ़ने दिखाई दिया, रुक गये उसके पैर। वह आगे न बढ़ लगा पहाड़ पर। अब उसे अपने जूते भी भारी लगने लगे सका। उसके मन में उस थैले को उठा लेने के भाव अत: उसने जूते भी उतार कर अलग कर दिये और नंगे उत्पन्न हो गये।
पैर ही पर्वत पर आगे चढ़ने लगा। आगे बढ़ते-बढ़ते
जब बहुत थक गया तो उसने विश्राम करना चाहा। वह ___ वह उस ओर गया जहाँ थैला पड़ा था। उसने वहाँ
रुक गया, एक चट्टान पर विश्राम करने। पर्वत पर जाकर थैला उठाया। थैला भारी था पर देखने में सुंदर
अपने को अकेला पाकर उसके मन में थैले में भारी वस्तु था। उस थैले को इसतरह अपने कंधे पर रख लिया जैसे
क्या है? यह जानने की उत्सुकता हुई। उसने थैले को थैले में स्वर्णादि श्रेष्ठ बहुमूल्य वस्तुएँ रखीं हों। अभी
खोला। उसने देखा कि थैले में तो मात्र एक पत्थर का पहाड़ पर चढ़ने का उत्साह था। इस उत्साह के आगे
टुकड़ा है, जिससे सिल पर चटनी आदि पीसी जाती है। थैले में क्या है? यह जानने/समझने का भी उसके पास
वह पछताया अपनी करनी पर । सोचता है कि मैं कितना समय नहीं था।
मूर्ख हूँ जिसने बोझा कम करने के लिए सार रुप राह का वह पहाड़ पर बढ़ रहा है आगे। जैसे-जैसे वह नाश्ता तो छोड़ा ही चलने में सहायक जूते भी त्यागे और पहाड़ पर चढ़ता गया वैसे-वैसे उसे वजन अपने साथ जो निस्सार वाह्य पर पदार्थों को आप उठाकर आगे बढ़ ले जाने में कठिनाई प्रतिभाषित होने लगी। उसके पास रहा है और व्यर्थ का बोझ ढो रहा है। एक दूसरी थैली और थी जो वह अपने साथ यात्रा में
'विद्या-कथाकुञ्ज'
शाकाहार हमारे उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए
नैतिक और धार्मिक दोनों रूपों में सही आहार है।
6 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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धर्म के संरक्षण में धर्मधारी ही समर्थ
आचार्य श्री विद्यासागर जी
16 सितम्बर 2004 दयोदय तीर्थ तिलवारा घाट, जबलपुर में परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी द्वारा किया गया प्रवचन प्रस्तुत है। आचार्यश्री का मन्तव्य है कि परमपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी ने भट्टारकों को यह उपदेश दिया था कि 'आप धर्म का संरक्षण करें।'धर्मसंरक्षण का उपदेश उसे ही दिया जाता है, जो धर्म का संरक्षण न कर रहा हो। शान्तिसागर जी महाराज का संकेत इस ओर था कि भट्टारक पहले मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं (पिच्छी-कमण्डलु उसी का प्रतीक है), पश्चात् श्रावकों के कहने पर या उनसे कहलवाकर सर्वांगवस्त्र धारण कर लेते हैं, पर पिच्छी-कमण्डलु का परित्याग नहीं करते। उन्हें ग्रहण किये रहते हैं। पिच्छी-कमण्डलु रखते हुए सर्वांगवस्त्र एवं पगड़ी, टोपी आदि पहन लेने पर कोई पुरुष क्षुल्लक भी नहीं रहता, मुनि रहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ तक कि किसी श्रावकप्रतिमा का विधिवत् ग्रहण न करने से वह जघन्य या मध्यम श्रावक भी नहीं कहला सकता। इस प्रकार जो धर्म से च्युत हो अथवा धर्म में स्थित न हो, वह धर्मसंरक्षण का अधिकारी नहीं हो सकता। उसे पहले स्वयं धर्म का पालन करना.चाहिए, तभी वह धर्म का संरक्षण कर सकता है। इसीलिये आचार्य शान्तिसागर जी ने भट्टारकों को धर्मसंरक्षण का उपदेश दिया था।
सम्पादक
धर्म आत्माश्रित होता है। उस धर्म की रक्षा के लिए | लेकिन मठ बना करके, मठ का स्वामी बन करके वह श्रावकों का भी कर्तव्य है और श्रमणों का भी कर्तव्य है। रहता है, तो यह गलत बात । प्रतिक्रमण प्रतिदिन उनको भी
करना चाहिए, वो है ही नहीं, प्रतिश्रय की अभिलाषा लेंगे। ज्ञानार्णवकार ने ज्ञानार्णव में लिखा है
क्या पता विहार करूँगा तो आहार मिलेगा कि नहीं मिलेगा, धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थ विप्लवे।
आजकल तो आहार की बड़ी समस्या है। महाराज तो कुछ अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने॥ समझते तो हैं नहीं, क्या करें? एक स्थान पर रह जाएँ, एक उन्होंने कहा है कि नहीं पूछने पर भी बताना है। | बार ही तो भोजन करना है। एक कुटिया बना दो महाराज, पूछने पर तो बताना ही है, नहीं पूछते हैं, तो भी जिस समय | तो हम वहीं पर रह जाएँ। श्रावकों को कह दो श्रावक तो धर्म का, क्रियाओं का विध्वंस हो रहा है, उस समय बताना चाहते हैं अपने गांव में रह जाएँ, लेकिन चाहते हैं, रहना है । क्रिया का अर्थ पंथवाद नहीं है। क्रिया का अर्थ श्रमण | चालू कर दें, तो आप ही भगा देंगे। ये बुन्देलखंड एक ऐसा की क्रियायें तेरह प्रकार की अथवा 28 मूलगुणात्मक होंगी | खण्ड है जैसे चक्रवर्ती षटखण्ड में, आर्यखण्ड में विचरण
और श्रावक शिरोमणि जो क्षुल्लक होता है, उसकी क्रियायें | ज्यादा करके, दिग्विजय करता है, उस प्रकार का खण्ड है कितनी होती है, तो 11 प्रकार की प्रतिमाएँ होती हैं। 11 | ये। यहाँ चारित्र और विवेक स्वाध्याय इत्यादि के माध्यम प्रकार की प्रतिमाओं वाले व्यक्ति का वेश क्या होना चाहिए, | से इस प्रकार का हुआ है। प्रतिश्रय, वहाँ पर एक ही स्थान दैनेन्दिक क्रियायें क्या होना चाहिए?
पर बैठना। क्षुल्लक के लिए कहाँ पर कहा, कि एक ही
स्थान पर बैठे, श्रमण के लिए तो कहा ही नहीं। क्षुल्लक __ हमारे यहाँ प्रतिदिन प्रतिक्रमण होता है। उसमें प्रतिश्रय
एक स्थान पर कैसे बैठेंगे, इससे आहार दूषित हो जायेगा। के अभिलाषा के परिणाम हो गये हों तो महाराज भगवन् मैं
क्योंकि भैक्ष्याशनस्तपस्यन्' कहा, भिक्षावृत्ति के साथ गुरु उसके लिए 'तस्समिच्छामि दुक्कडं' करता हूँ। प्रतिश्रय
महाराज के पीछे-पीछे रहो और आहार कर आओ, ये किसको बोलते हैं। प्रतिश्रय का अर्थ मठादिक नहीं हो
भैक्षासन । समन्तभद्र महाराज ग्यारहवीं प्रतिमा में कहते हैं। सकता। एक स्थान पर रुग्ण अवस्था में रहना अलग वस्तु,
७ | 11वीं प्रतिमा से पूर्व में 10 वीं प्रतिमा तक वह निमन्त्रण से
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जा सकता है, लेकिन बना करके नहीं खायेगा। इसका क्या | जाता, विरोध क्या करें । अज्ञान का विरोध थोड़े ही किया मतलब? हाँ, कोई दे दे रूखा-सूखा, उसको बना दे। जाता है, उसको समझाया जाता है। उन्होंने बहुत मीठे इसलिए 11वीं प्रतिमा वाला एक स्थान पर बैठ करके, शब्दों के द्वारा कहा, इधर आओ जरा भट्टारको', महाराज मठाधीश बन करके, आहार की व्यवस्था करता है, ये क्या कहना चाह रहे हो, 'आपके हित की बात कहना चाह आगम सम्मत नहीं, किन्तु आगम विरुद्ध है। पहले विरुद्ध रहे हैं। महाराज बहुत अच्छी बात है, 'धर्म का संरक्षण है, उसको छोड़ दो, फिर बाद में क्या करना है, 'करनीज्जम करो', .... हो, तो करो। जिसके पास धर्म नहीं, वह क्या उत्सज्जामि बाद में अकरनीज्जम ओस्सरामि,' पहले छोड़ो, धर्म का संरक्षण करेगा... समझने का प्रयास नहीं किया जा बिना छोड़े एक स्थान पर रहना, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णदासी रहा है, और जो समझाता है, उसे कहते हैं, यह विरोध कर दास' सब हैं, यहाँ पर ऐसी स्थिति में उन मठों में, धर्म के रहा है। विरोध क्या है और बोध क्या है, ये उनको मालूम निमित्त कुछ देंगे, तो क्या होगा बताओ आप। आचार्य श्री नहीं है । इसका नाम अवर्णवाद नहीं है, प्रकाश देना है। जो शांतिसागर महाराज ने कहा. जब श्रवणबेलगोला में गये अंधकार में हैं, स्वयं अंधकार में रहें और दूसरे को प्रकाश थे और यह दिवाकर साहब ने लिखा, क्योंकि हमने तो दें, यह शोभा नहीं देता। श्रीमानों और धीमानों को समझना कुछ देखा नहीं, आ.श्री शांतिसागर महाराज ने समस्त संघ भी चाहिए, बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, यदि अकाल में के लिए कहा, 'इस मठ में किसी को आहार चर्या के लिए प्रलय लाना चाहते हो, तो बात अलग है। इसके द्वारा धर्म नहीं जाना है, ' यदि उनके माध्यम से धर्म का संरक्षण हो क्षीण होता चला जा रहा है। रहा है, तो वहाँ का अन्न तो और पवित्र माना जायेगा। वहाँ
____ अंत में कहना चाहूँगा, इनको जगतगुरु भी कहा जाता धर्म का संरक्षण हो रहा है, वहाँ लेने में क्या बाधा है? नहीं, वहाँ का आहार लिया नहीं जा सकता। त्यागियों के
है। अब समझ में नहीं आता, जिन्होंने महाव्रत को अंगीकार
किया, उनको जगतगुरु कहा जाता है। अपनी कुटिया का लिए वहाँ पर जाना निषेध है। 'आप लोग श्रावकों के यहाँ
नाम जगत है, तो बात अलग है। समाज में रहते हो, तो जाओ' कहा। महाराज वे श्रावक नहीं है क्या? 'न समणो
समाज को जगत मानते हो, तो किसने कहा तुमको जगत व सामणो सावयो वा' यह कन्दकन्द भगवान ने घोषणा
गरु। परम्परा से। कौन सी परम्परा से? कहां से प्रारम्भ हई कर दी, न श्रमण रहे न श्रावक रहे। श्रावक होता तो दैनन्दनीय
परम्परा? महावीर भगवान से? नहीं। कुन्दकुन्द, से? नहीं। कार्य करता, जो चूल्हा-चक्की आदि जो कुछ भी है, आ
फिर समन्तभद्र से? नहीं। एक भट्टारक जिसके पास कोई जाते। श्रमण होता है तो एक बार अन्यत्र से जा करके या
प्रतिमा नहीं, वह क्षुल्लक दीक्षा कैसे दे सकता है? किस क्षुल्लक होता तो भैक्षासन करके आ जाता। ये वहाँ पर
आधार पर? आचार संहिता यदि सुरक्षित नहीं रहेगी, जैनत्व रहते हैं । हम यह पूछना चाहते हैं कि यदि प्रतिमाएँ नहीं हैं,
नहीं रहेगा। कोई भी ब्रह्मचारी आ गया और हाथ में पीछी तो श्रावक तो हैं, तो मुनिमहाराज कोई भी आ जाते, उनको
लेकर आएगा, तो आहार दोगे क्या? इच्छामि बोलोगे क्या? पड़गाहन कर लेना चाहिए, श्रावक तो उसी का नाम है। उनका अतिथिसंविभाग कहाँ गया? न अतिथि रहे, बोलो न! गलत हो गया। प्रतिश्रय क्या है, ये उनको न अतिथिसंविभाग रहा। अब सोचने की बात है, कटु तो | मालूम नहीं। और ये संरक्षण कर रहे हैं। किसका संरक्षण लग रहा होगा, महाराज ये क्या कहा आपने? नहीं, आ. कर रहे? इस पिच्छिका के माध्यम से संयम की कहाँ शांतिसागर महाराज ने समाधि के समय अंतिम उपदेश सुरक्षा कर रहे? परिग्रह की रक्षा के लिए, तो ये है ही नहीं दिया, उन्होंने कहा, सुनो, भट्टारको, 'सुनो, धर्म का संरक्षण पिच्छिका। जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिग्रह रखो करो' ये कहा। लिखा है कि नहीं?
तो जीवों के परिमार्जन के लिए। जो उपकरण एक स्थान
से दूसरे स्थान पर रखते हैं, तो उपकार होता है। परिग्रह से लिखा है, सही कह रहा हूँ मैं। और ये आ रहा है
कभी उपकार नहीं होता, जो गृहस्थों के पास है। उसके अखबारों में। ये बहुमान के साथ कहते हैं, सोचो, विचार
लिए चाबी और कूँची लगती है और पीछी-कमण्डल के करो। जो आ. शांतिसागर महाराज के अभिप्राय को भी
लिए चाबी और कूँची नहीं लगती। महाराज, जब कभी नहीं समझता और आप भी नहीं समझ पा रहे हो। क्या आचार्य महाराज ने इसका समर्थन किया होगा, उन्होंने
गड़बड़ हो जाए, एक पीछी और अपने पास रख लो स्पेयर
में और जब गड़बड़ हो जाए, तो निकाल लेना। नहीं, जब विरोध नहीं किया। विरोध करना तो बहुत जघन्य काम हो 8 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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गड़बड़ होगी, कोई श्रावक देगा, तो ले लेंगे। जैसे उमास्वामी महाराज को मिला था गृद्धपिच्छ, उसी प्रकार हमें काम निकालना है, निकाल लेंगे। क्या करें? हम अपनी तरफ से तो नहीं कर सकते, ये तो श्रावकों का कर्तव्य है कि उपकरण दे दें, समय पर । जैसे आहार देते, वैसे उपकरण दे दें। जहाँ से परिग्रह का संग्रह प्रारम्भ हो गया, वहाँ पर न क्षुल्लक पद रहेगा और न श्रमण पद रहेगा। इसलिए उनका पद इन दोनों में कोई नहीं है । तो यह पूजन-अभिषेक और पादप्रक्षालन आदि महत्त्वपूर्ण नहीं। इनके त्याग से भट्टारक पद में कोई भी अवमूल्यन नहीं होगा। इसलिए समयसमय पर विद्वानों ने भी इसके लिए संकेत दिया है। महाराज
इस प्रकार नहीं कहा इसका मतलब यह नहीं कि विरोध नहीं किया। उन्होंने अपने ढंग से विधिमूलक बताया। धर्म का संरक्षण करो। धर्म क्या ? पहिचानोगे तभी तो करोगे। ये सारा का सारा जो है न, पंथवाद के माध्यम से चलने लगा। अभी तो हम श्रावक की बात ही नहीं कर रहे हैं, जिनको लिंग दिया गया है, उसकी बात हम करना चाहते हैं । जो क्षुल्लक होता है, वह व्यक्ति 'पंचगुरुचरणशरणो दर्शनिक: तत्त्व गृह्यः' ये कहा है, समन्तभद्र महाराज की बात सुनो। पैंतीस श्रावकाचार में कहीं भी लिखा हो तो हमें बताओ। क्षुल्लक का पद ऐसा होता है, नहीं है, तो कहाँ से यह आ गया, पैंतीस श्रावकाचार के अलावा। कौन से श्रावक ने लिखा ।
हाँ, भट्टारकों के बारे में तो हम कह सकते हैं कि भट्टारक पहले थे। लेकिन ऐसे भट्टारक हजारों मुनियों में एकाध होता था, जिसको उपाधि से विभूषित किया जाता था। घोषित किया जाता था और उनकी शरण में रहकर के, छाया में रह करके, श्रमण लोग आनन्द का अनुभव करते थे । इनके माध्यम से हमारा धर्मश्रवण बहुत 1 अच्छा चलेगा। लेकिन उस पद को लेकर वर्तमान के भट्टारकों की दशा, ये बिल्कुल गलत है। एक प्रकार से यूँ कहना चाहिए दिगम्बरत्व को धारण करके अथवा क्षुल्लक पद को धारण करके पुनः भट्टारक पद को धारण करके, इस प्रकार के कार्य में लगने का अर्थ हुआ एक दिगम्बर एवं क्षुल्लक पद का अवमूल्यन, अवमूल्यन ही नहीं नेस्तनाबूद करना है । फिर भी वेष रखना यह उन्मार्ग माना जायेगा। यह मार्ग नहीं उन्मार्ग है। बुरा नहीं मानना, शास्त्र में ऐसा ही उल्लेख किया गया है। फिर भी आचार्यों की बात सुनकर के देखो, महाराज जी ने हमारे लिए कितना अच्छा उपदेश दिया, इसको यदि ब्याज के रूप में लेते हो,
'इति छलं न घेत्तत्त्वं' इतना कहकर विराम लेता हूँ । यदि चूक गया तो छल धारण नहीं करना, यहाँ चूक तो हो ही नहीं रही। 'धर्म का संरक्षण करना' कोई भी क्षेत्र, कोई भी समाज, इसकी रक्षा के लिए कोई भी इस ढंग से पद निर्धारित कर दें, तो धर्मात्म पद तो नहीं माना जा सकता। एक था समय, उस समय में, उन्होंने अपने ढंग से बहुत काम किए हैं। किस रूप में किए हैं, इसकी बात सुनेंगे तो इसका कम वर्णन नहीं बहुत बड़ा वर्णन है। इसको लेकर के इसको पद मान लें और राजमार्ग मान लें। राजमार्ग नहीं अपवाद मार्ग भी वह नहीं है। क्योंकि थोड़ी बहुत कमी है। तो अपवाद मार्ग हो, यह तो बिल्कुल विपरीत मार्ग हो गया। इसको मार्ग के नेता चुनकरके अंधाधुंध जो है कि इसका समर्थन कर रहे हैं। एक प्रकार से जैन समाज के लिए बहुत चिंतनीय विषय है। महाराज इसको कहने का क्या तात्पर्य निकला, चूँकि समाधि के समय पर शांतिसागर जी महाराज इसको संबोधित करके चले गये, इसको लेकर
कई लोग इसका अर्थ ये निकाल रहे हैं, महाराज जी ने हमें संबोधित किया हमारा कार्य तो ठीक चल रहा है। 'ऐसे ही धर्म संरक्षण करते रहो' ऐसा नहीं कहा उन्होंने । जो अभी कर रहे हो ऐसा नहीं कहा, किन्तु धर्म संरक्षण करते रहना । धर्म को समझें तभी तो संरक्षण होगा।
इस कार्य को इस प्रकार किया जा सकता है। वह क्या है ? जो पीछी रख दें, कमण्डलु रख दें, कहाँ, अपने पास न रखें और पादप्रक्षालन छोड़ दें, अर्घ चढ़वाना छोड़ दें, फिर वहाँ उस मठ के मालिक बन करके, आदर्श रूप धारण करके, समाज का नेतृत्व और उस क्षेत्र का संरक्षण करो, तो पूरा उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक एक हो जायेगा किन्तु क्षुल्लक आप अपने को नहीं कह सकते, यह रूप होना चाहिए। यह महाराज जी का आशय था । हमने इन दोनों पंक्ति को पढ़ करके यह आशय निकाला है। इससे गलत आशय तो हो नहीं सकता। यदि होता है तो सारे के सारे दोष आपके सामने रखे। समन्तभद्र महाराज के रत्नकरण्ड श्रावकाचार को, अष्टपाहुड़ के उस प्रकरण को दूषित किया जा रहा है, यह कहने में कोई भी बाधा नहीं आती।
समन्तभद्र स्वामी और कुन्दकुन्द स्वामी ये दोनों शिरोमणि आचार्य हैं और समाज को नेतृत्व देकर के गये । उनकी कृपा एवं लेखनी से यह साहित्य का निर्माण हुआ । इसका संरक्षण करेंगे तभी इस पद का संरक्षण
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होगा। नहीं है, तो कभी भी नहीं होगा। हाँ, यदि मान लो आप लोग हजारों रुपये गिन रहे हैं। नोट वगैरह गिनते गये, एक दृष्टि पड़ गई, नोट निकाला, आकार, रंगरोगन वजन, आजू-बाजू एक से हैं, लेकिन पूरा नहीं है, जाली नोट कहलायेगा। अंधकार में तो चल जायेगा। जल्दी-जल्दी में गिन जायेगा। लेकिन जैसे ही दृष्टि गई, जाली नोट, कहाँ से आया, धोखा है। इसी प्रकार गुण धर्म के अभाव में वेष, वहाँ अंधकार में जो चल सकता है। जहाँ पर जिनवाणी का प्रकाश है वहाँ पर चल नहीं सकता। कुछ ही समय में वह पकड़ में आ जायेगा। इस उदाहरण को आप याद रखियेगा । नहीं समझे। धोखे में नहीं रहना । अपने दाम को, कहीं खोटा तो नहीं, हमेशा-हमेशा देखते रहना। जब तक विवेक नहीं होता । 'बिन जाने तें दोष गुनन को कैसे तजिए गहिए'। दोष और गुण की पहचान होना पहले आवश्यक है । कच्चा माल अलग है और पक्का माल अलग है। कच्चा मालपक्का माल गट्टपट्ट नहीं कर सकते। लेकिन आस्था और भय दो वस्तु होती हैं, भय के कारण मानो कहेंगे, तो मान लेंगे, क्योंकि मंत्र तंत्र के कारण भी बहुत जल्दी गृहस्थ लोग डर जाते हैं। कहीं अभिशाप न मिल जाये। ध्यान रखो, जब भगवान का हम लोगों के ऊपर वरदहस्त है, कौन है वे अभिशाप देने वाले । दे दें तो बहुत अच्छी बात है । आपका यह समाज शांतिसागर महाराज के उपदेश को इस आशय के साथ लेता है। उनका आश्य ऐसा नहीं था, यही एकमात्र विश्वास है । आप लोगों को लगता हो तो एक घंटे का प्रवचन है, इसको मत स्वीकारो, नहीं महाराज, यही आशय ठीक था, उन्होंने यही बात कही है। इस
प्रकार के अपदस्थ व्यक्ति को 'यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भव पद्धति ।' बिल्कुल डंके की चोट के साथ समन्तभद्र महाराज ने कही है। सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र
कैलिफोर्निया । पशुओं के साथ क्रूरता से पेश आने वाले लोगों को अदालत के इस फैसले से सबक लेना चाहिए। कैलिफोर्निया की एक अदालत जर्मन शेफर्ड कुत्ते का सिर धड़ से अलग करने वाले शख्स को 25 साल कैद की सजा सुनाई है। जेम्स एबर्नेथी पर जून में पशुओं के साथ क्रूरता से पेश आने का आरोप लगा था। उसने प्रेमिका से अनबन होने पर अपने कुत्ते को मार डाला था। जेम्स ने अपनी प्रेमिका के नाम पर कुत्ते का नाम मैरी रखा था। इस मामले में उसे अधिकतम छह वर्ष की कैद की सजा सुनाई जाती। लेकिन 1986 में जेम्स पर घातक हथियारों से हमला करने के दो आरोप लगे थे। इस वजह से अदालत 10 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
गुण हैं और उन गुणानुरूप ही वेष, लिंग होना चाहिए, तभी उस लिंग की पूजा होती है। नहीं तो वह लिंग एक प्रकार से पूज्य नहीं माना जाता है। हां, अकरने योग्य नहीं करते हैं, तो वह वेष तो वेष माना जाता है।
बिना आधार, दीक्षा के संस्कार देना अथवा क्षुल्लक बना करके पुनः वस्त्रधारी भट्टारक जो वर्ममान में विकृत रूप, एक क्षुल्लक को साफा बाँध दो, ये ठीक लगता है। क्या, साफा बाँधकर क्षुल्लक आ जाएं तो आप पड़गाहन करोगे क्या? नहीं करेंगे। इच्छामि बोलोगे, पाद प्रक्षालन करोगे क्या? नहीं करेंगे। अर्घ चढ़ाओगे क्या? नहीं। और यह हो रहा है, प्रतिदिन हो रहा है। परिपाटी कहाँ से हुई, ये विषय अलग है, आज का विषय यह नहीं है। आप अध्ययन करिए, पढ़िए और जो समर्थन करते हैं, जा करके इन प्रश्नों के साथ, जिज्ञासा के साथ, पूछ लीजिए। हमारे पास जब कभी भी आए, हमने रखे और उन्होंने इसको स्वीकार किया, लेकिन महाराज बुहत दिन से चल रहा है, बहुत अच्छी बात आप निभा रहे हैं। लेकिन इसका समर्थन नहीं कर सकता। जहाँ पर चल जाये इस प्रकार का नोट आप ले जाओ। माल दे दो और खोटा नोट ले लो। धर्म बहुत कठोर है, तो बहुत नरम भी है। धर्म आत्मा का स्वाभाव है, लेकिन विभाव जब तक दूर नहीं होता, तब तक स्वभाव का दर्शन नहीं होता। इसलिए 'चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावन्तरच्छिदे ।'
कुत्ते को मारने पर 25 साल की कैद
ने उसे 25 वर्ष की कैद की सजा सुनाई है।
सरकारी वकील हीथरी ब्राउन ने कहा कि अदालत के इस फैसले से लोग खुद को सुरक्षित महसूस करेंगे। बचाव पक्ष के वकील ने अदालत से कहा कि जेम्स सिजोफ्रेनिया व साइकोटिक डिल्यूजंस का मरीज है। इसलिए इसकी सजा की अवधि घटा दी जाए। इस पर जज ने कहा कि अपराध के वक्त वह दिमागी तौर पर स्वस्थ और संतुलित था। अदालत ने कहा कि पैरोल पर रिहा होने से पहले उसे 20 वर्ष जेल में ही गुजारने होंगे।
( अमर उजाला, 10 अक्टूबर 2004 )
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सर्वनाश का साधक क्रोध
क्रोध अत्यधिक अनिष्टकारी है। इस बात को सभी धर्म एवं मान्यताओं ने स्वीकार किया है। इसलिए क्रोध को वश में करना प्राथमिक आवश्यकता समझनी चाहिए। क्रोध के प्रभाव से प्राणी बुद्धि, विवेक, ज्ञान, शक्ति सब कुछ खो देता है । फिर तो उसके द्वारा जो भी कार्य होता है वह सर्वनाश करने वाला होता है ।
क्रोध को जीतने के लिए मनीषियों ने अनेक उपाय बताये हैं। यहाँ कुछ सरल अनुभूत प्रयोग बताए जा रहे हैं । आस्थापूर्वक अभ्यास करने से कुछ ही समय में निश्चित रूप से क्रोध की प्रवृति हटकर आपकी प्रकृति ही बदल जायेगी।
क्रोध जीतने के उपाय
1. क्रोध आने की सम्भावना होते ही अपने आप को उत्प्रेरक व्यक्ति से दूर हटाकर एक घंटे के लिए पूर्णत: एकान्त में बैठ जाइये ।
2. क्रोध आने पर अपना चेहरा आइने में देखिये और सोचिये कि आप कितने बुरे लग रहे हैं।
3. यह प्रतिज्ञा लेवें कि किसी पर क्रोध करना है तो एक घंटे या एक दिन बाद करेंगे।
4. यह प्रतिज्ञा करें कि किसी पर क्रोध करेंगे तो बाद में उससे अवश्य क्षमायाचना या मृदुप्रिय व्यवहार करेंगे भले ही प्रतिपक्षी की गलती क्यों न हो।
5. यह प्रतिज्ञा करें कि जब किसी पर क्रोध करेंगे तो बाद में उस दिन उस समय के पश्चात् के भोजन में अपनी अति प्रिय वस्तु का त्याग करेंगे। जैसे नमक, चीनी, दूध, दही, घी, तेल, सब्जी, दाल, फल इत्यादि । यह दंड है
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6. बार- बार क्रोध करने का स्वभाव ही बन गया है तो दोपहर के भोजन के बाद एक घंटे मौन रहने का अभ्यास करें। जनसम्पर्क से दूर रहें। संकेत, इशारे, हूँ, हाँ, कुछ नहीं करना है। इस समय अपनी इस बुरी आदत की निन्दा, आलोचना, पश्चाताप, कुप्रभाव, लोक व्यवहार, जनप्रियता की हानि आदि के सम्बम्ध में चिन्तन करें।
7. क्रोध आया है या आ रहा है तो अपने रूचिकर विषय की पुस्तक पढ़ने लग जावें अथवा कुछ लेखन कार्य
ब्र. शान्तिकुमार जैन
करने लग जावें ताकि उपयोग एवं मस्तिष्क की क्रिया अन्यत्र होने लग जावे ।
8. क्रोध में मधुर संगीत, भजन सुनें कम से कम आधे या एक घंटे तक टी.वी. नहीं देखें।
9. क्रोधी को हंसकर टाल देवें, बोल देवें कि बाद में बात करेंगे, अन्यत्र चले जावें । उसकी कोई बात का प्रत्युत्तर नहीं देवें । आरोपों को अनसुना कर देवें ।
10. क्रोध कभी भी निरन्तर अधिक समय तक एक सी तीव्रता के साथ नहीं ठहर सकता, अतः समय का व्यवधान ही सरल उपाय है। उपरोक्त क्रियाओं से कुछ ही दिनों में क्रोध आने की बारी कम होती चली जायेगी। सबको आप बदले-बदले नजर आयेंगे। प्रिय लगने लगेंगे। क्रोध से होने वाली हानियाँ
1. चिकित्सा विज्ञान कहता है कि इससे हाईब्लड प्रेशर, हार्ट अटैक, डाइबिटीज, पाचन यंत्र में खराबी, ब्रेनहेमरेज, लकवा, केंसर आदि घातक बीमारियाँ हो सकती है।
2. क्रोध में लिये गये निर्णय सर्वदा गलत एवं विनाशकारी ही होते हैं । अर्थहानि, द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, भाव-भावना में विकृति निश्चित रूप से हो जाती है ।
3. अपने क्रोध के पूर्व परिणामों से शिक्षा लेवें । तभी विश्वास कर पायेंगे कि वे सर्वदा अनिष्टकारी ही हुये हैं ।
4. आप दूसरे किसी के भी क्रोध को अच्छा नहीं मान पाते तो फिर आपका क्रोध अन्य को भी नहीं सुहायेगा । लोक आचरण, सम्पर्क एवं प्रेम वात्सल्य नष्ट हो जाता है।
5. जिस व्यक्ति पर आपने क्रोध किया, अवसर मिलने पर वह आपका भारी नुकसान अवश्य करेगा ।
6. क्रोध एक महारोग है । क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, बैर, विरोध, कलह, झगड़ा, विसंवाद, नाराजगी, रूठना, वैमनस्यता आदि क्रोध के ही कथंचित एकार्थवाची शब्द हैं। इनसे रूखापन, छिछलापन, चिड़चिड़ापन, क्रूरतावाला स्वभाव ही बन जाता है।
7. तीव्र क्रोध का बराबर होने से व्यक्ति में एकाकीपन, अन्तर संघर्ष, हताशा, निराशा, उदासी, हैरानी, परेशानी, घुटन
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आती है एवं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अन्त में आत्महत्या तक क्रोध का प्रतिपक्षी भी कर लेता है। अथवा दूसरे व्यक्ति की हत्या भी कर देता
__1.एक लोकोक्ति है कि ठंडा लोहा गर्म लोहे को काटता
है। प्रयोग करने पर इसकी सत्यता स्वयं प्रमाणित होगी। 8.प्रतिकार के अभाव में एवं क्रोध का प्रभाव नहीं होने
___2. अपने वक्तव्य को बहुत ही मधुर एवं धीमे स्वर में : पर व्यक्ति के अन्दर घुटन होती है फलस्वरूप वह पागल
बोलिए। अथवा अर्धविक्षिप्त भी हो सकता है।
3. ऐसे प्रमाण दीजिये कि सामने वाले को उसकी 9.गर्भवती स्त्री के क्रोध के कारण गर्भस्थ शिशु विकार
गलती का स्वयं ही अहसास-अनुमान हो सके। ग्रस्त हो सकता है। गर्भपात भी होने की संभावना रहती है।
4. अपनी बात पर कायम रहते हुए कई बार बोलिए। 10.सामान्य क्रोध करने वाला व्यक्ति शीघ्र शान्त हो जाता है एवं अपने में ही पश्चताप करता भी है। तीव्र क्रोध
5.धीमी, ठंडी मधुर वाणी का प्रभाव तीव्र एवं दीर्घ दीर्घस्थाई, उन्मादी, ध्वंसप्रवृति कराने वाला होता है। किसी
स्थाई होता है। क्रोध तो विरोधी पैदा करता है। का कोई उपदेश नहीं मानता ऐसे व्यक्ति के द्वारा शक्ति के 6.कर्मचारी को वेतन देने के अतिरिक्त उसके संकट, दुरुपयोग से स्व-पर का विनाश ही होता है। .. कष्ट के समय यथोचित सेवा की व्यवस्था भी कीजिये। वह 11.अकेला, असहाय, बेसहारा, लाचार, कुंठित व्यक्ति
आजीवन आपका विश्वस्त रहेगा। कृतज्ञ बना रहेगा। क्रोध के द्वारा अपने प्रति लोगों का ध्यान आकर्षण करना क्रोध का मुख्य प्रतिपक्षी, 'क्षमा' चाहता है, साथ ही अपने अभिमत एवं व्यवहार का समर्थन
___ इस अद्भुत गुण को शक्तिशाली ज्ञानी व्यक्ति ही धारण भी चाहता है, पर मिलता कुछ नहीं। फलतः उसकी शारीरिक
करता है एवं जीवन भर प्रयोग करता रहता है। विश्व में : एवं मानसिक दोनों ही स्थितियाँ और कमजोर हो जाती हैं।
महापुरुषों में यही गुण प्रधान रहता आया है। खीझ के मारे परिवार-परिजन के साथ अपना भी सर्वनाश कर लेता है।
1.समतारूपी शीतला से ही क्रोध शान्त रहता है। पर
के क्रोध को भी शान्त किया जा सकता है। ___ 12.क्रोध से पतली रक्तवाहिनी नसें रक्त का दबाव बढ़ने के कारण फट जाती हैं परिणाम स्वरूप कोई घातक
2.सामने वाला व्यक्ति क्रोध करे, गाली भी दे और आप रोग हो जाता है या मृत्यु हो जाती है।
प्रभावित नहीं होवें तो उसे मजा ही नहीं आयेगा। कुछ समय
के पश्चात स्वयं ही लज्जित हो जाता है। क्रोध के कारण 13. मनोवैज्ञानिक केप्रान एवं सेडोक ने बताया है कि
उसी का अनिष्ट होता है। गाली से उसी का मुख एवं मन क्रोध के कारण मस्तिष्कीय हार्मोन में कमी आ जाती है।
मैला हुआ, आपके शरीर व मन का कुछ भी नहीं बिगड़ता एसिड-केमिकल की मात्रा ही घट जाती है और मस्तिष्क के एमीगडल, टेंपोरल लोब, लिम्बिक सिस्टम आदि के विकृत होने पर व्यक्ति की आकृति वीभत्स, कुत्सित एवं
3. तलवार के वार से बने घाव भी मिट जाते हैं पर भयंकर हो जाती है और सामूहिक विध्वंसात्मक हिंसा के
वचनों के प्रहार से बना वैर भाव भवान्तर तक साथ चलता कार्य कर देता है। ऐसा व्यक्ति का अपने आप का नियंत्रण
है। इसी भव में समझौता, समर्पण, क्षमा याचना, क्षमादान ही पूर्णतः समाप्त हो जाता है।
के द्वारा वैर को येन-केन-प्रकरण समाप्त कर ही देना चाहिए।
यह बड़ी तीक्ष्ण शल्य है जो अन्तर के अन्तरतम स्थल पर क्रोध के कारण
चुभती रहती है। इसका पोषण नहीं शीघ्र ही शोषण कर ही व्यवधान, अवरोध, कटाक्ष, व्यंग, विरोध, तनाव, मनपसन्द | देना चाहिए। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों कार्य के नहीं होने पर, अन्य व्यक्ति से उसके सामर्थ्य-बुद्धि में क्रोध को प्रथम में रखने का अर्थ है कि यही सर्वाधिक से अधिक का कार्य की अपेक्षा करना, असफलता, असंतोष, घातक कषाय है। इसको जीतकर क्षमा गुण को प्रकट करने भूख, थकान एवं कमजोरी है। मान, माया, लोभ में व्याघात पर ही आत्मा के शेष अन्य गुण समूहों की प्राप्ति सम्भव हो होने पर भी क्रोध भड़कता है।
पाती है। ऐसे गुणवान जीव ही मुक्त हो जाते हैं।
है।
12 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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जल सोचता, अनुभव करता और व्यक्त करता है
श्री प्रभुनारायण मिश्र
'नया ज्ञानोदय' साहित्यिक मासिक के 'बिन पानी सब सून' विशेषांक (मार्च, 04) से श्री प्रभुनारायण मिश्र, इंदौर का यह आलेख साभार ग्रहण किया गया है।
लेख में कुछ बिन्दुओं पर जैन दर्शन' से पृथक् निष्कर्ष हो सकते हैं, किन्तु 'जैन दर्शन' द्वारा प्रतिपादित जल में जीवत्व की सिद्धि की दिशा में इस आलेख में कुछ नूतन जानकारियाँ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हुई हैं।
अध्येताओं से अपेक्षा है कि वे भी इस दिशा में सार्थक प्रयास कर नवीनतम जानकारियाँ संकलित करें। प्राप्त सूचनाओं को पाठकों तक प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा सकेगा।
सम्पादक
प्रायः कथाओं में आता है कि ऋषि ने हाथ में जल | डा. ईमोटो ने अपने प्रयोगों द्वारा जल की अभिव्यंजनाओं लिया, कुछ बुदबुदाए और शाप देकर जल किसी व्यक्ति | का छायांकन किया। उन्होंने ऐसी तकनीक का विकास पर फेंक दिया। ऋषि ने जैसा शाप दिया था वैसा ही घटित | किया जिसके द्वारा जमे हुए जल से सद्यः बने रवों हो गया। तो क्या जल ने ऋषि का आदेश माना, उनके । (क्रिस्टल) के विन्यास का चित्र खींचा जा सके। अत्यंत आदेश का परिपालन किया अथवा इस पूरी प्रक्रिया में जल | ठंडे कक्ष में शक्तिशाली दूरदर्शी यंत्र द्वारा यह संभव हो की कोई भूमिका थी ही नहीं? यह ऋषि का ही तपोबल था | सका। अपने प्रयोगों के लिए डा. ईमोटो ने संसार के जिसके कारण कुछ घटित हो गया। जल द्वारा अर्घ देना, | अनेक हिस्सों से जल के नमूने एकत्रित कराए। यह अपने जल छिड़क कर स्वस्तिपाठ करना आदि हमारी परम्परा के | आप में एक कष्ट साध्य कार्य था। जल के विभिन्न नमूनों अंग रहे हैं। कुछ समय पहले तक जल के इस प्रकार के को विचार और भावनाओं का सम्प्रेषण किया गया। यह प्रयोग का कोई ज्ञात तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं था। सम्प्रेषण कई प्रकार से किया गया, कहीं जल भरे बोतल ये बातें या तो गल्प प्रतीत होती थीं या पहेली। परन्तु आज पर कागज पर कुछ शब्द लिखकर चिपकाए गए तो कहीं विज्ञान इस दहलीज पर पहुंच गया है जहां पर लोग यह प्रार्थना की गई। जल को राजनैतिक वाद-विवाद के स्थान सोचने लगे हैं कि क्या पानी सनता है? क्या पानी स्मरण पर रखा गया तथा दूर से अनेक लोगों द्वारा विचार तरंगें भी रखता है? क्या पानी भावनाओं को समझता है? इस दिशा भेजी गईं। जल के रवों के विन्यास का चित्र लेने के लिए में जापान के शोधकर्ता डा. मसारु ईमोटो ने कुछ गंभीर । प्रयोगशाला के कक्ष में विशेष तापमान-5 डिग्री सेंटीग्रेट प्रयोग वर्षों तक किए और उनके प्रयोगों से ऐसा आभासित | तक ले जाया गया। उस कक्ष में लगभग 1/2 सीसी जल होता है कि जल पर स्थान, ध्वनि, भावनाओं एवं विचारों को अनेक छोटी तश्तरियों में रखकर लगभग 3 घंटों के का प्रभाव पड़ता है।
लिए फ्रिजर में रखा और फ्रिजर का तापमान लगभग -25
500 व्यक्तियों का प्रेम संदेश सम्प्रेषित करने पर आनन्दित जल का रूप 'तुमने मुझे बीमार कर दिया' लेबल लगी बोतल-जल का रवा विन्यास
अक्टूबर 2004 जिनभाषित 13
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बोतल पर 'देवदूत' (Angel) लिखने पर (रवा-विन्यास)
बोतल पर 'दैत्य' (Demon) लिखने पर (रवा-विन्यास) डिग्री से. रखा गया। इस शीतलन पर पानी न केवल जम | इसके बाद डा. ईमोटो ने अपनी विधि का प्रयोग करते हुए जाता है बल्कि उसके रवे भी बन जाते हैं। फिर सूक्ष्मदर्शी बोतलों में रखे जल का रवाकरण किया तथा उनके चित्र कैमरे के द्वारा रवों के विन्यास के चित्र खींचे गये। चित्र | लिए। पहले जापानी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया गया खींचने के लिए रवों को 200 से 500 गुना बड़ा किया फिर अंग्रेजी एवं जर्मन भाषाओं का प्रयोग किया। शोध गया। चित्र खींचते समय जमे हुए जल पर सूक्ष्मदर्शी से दल ने यह देखा कि अन्य भाषाओं में विलक्षण साम्य है। प्रकाश डाला गया। इस प्रकार पिघलते हुए बर्फ के शीर्ष उन्होंने देखा कि बोतल पर लिखे गए शब्द रवा विन्यास के पर रवों के विन्यास का अवलोकन करना सुगम था। मनुष्यों स्वरूप को प्रभावित करते हैं और उस शब्द के भाव को की आकृतियों की भांति यद्यपि ये विन्यास एक जैसी प्रकट करते हैं। एक ही शब्द यदि विभिन्न भाषाओं में आकृति नहीं ग्रहण करते थे परन्तु उनमें परिस्थितियों के लिखा गया है तो रवा विन्यास लगभग एक जैसा पाया अनुसार एक प्रतिमान (पैटर्न) अवश्य दिखाई देता था। गया। यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या पानी कई भाषाएं ___ डा. ईमोटो और उनके सहयोगियों ने इस प्रकार 10000
समझता है और उसके अनुसार प्रतिक्रिया करता है? डा. से अधिक चित्र खींचे। इस लेख में दिए गए चित्र डा.
ईमोटो इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि आपको यह बात ईमोटो एवं उनके सहयोगियों द्वारा लिए गए हैं। जल का
समझने में आसानी होगी जब आप तरंगों एवं कंपनों के
परिप्रेक्ष्य में सोचें। विभिन्न प्रकार के समानार्थी शब्द एक रवाकरण कई प्रकार की परिस्थितियों में किया गया। एक
ही प्रकार की तरंगें पैदा करेंगे। पानी उन तरंगों से प्रभावित बोतल पर 'देवदूत' शब्द लिखकर चिपका दिया गया और दूसरे पर 'दैत्य' किन्हीं बोतलों पर 'तुमने मुझे बीमार कर
होता है, भाषा से नहीं। कोई हिन्दी में धन्यवाद कह रहा है दिया' और 'मैं तुम्हें मार डालूंगा' लिखकर चिपका दिया
तो कोई अंग्रेजी में या जापानी में। शब्द एवं ध्वनि के गया। अन्य बोतलों पर 'एडोल्फ हिटलर' तथा कुछ पर
अलग होने के बावजूद विचार एवं तरंगें तो एक जैसी ही 'मदर टेरेसा' लिखा गया। कुछ बोतलों पर 'धन्यवाद' व
रहेंगी। हो सकता है कि जल तरंगों में निहित भावनाओं कुछ बोतलों पर 'प्रेम' और 'सद्भावना' जैसे शब्द लिखे
की भाषा समझता हो। गए। उपरोक्त वर्णित विविध शब्दों के लेबल लगे बोतलों तरंगों की बात तब और वजनदार प्रमाणित हुई जब में शुद्ध जल भरकर उसे 24 घंटे के लिए छोड़ दिया गया। | यह देखा गया कि 500 व्यक्तियों ने पानी को मानसिक
न्यूयार्क के नल का जल (रवा-विन्यास)
लन्दन के नल का जल (रवा विन्यास) 14 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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रूप से प्रेम का संदेश सम्प्रेषित किया। इस प्रेम का संदेश | ऑस्टमोटिक दबाव बढ़ता है और पसीना छूटना, क्रोध प्राप्त जल के रवे अत्यंत सुन्दर षट्कोणीय आकृति में आ | आना, कंपकंपी छूटना, नेत्र लाल होना, भुजाएं फड़कना गए। जापान के फ्यूजीवारा बांध का जल लेकर प्रार्थना के | जैसी क्रियाएं होती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में जल की भूमिका पहले एवं बाद में उसके रवे बनाए गए । रवों के विन्यास में | निर्णायक होती है। सम्भवतः मंत्रों से अभिसिक्त जल की प्रार्थना के पहले व प्रार्थना के बाद के स्वरूपों में उल्लेखनीय | गुणवत्ता उसे जिस पात्र में या हाथ में रखा गया है उसकी परिवर्तन देखा गया। इसी प्रकार भारी धातु के संगीत तथा | विद्युत चुम्बकीय शक्ति से भी आविष्ट हो जाती हो। उच्चरित समूह नृत्य के पश्चात रवों ने जो आकृतियां ग्रहण की | मंत्रों की ध्वनि तरंगों के प्रभाव से मंत्रपूरित जल के अणु उनसे डा. ईमोटो ने यह निष्कर्ष निकाला कि जल भावनाओं, | एक विशेष प्रतिमान में संयोजित हो जाते हों। यह मंत्रसिक्त विचारों, क्रियाकलापों तथा घटनाओं से प्रभावित होता है | जल जिस व्यक्ति या वस्तु पर फेंका जाता हो तो वह वहां और उनका अंकन भी करता रहता है।
अवशोषित होकर तदनुसार प्रभाव उत्पन्न करता हो। वेद डा. ईमोटो तथा उनके दल ने यह देखा कि पहाड़ी
और पुराणों में जल के विभन्न गुणधर्मों का स्थान-स्थान झरने के जल से जहां षट्कोणीय रवा विन्यास बनता है, |
पर उल्लेख है। अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया हैवहीं प्रदूषित जल से प्रायः रवा विन्यास बनता ही नहीं।
इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः ।
गृहानुप प्रपसीदाम्यमृदेन सहाग्नि॥ विश्व के विभिन्न शहरों के आसपास वर्षा का जल रवे के
(अथर्ववेद 3/12/9) रूप में अव्यवस्थित सा प्रतीत हुआ। धुव्रीय प्रदेशों का
जिसका आशय है- भली भांति रोगाणु रहित तथा जल अत्यंत स्वच्छ रवे का निर्माण करता है। डा. ईमोटो के अनुसार जल एक प्रकार के तरल टेप रिकार्ड के रूप में
रोगों को दूर करने वाला जल लेकर आता हूँ। इस शुद्ध कार्य करता है जो अपने आसपास के वातावरण का अंकन
जल के सेवन से यक्ष्मा (टीबी) जैसे रोगों का नाश होता एवं प्रत्त्यावर्तन करता है। गुफाओं के जल ने गुफाओं जैसा
है। अन्न, दूध, घी आदि द्रव्यों में जल का महत्वपूर्ण स्वरूप प्रदर्शित किया, झरने के जल के रवे ने माला का
स्थान है और इनमें जल अग्नि सहित निवास करता है। स्वरूप लिया, हीरे की खदानों के निकट के जल के रवे ने
यदि डा. ईमोटो का प्रयोग वस्तुतः सत्य है तो भारतीय हीरे जैसी आकृति ली। डा. ईमोटो ने यह देखा कि पानी न
अध्यात्म को समझने में कुछ और सहूलियत हो जाएगी केवल अपने निकट के वातावरण का अंकन एवं प्रत्त्यावर्तन
जिसने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को संवेदनायुक्त माना है। करता है बल्कि ध्वनि से भी प्रभावित होता है। ईमोटो के
इससे हमारे रोजमर्रा के अनेकानेक कार्यों के लिए भी प्रयोगों में जल ध्वनि को सुनता हुआ सा प्रतीत हुआ। डा.
तार्किक आधार प्राप्त होगा। जैसे भोजन करने के पूर्व प्रार्थना ईमोटो और उनके सहयोगियों ने टेलिविजन पर हो रहे
करना, पवित्रता प्राप्त करने के लिए जल का प्रयोग करना, राजनैतिक वाद-विवाद के दौरान भी जल के व्यवहार का
अनेक कर्मकाण्डों में विविध प्रकार से जल का प्रयोग अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि जल दिग्भ्रम
करना आदि। जल के प्रति बदलता यह दृष्टिकोण हमें और संशय की स्थिति में है। जल ध्यान, प्रार्थना तथा
इसके प्रति अपना व्यवहार परिवर्तित करने का संदेश देता विचार आदि से भी प्रभावित होता प्रतीत हुआ।
है। अपनी जीवन शैली को सहिष्णु, प्रेममय तथा संजीदा
बनाने का निवेदन जल हमसे चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा शास्त्र कहते हैं, मनुष्य का शरीर पंचमहाभतों से
है। वर्तमान जीवनशैली में यदि हमने परिवर्तन नहीं किया मिलकर बना है। जल उसका प्रमुख घटक है। शरीर में
तो हम स्वतः अपने विनाश का कारण बनेंगे। नदियों के पुष्टि, तृष्टि, क्षुधा आदि की प्रवृत्तियां तभी सक्रिय होती हैं
| प्रदूषित जल के पीड़ित रवों को देखकर यही संदेश हम जब जल का उचित अनुपात कोशिकाओं में संतुलन पा
तक आता है कि जल चीत्कार कर रहा है-हे मनुष्य! बहुत लेता है। एक उदाहरण लें किसी को हमने कटु वचन कहे,
हुआ अब बस करो। यदि जल संवेदनशील है तो वह उसका अपमान किया तो तत्काल उसकी श्रवणेन्द्रियां
प्रतिक्रिया भी करता होगा। जल की कोई कठोर प्रतिक्रिया मस्तिष्क को उत्तेजित करती हैं। परिणामस्वरूप अन्तः
हो इसके पहले ही हमें अपना व्यवहार निसर्ग के प्रति स्रावी ग्रंथियों में हार्मोन के रूप में संग्रहित जल उद्वेलित सँवार लेना चाहिए। होता है और छलककर रक्त में आ मिलता है। इसकी
निदेशक-प्रबंधन अध्ययन संस्थान, सांन्द्रता रक्त में बढ़ते ही शरीर की कोशिकाओं में संचारित
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.)
- अक्टूबर 2004 जिनभाषित 15
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संपूर्ण जगत में दो मूल तत्व पाये जाते हैं। जड़ और चेतन। जड़ पदार्थों को जाहिरा तौर पर भोजन की जरूरत नहीं होती किन्तु चेतनतत्त्व में अशरीरी आत्माओं (यदि होती हों) को छोड़कर सभी शरीरधारियों को जीवित रहने के लिए भोजन अनिवार्य आवश्यकता है। मजे की बात है कि उन्हें यह भोजन भी चेतनतत्त्वों से ही मिलता है ।
शाकाहार
जैन दर्शन में चेतनतत्त्वों को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। स्थावर और त्रस । आधुनिक विज्ञान में भी जीवन का अध्ययन दो हिस्सों- वनस्पति शास्त्र और जन्तु शास्त्र में किया जाता है। वनस्पति और जन्तु में कुछ मूलभूत अंतर होते हैं। मसलन जैन दर्शन वनस्पति को एक इंद्रिय जीव और जन्तु को दो से पांच इंद्रिय जीव मानता है। जीव विज्ञान की मान्यता है कि वनस्पतियों की शरीर रचना में केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र नहीं होता, उनकी गतिविधियां हार्मोन्स के द्वारा नियंत्रित होती हैं। जबकि जन्तुओं में केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र और हार्मोन्स दोनों प्रणालियां होती हैं। अतः वनस्पतियो को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र नहीं होने के कारण शरीरगत सुख-दुख का अहसास उतनी तीव्रता से नहीं होता जितना जन्तुओं को होता है।
मनुष्य शरीर की रचना का अध्ययन जन्तु- शास्त्र के अंतर्गत होता है। जन्तु अपना भोजन वनस्पति और जंतुओं से ही प्राप्त करता है। भोजन के मामले में जन्तु तीन प्रकार के होते हैं । सर्वाहारी, शाकाहारी, मांसाहारी । सर्वाहारी
16 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
श्रीमती सूरज जैन
अपना भोजन वनस्पति और जंतु दोनों से प्राप्त करता है। मनुष्य इसी श्रेणी में आता है। उसके संदर्भ में शाकाहारी होने का सीधा सादा अर्थ है- सिर्फ वनस्पति और वनस्पतिउत्पाद भोजन के रूप में इस्तेमाल करना । शाकाहारी होने के पीछे मुख्य उद्देश्य पशुवध जैसी स्थूल हिंसा से बचना है । और शाकाहार से इस उद्देश्य की पूर्ति बखूबी होती है । ऐसा करके हम 'जियो और जीने दो' के सिद्धांत को साकार करके अन्य प्राणियों के जीवित रहने के अधिकार को मान्यता देते हैं। हालांकि शाकाहार में भी एक इंद्रिय जीव का घात होता है, किन्तु त्रस जीवों के वध से बचाव करके, बड़ी बुराई से छोटी बुराई की ओर आने के लिए शाकाहार ही हितकर है।
शाकाहार शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति एवं शारीरिक क्षमता में वृद्धि करता है ।
शाकाहार पर मनुष्य पूरी एवं लम्बी उम्र सरलता से जी सकता है, परन्तु मांसाहार पर नहीं । शाकाहार सात्विक आहार है, वह मानवीय गुणों को विकसित करता है । शाकाहार के अभाव में अहिंसक समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
शाकाहार विश्व की भोजन समस्या का सबसे किफायती समाधान है।
शाकाहार हमारे अनुकूल निर्दोष, निरापद, आरोग्य-वर्धक और तृप्तिकारक आहार है।
शाकाहार की एक खूबी यह भी है कि इसे सात्विक भोजन माना गया है, अतः 'जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन' कहावत के सही रहते हम क्रूर और हिंसक मनोभावों से बच सकते हैं । शाकाहार/ गैर शाकाहार के समर्थन और विरोध में अपने अपने तर्क, शोध, अवलोकन, धारणाएं और निष्कर्ष हो सकते हैं। किन्तु इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं हो सकता है कि मनुष्य शरीर को स्वस्थ और जीवित रखने के लिए जिन पोषक तत्वों की जरूरत होती है, वे सब शाकाहार में उपलब्ध हैं । शाकाहार अपना कर हम पशुवध की स्थूल हिंसा से बच सकते हैं।'
13, आनन्द नगर, जबलपुर
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केन्द्रीय सरकार जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने
का निर्णय शीघ्र ले : सुप्रीम कोर्ट
माननीय उच्च न्यायालय, नई दिल्ली के विद्वान | को आदेशित करें। न्यायमूर्तिद्वय श्री अशोक भान एवं श्री एस.एच. कापड़िया ने
__इस वाद पर माननीय हाईकोर्ट ने 20.10.1997 को "सिविल अपील नं. 4730/1999 बाल पाटील एवं अन्य/
निर्णय प्रदान करते हुए निर्देशित किया था कि "अपीलार्थी भारत सरकार एवं अन्य वाद पर दिनांक 29.07.2004 को
के विद्वान अभिभाषक श्री चन्द्रचूड़ ने इस वाद में सीमित वादी के 7 एवं प्रतिवादी के 4 अभिभाषकों के पक्ष सुनते
शिकायत दर्शायी है कि अल्पसंख्यक आयोग की अनुशंसा हुए निर्णय प्रदान किया है। वादी के अभिभाषक श्री प्रसेनजित
पर 'जैन समुदाय' को अल्पसंख्यक का दर्जा प्रदान करें, केशवानी (234, न्यू लायर्स चेम्बर्स, उच्चतम न्यायालय,
ऐसा निर्णय भारत सरकार की केबिनेट मीटिंग में किया भगवानदास रोड, नई दिल्ली मो. 98110-49118) ने पक्षकार
जाए। उन्होंने यह भी कहा कि यह विषय काफी लंबे समय बाल पाटील (सदस्य-महाराष्ट्र राज्य अल्पसंख्यक आयोग,
से निर्णय के लिए लंबित है।" मुंबई (महा.) एवं संयोजक - जैन मायनॉरिटी स्टेटस कमेटीदक्षिण भारत जैन सभा-सांगली, महा. -54, पाटील स्टेट,
____ अतः यह न्यायालय केन्द्र सरकार को निर्देशित करती 278 - जावजी दादाजी रोड, मुंबई-400 007 (महा.) फोन
है कि वह इस विषय की महत्ता को देखते हुए विस्तृत
विचार करके शीघ्रातिशीघ्र निर्णय लेवे। इस निर्देश के साथ -022-23861068, फेक्स-23893030, मोबा. 9869255533) को प्रेषित विवरण में सूचित किया है कि, माननीय
इस वाद का निपटारा किया जाता है।" उच्चतम न्यायालय ने जैन समुदाय को 'अल्पसंख्यक' _इस प्रकार हाईकोर्ट के द्वारा निर्देश दिये जाने के बावजूद घोषित किये जाने हेतु 4 माह का समय अंतिम रूप से प्रदान भी केन्द्रीय सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया। करते हुए भारत शासन को निर्देशित किया है कि आज की
___ सरकार द्वारा कार्रवाई नहीं किये जाने से पीड़ित होकर तारीख से 4 माह के भीतर इस संबंध में अंतिम रूप से
अपीलार्थियों ने मुंबई उच्च न्यायालय के सम्मुख वर्ष 1998 निर्णय लेवें। इस हेतु अब और अधिक समय नहीं दिया
में वाद क्रं. 4066 रिट पिटीशन दाखिल की थी। जाएगा, क्योंकि यह प्रकरण विगत दस वर्षों से भारत सरकार को निर्णय लेने हेतु लंबित रह चुका है। आगामी दिसम्बर
इस अपील के उत्तर में केन्द्रीय सरकार की ओर से 04 के द्वितीय सप्ताह में यह प्रकरण पुनः लिस्ट पर लाया
एक शपथ पत्र में सूचित किया कि अपीलार्थियों द्वारा जो जाएगा।"
मुद्दे उठाए गए थे, उन्हीं बिंदुओं से संबंधित एक मामला
सुप्रीम कोर्ट में टी.एम.ए.पाई फाउन्डेशन एवं अन्य/कर्नाटक उच्चतम न्यायालय के विद्वान् न्यायमूर्तियों ने निर्णय
सरकार एवं अन्य' विचाराधीन है। अतः इस मामले में प्रदान करते हुए निम्नलिखित उल्लेख किया है :
शीघ्रता से अथवा निश्चित समय सीमा में बँधकर निर्णय नहीं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, जिसका गठन 'राष्ट्रीय लिया जा सकता। फिर भी एपेक्स कोर्ट के निर्णय को ध्यान अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992' को हुआ था, ने में रखते हुए तथा जैन समुदाय तथा सांसदों के प्रोटेस्ट नोट्स दिनांक 03.10.1994 को भारत सरकार को सिफारिश की को दृष्टि में रखते हुए तथ्य तथा कानूनी संदर्भो के अनुसार थी कि अल्पसंख्यक समुदाय के अंतर्गत 'जैनसमुदाय' को अन्त:करण से निर्णय लिया जाना न्यायिक हित में होगा। भी अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करे। इस संबंध में चूँकि सरकार टी.एम.ए.पाई. फाउन्डेशन केस के निर्णय तक अधिनियम की धारा 2 (सी) के अंतर्गत दिनांक 23.10.1993 इस विषय में अंतिम निर्णय लेने के लिए असमर्थ है, अतः को अधिसूचना जारी की गई थी।
उच्च न्यायालय ने उस रिट पिटीशन को इस आदेश द्वारा उस समय भारत सरकार ने आयोग की सिफारिश पर
निपटाया कोई कार्रवाई नहीं की थी, अतः पक्षकारों ने मुंबई उच्च "उपर्युक्त वर्णित तथ्यों एवं शपथ पत्र में उल्लेखित न्यायालय में वर्ष 1997 को प्रार्थना पत्र (रिट पिटीशन) वर्णन को देखते हुए तथा आगे अन्त:करण से इस महत्वपूर्ण क्रमांक दिनांक 23.10.93 की अधिसचना के अनसार "जैन | विषय में निर्णय लिया जाएगा जो किटी पमपाई समुदाय" को अल्पसंख्यक घोषित करने हेतु भारत सरकार | फाउन्डेशन के अपेक्स कोर्ट संबंधी निर्णय के बाद ही किया
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जा सकेगा, अतः इस विषय को लंबित रखने से कोई विशेष | की केबिनेट मीटिंग में अनुशंसा किये जाने हेतु दबाव बनाने/ उद्देश्य की पूर्ति होगी, ऐसा हम नहीं सोचते।
बनवाने में मदद करने हेतु प्रयास करें। अतएव वर्तमान सन्दर्भ में इस पिटीशन को निपटाया इसी संदर्भ में श्वेताम्बर जैन समाज के मूर्तिपूजक, जाता है। जो भी मुद्दे इस पिटीशन में उठाये गये हैं, वे सभी स्थानक वासी एवं तेरहपंथी साधु-महासतियों, संस्थाओं के ज्यों के त्यों खुले हैं।"
पदाधिकारियों, संगठनों से भी संपर्क करके समग्र जैन समाज ___टी.एम.ए.पाई. फाउन्डेशन के स (सुप्रा) को
के लिए हितकर इस महत्वपूर्ण कार्य को क्रियान्वित कराने/ कान्स्टीट्यूशनल बेंच के द्वारा 31.10.2002 को निर्णीत किया
करवाने में सहयोग हेतु संपर्क किया जा सकता है। स्थानीय गया है जो सुप्रीम कोर्ट केस वर्ष 2002 (8) का क्रं. 481 में
समाचार पत्रों में सामाजिक संगठनों के द्वारा केन्द्र सरकार से प्रकाशित है। उच्च न्यायालय ने उस रिट पिटीशन को निपटा
जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने हेतु विज्ञप्तियां दिया है।
जारी की जा सकती है। तो जैन समाज के द्वारा प्रकाशित की
जा रही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी सूचना प्रकाशित टी.एम.ए.पाई. फाउन्डेशन केस में इस रिट पिटीशन में
कराके जैन समाज एवं सामाजिक संगठनों से अनुरोध किया उठाए गए बिन्दुओं को उठाया ही नहीं है और ना ही उस
जा सकता है। इसी के साथ ही स्थानीय जैन मंदिरों, स्थानकों, सबंध में निर्णय ही दिया गया है। उक्त अल्पसंख्यक आयोग
धर्मशालाओं, जैन विद्यालयों आदि में सूचना-फलक पर द्वारा की गई अनुशंसाओं के ऊपर सरकार के द्वारा अंतिम
इसका विवरण चिपकाकर तथा सामूहिक रूप से हस्ताक्षर निर्णय लिया जाना अभी भी लंबित है।
अभियान चलाकर माननीय प्रधानमंत्री, श्रीमती सोनिया गांधी, ___चूँकि अल्पसंख्यक आयोग द्वारा की गई सिफारिशें श्री बाल पाटील, मुंबई (पता उपर्युक्त), माननीय राष्ट्रपति केन्द्र सरकार के समक्ष विगत 10 वर्षों से अंतिम निर्णय हेतु महोदय, राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली, फेक्स - 011लंबित है, अतः हम इस केस को शासन द्वारा अंतिम निर्णय 23017290 आदि को हस्ताक्षरित पत्रों की प्रतियाँ प्रेषित की हेतु आज से 4 महीनों तक का समय प्रदान करते हैं। केन्द्रीय जा सकती हैं। इस संबंध में ज्ञापन का एक विवरण नीचे सरकार को यह भी स्पष्ट किया जाता है कि इस संबंध में मुद्रित है जिसका उपयोग करके हस्ताक्षर अभियान चलाया अब और अधिक समय प्रदान नहीं किया जाएगा।
जा सकता है माननीय उच्चतम न्यायालय, नई दिल्ली के विद्वान "माननीय उच्चतम न्यायालय की खण्डपीठ ने"'बाल न्यायमूर्तियों के द्वारा प्रदत्त इस तीन पृष्ठीय निर्णय का भावानुवाद पाटील एवं अन्य विरुद्ध भारत सरकार एवं अन्य ' नामक यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में जैन वर्ष 1999 की सिविल अपील नंबर 4730 के संबंध में समाज के समस्त पिच्छिाकाधारक साधुवर्ग, जैन सांसदों - विगत दिनांक 29.07.2004 को केन्द्र सरकार को आदेशित विधायकों, भारतवर्षीय धर्मसंरक्षिणी महासभा. दिगम्बर जैन किया है कि वह "जैन समुदाय" की चिर प्रतीक्षित, तथ्यात्मक परिषद, दिगम्बर जैन महासमिति, दक्षिण भारत जैन सभा, एवं न्यायोचित मांग को मूर्त रूप से क्रियान्वित करने हेतु जैन सोशल ग्रुप आदि संस्थाओं के अध्यक्ष, पदाधिकारियों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की दिनांक03.10.1994 की अन्य सामाजिक संगठनों से भी अनुरोध है कि वे इस अत्यंत अनुशंसा के अनुरूप "जैन समुदाय' को आगामी चार माह महत्वपूर्ण एवं जैन समाज के हित संरक्षण से संबंधित मुद्दे के भीतर राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करें।" पर संगठित होकर माननीय प्रधानमंत्री भारत सरकार,
___ इस परिप्रेक्ष्य में हम केन्द्रीय सरकार, भारतीय राष्ट्रीय प्रधानमंत्री कार्यालय, 7-रेसकोर्स रोड नई दिल्ली, फेक्स -
कांग्रेस (आई), राष्ट्रवादी कांग्रेस, राजद, सपा, कम्युनिष्ट 011-23019334 श्रीमती सोनिया गांधी-अध्यक्ष भारतीय
पार्टी, द्रमुक आदि सभी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के राष्ट्रीय कांग्रेस (आई)- 10-जनपथ, नई दिल्ली, केन्द्र सरकार
घटक दलों से भी अनुरोध करते हैं कि "जैन समुदाय" को के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रमख घटक दलों के
राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित किये जाने हेतु केन्द्रीय अध्यक्षों, राज्यों में स्थित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई),
सरकार की केबिनेट की मीटिंग में की अनुशंसा माननीय राष्ट्रवादी कांग्रेस, राजद, सपा, कम्युनिष्ट पार्टी, द्रमुक आदि
उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रदत्त समय सीमा (29 नवम्बर, के अध्यक्ष, स्थानीय सांसदों-विधायकों पदाधिकारियों आदि
2004) के पहले ही शीघ्रातिशीघ्र करके "जैन समुदाय" को ज्ञापन देकर जैन समुदाय' को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक
की न्यायोचित मांग को सार्थक रूप से मूर्त रूप प्रदान करें।' घोषित किये जाने वाले इस मुद्दे पर शीघ्रातिशीघ्र केन्द्र सरकार |
18 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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जैन समुदाय हेतु संवैधानिक सुरक्षा कवच
भारत के संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता संग्राम समर के उस आधारभूत सिद्धांत को माना कि सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जाएं। तथा धर्म, जाति, वर्ग, लिंग अथवा जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव न हो। उन्होंने यह भी आवश्यक समझा कि जो वर्ग कमजोर है अथवा जिनकी संख्या कम है, उनके साथ ताकतवर वर्ग या बहुसंख्यकों द्वारा अन्याय न हो। भाषा तथा धर्म, दोनों के आधार पर अल्पसंख्यक हो सकते हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों के संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण तथा उनका सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक विकास भारतीय गणतंत्र की प्राथमिकता में है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 में भी अल्पसंख्यक समुदाय को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। इस व्यवस्था के अनुसार देशवासियों का कोई एक वर्ग भी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति की अक्षुण्णता को बनाए रखने का पूर्ण अधिकार रखता है। किसी भारतीय नागरिक को किसी भी शिक्षण संस्था में प्रवेश से, जिसका संचालन राज्य द्वारा किया जा रहा है अथवा जो राज्य की आर्थिक सहायता से संचालित होता है, जाति, धर्म, भाषा व मूलवंश के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। अनच्छेद 30 यह भी स्पष्ट करता है कि अल्पसंख्यक चाहे उसका आधार भाषा अथवा धर्म हो, वे अपने विवेक के आधार पर शिक्षण संस्थाओं की स्थापना, उनका संचालन, शिक्षा के मापदंडों को मानते हुए कर सकते हैं। यानि ऐसे अल्पसंख्यक समुदाय अपने समुदाय के शिक्षार्थियों को अपने द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं में अपनी भाषा में शिक्षा देने का अधिकार रखते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात की पुष्टि की है, कि केन्द्र तथा प्रदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की मान्यता जनसंख्या के आधार पर अलग-अलग की जा सकती है। उदाहरणार्थ-यदि केन्द्र में मुसलमान अल्पसंख्यक समुदाय है, तो कश्मीर राज्य में वह बहुसंख्यक है और हिन्दू अल्पसंख्यक है। __ अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की ओर प्रेरित भारतीय संसद ने अपने संसदीय सत्र 1992 में एक कानून भी पारित कर दिया जिसका नाम दिया 'दि नेशनल कमीशन
फार माइनोरिटी एक्ट 1992'। इस कानून में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित किया। केन्द्र सरकार ने बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी को तो अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया, किन्तु जैनियों को नहीं किया। जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार कानूनन धर्म एवं भाषा को उसका आधार प्रमाणित माना और राज्य सरकारों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने का अधिकार दिया, तो कई राज्य सरकारों ने जैन धर्मावलम्बियों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया है। जैन धर्मावलंबी भारतीय समझे जाने के साथ-साथ धर्म आधारित एक सम्प्रदाय है। श्रमण संस्कृति का आधार है निवृत्ति मार्ग, अहिंसा, तपस्या, ध्यान । वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिमार्ग पर बल देकर ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानकर पूजा आदि पर जोर देती है। श्रमण संस्कृति में ईश्वर को कर्त्ता नहीं मानते, जैन आत्मवादी हैं, वीतरागता, अहिंसा परमोधर्म को प्रधान मानते हैं। जैन चाहे वे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर मत को मानने वाले हों इनकी अपनीअपनी धार्मिक क्रियाएं हैं, अनुष्ठान पद्धति, पूजा पद्धति, साधुओं की मर्यादाएं इत्यादि, विशिष्ट संस्कृतियाँ प्रमाणित एवं निर्धारित हैं। इन्हीं कारणों विशेष से जैन धर्म हिन्दु धर्म ये विभक्त धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म का आधार है- वेद, किन्तु जैन धर्मावलंबी वेदों की अलौकिकता को स्वीकार नहीं करते। वे वेदों का सम्मान करते हैं, किन्तु उनमें आस्था नहीं रखते। जैनियों के रीति-रिवाज, परम्पराएं, चिन्तन, दर्शन, इत्यादि भी हिन्दूओं से भिन्न हैं। कुछ परंपराओं में समानता का होना जैन धर्म की धर्म निरपेक्षता का प्रमाण है। इसमें भी दो मत नहीं है कि जैन धर्म के प्रथम प्रर्वतक तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है।
जैन धर्मावलम्बियों ने धर्म के आधार पर अपने संवैधानिक अधिकारों की माँग की थी और संवैधानिक अल्पसंख्यक का वर्गीकरण प्राप्त किया है। वे भारतीय हैं किन्तु धर्म जैन है, इसलिए यह कहना या मानना है कि जैन समुदाय को दिया गया अल्पसंख्यक का दर्जा हिन्दू धर्म में एक फूट है, सवर्था गलत है, दुर्भावना पूर्ण दुष्प्रचार है। हमारी मान्यता के अनुसार जैन लॉ (कानून) एक स्वतंत्र सिद्धांत है जिसके आदि रचियता महाराज भरत चक्रवर्ती थे, इसमें अनेक बातें हिन्दू लॉ से भिन्न हैं। वर्तमान
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जैन लॉ की आधारभूत पुस्तकें 'भद्रबाहु संहिता, अर्हनीति इन्द्रनन्दी जिन संहिता, वर्धमान नीति इत्यादि-इत्यादि हैं'।
अन्य राज्यों के अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अन्य अल्पसंख्यकों को जो अब तक लाभ दिए हैं वे जैन अल्पसंख्यक समुदाय को प्राप्त हों इस हेतु विवेकपूर्वक अपनी माँग राज्य सरकार एवं दी नेशनल कमीशन फार माईनोरिटीज एक्ट 1992 के तहत पुरजोर से उठानी होगी।
जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया जाना उनका संवैधानिक अधिकार, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 में दिए हैं से प्राप्त हुए हैं, जिसके अनुसार जैन धर्म और संस्कृति की रक्षा संविधान के तहत् हो सकेगी। जैन समुदाय द्वारा स्थापित, संचालित शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई करने एवं कराने के लिए उन्हें भी स्वतंत्र अधिकार प्राप्त होंगे, सरकार इन पर कोई अंकुश नहीं लगा सकती। इन पर नियंत्रण के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती, अर्थात् सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रहेगी। जैन शैक्षणिक संस्थाओं में 50 प्रतिशत सीटें जैन समुदाय के छात्रों के लिए आरक्षित होगीं। जैन शैक्षणिक संस्थाओं में जैन धर्म की शिक्षा भी नैतिक शिक्षा के आधार पर पाठयक्रमों में शामिल की जा सकेगी।
अनुसूचित जाति या जनजाति या पिछड़ी जाति को आर्थिक आधार पर संरक्षण देने की जो विचारधारा चल रही है, उसमें जैन समुदाय का कोई विरोध नहीं है। जैन समुदाय ने अपने लिए इस प्रकार के आरक्षण की कभी कोई माँग नहीं रखी है। जैन समाज संतुष्ट है, कि उन्हें अन्य धर्मों के समान संरक्षण और अधिकार प्राप्त है। अल्पसंख्यक आयोग जो भी सिफारिश या माँग, समयसमय पर जैन अल्पसंख्यकों हेतु या सभी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए करता है तो वे उनकी संतुष्टि हेतु पर्याप्त होंगी।
जैनियों के अल्पसंख्यक घोषित होने का राजनैतिक पहलू किंचित मात्र भी नहीं है। वस्तुतः लाभ अर्जित करने हेतु जैन समुदाय ने यह आरक्षण कभी नहीं माँगा, दानवीर भामाशाह के वंशज समृद्ध एवं सम्पन्न हैं, वे केवल अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा चाहते हैं एवं सभी धर्मों के प्रति आदर भाव रखते हैं।
अतः हमारा कर्त्तव्य है कि हम भ्रम पैदा न करें, न ही जनता की आकांक्षाओं को उभारें । राज्य के अल्पसंख्यक
20 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
आयोग को अपने विधि सम्मत अधिकारों की प्राप्ति हेतु प्रतिवेदन द्वारा सुझाव देवें और उनके द्वारा जारी की गई अनुशंसाओं को क्रिर्यान्वित कराने में सशक्त प्रयत्न करें। कानून द्वारा प्रदत्त संरक्षणों द्वारा अपनी धार्मिक संस्थाओं, ट्रस्टों, तीर्थस्थलों इत्यादि पर कानूनी प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करना एवं नियंत्रण करना तथा उनके सुरक्षित रखरखाव हेतु प्रयासरत रहना ।
अल्पसंख्यक जैन समुदाय बनाम संवैधानिक सुरक्षा कवच
संवैधानिक कवच
जैन समुदाय के अल्पसंख्यक घोषित होने से संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 के अनुसार जैन समुदाय धर्म, भाषा, संस्कृति की रक्षा संविधान में उपबंधों के अंतर्गत हो सकेगी।
* जैन धर्मावलम्बियों के धार्मिक स्थल, संस्थाओं, मंदिरों तीर्थक्षेत्रों एवं ट्रस्टों का सरकारीकरण या अधिग्रहण आदि नहीं किया जा सकेगा, अपितु धार्मिक स्थलों का समुचित विकास एवं सुरक्षा के व्यापक प्रबंध शासन द्वारा भी किए जाएंगे।
समुदाय द्वारा संचालित ट्रस्टों की सम्पत्ति को, किराया नियंत्रण अधिनियम से भी मुक्त रखा जाएगा, जिससे मंदिर के मकान, दुकान आदि को आसानी से खाली कराया जा सकेगा ।
जैन धर्मावलंबी अपनी प्राचीन संस्कृति पुरातत्त्व का संरक्षण कर सकेंगे।
शैक्षणिक विकास
जैन समुदाय द्वारा संचालित स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई करने या कराने के लिए जैन धर्मावलम्बियों को स्वतंत्र अधिकार प्राप्त होगा ।
जैन समुदाय द्वारा संचालित स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं में जैन विद्यार्थियों के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जा सकेगी।
* समुदाय द्वारा संचालित स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं में धर्म की शिक्षा को नैतिक शिक्षा के आधार पर पाठयक्रमों में शामिल किया जा सकता है।
प्रतिभावान अल्पसंख्यक विद्यार्थी जिले में उत्कृष्ट विद्यालयों में प्रवेश पाते हैं तो उनमें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले विद्यार्थियों को 9 वीं, 10 वीं, 11
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वीं एवं 12 वीं का शिक्षण शुल्क एवं अन्य लिया जाने | योजनाएं वाला शल्क पूर्णतः माफ किया जाएगा।
* मौलाना आजाद एजुकेशनल फाउन्डेशन केन्द्र सरकार * अल्पसंख्यक बहुत कम ब्याज दर पर लाभ व्यवसाय, | के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा घोषित एक व उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा के लिए उपलब्ध हो सकेगा। स्वैच्छिक एवं नितांत अव्यवसायिक संगठन है। उक्त संगठन * जैन मंदिरों,तीर्थ स्थलों, शैक्षणिक संस्थाओं इत्यादि के द्वारा शैक्षणिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक समुदाय के प्रबंध की जिम्मेदारी समुदाय के हाथ में रहेगी।
विद्यार्थियों, विद्यालयों, आवासीय विद्यालयों, महाविद्यालयों * शैक्षणिक एवं अन्य संस्थानों के स्थापित करने और
की स्थापना एवं विस्तार के लिए वित्तीय सहायता दी जाती उनके संचालन में सरकारी हस्तक्षेप कम हो जाएगा।
है। विद्यालय, महाविद्यालय में बालिकाओं के लिए छात्रावास
निर्माण हेतु भी वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। शैक्षिक * विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित कोचिंग कालेजों में
रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए समुदाय के विद्यार्थियों को फीस कम या माफ होने की
सुधारक अनुशिक्षण कोचिंग तथा परीक्षा पूर्व अनुशिक्षण पात्रता होगी।
एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़े संस्थानों * सरकार जैन समुदाय को स्कूल, कालेज, छात्रावास,
में प्रयोगशाला, उपकरणों, फर्नीचर आदि की खरीद के शोध या प्रशिक्षण संस्थान खोलने हेतु सभी सुविधाएं उपलब्ध
लिए भी वित्तीय सहायता इस प्रतिष्ठान द्वारा दी जाती है। कराएगी और रियायती दर पर जमीन देगी।
इस प्रतिष्ठान की इन योजनाओं का विस्तार संपूर्ण देश में है * जैन समुदाय के विद्यार्थियों को प्रशासनिक सेवाओं
तथा इसके अंतर्गत एक बार में किसी संस्थान को 50 और व्यवसायिक पाठयक्रमों के प्रशिक्षण हेतु अनुदान मिल
लाख रुपये तक की सहायता प्रतिष्ठान से प्राप्त की जा सकेगा।
सकती है। ऐसी पंजीकृत सोसायटियां,ट्रस्ट जो पिछले * जैन समुदाय द्वारा संचालित जिन संस्थाओं पर | तीन वर्षों का लेखा परीक्षित खातों का विवरण निर्धारित कानून की आड़ में बहुसंख्यकों ने कब्जा जमा रखा है आवेदन के साथ फाउण्डेशन को भेजना होगा। उनसे मुक्ति मिलेगी।
* संस्कृत पाठशाला, कोचिंग क्लास इत्यादि की छात्र, * जैन धर्मावलम्बी को बहुसंख्यक समुदाय के द्वारा छात्राओं हेतु विभिन्न योजनाएं। प्रताड़ित किए जाने की स्थिति में सरकार जैन धर्मावलम्बी * विविध वोकेशनल ट्रेनिंग एवं विद्यालयों से संबंधित की रक्षा करेगी।
योजनाएं। * जैन धर्मावलम्बी द्वारा पुण्यार्थ, प्राणी सेवार्थ, शिक्षा
* अन्य योजनाओं की विस्तृत जानकारी हेतु म.प्र. राज्य इत्यादि हेतु दान धन कर से मुक्त होगा।
अल्पसंख्यक आयोग भोपाल स्थित कार्यालय से संपर्क सामाजिक विकास
करें। * अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थलों के समुचित ___ अल्पसंख्यक समुदायों के सुनियोजित एवं चतुर्मुखी विकास एवं सुरक्षा के व्यापक प्रबंध शासन द्वारा किए विकास के लिए कटिबद्ध प्रदेश सरकार के कार्यक्रम इन जाएंगे।
समुदायों की प्रगति में मील का पत्थर साबित होंगे, तथा * अल्पसंख्यक वर्ग के युवाओं में खेलकूद व अन्य इनका लाभ जल्द ही प्रदेश के अल्पसंख्यकों को मिल सांस्कृतिक गतिविधियों में प्रोत्साहन हेतु अनुदान एवं सकेगा, ऐसी भावना है। छात्रवृत्तियों में विशेष प्रावधानों का लाभ मिल सकेगा। । ___जैन समुदाय में व्याप्त भ्रान्तियों के परिपेक्ष्य में यह * अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कराए गए आर्थिक, संवैधानिक पहलू एवं विश्लेषण समाज तक पहुँचाने का सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति के सर्वेक्षण के आधार पर मेरा दायित्व है, जिसका मैंने विनम्र प्रयास किया है। रोजगार मूलक योजनाओं का लाभ मिल सकेगा।
जय जिनेन्द्र * यदि भविष्य में केन्द्र या राज्य सरकारें अल्पसंख्यकों
(अरुण जैन) को प्रतिनिधित्व या अन्य सुविधाएं प्रदान करती हैं, तो
सदस्य (राज्य मंत्री दर्जा) उसका लाभ समुदाय को भी प्राप्त होगा।
म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक आयोग, भोपाल
अक्टूबर 2004 जिनभाषित 21
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पाकिस्तान के जैन मंदिर
सुधीर जैन स्वाधीनता के पूर्व जब पाकिस्तान भी भारत का ही | इसकी वास्तुकला और स्थापत्य बहुत ही सुंदर है, जो एक अंग था तब उस क्षेत्र में अनेक जैन मंदिर स्थित थे। समीपस्थ राजस्थान की मंदिर निर्माण शैली से प्रभावित हालांकि पाकिस्तान क्षेत्र में मुसलमान, सिंधी और पंजाबी था। मंदिर के अंदर सीलिंग में सुंदर चित्रकारी की गई थी। लोगों की बहुतायत थी, लेकिन थोड़ी संख्या में जैन व्यापारी गोरी में एक आश्रम भी था जो धीरे-धीरे एक जैन तीर्थ के भी वहाँ के विभिन्न शहरों में विद्यमान थे। विशेषकर रूप में प्रसिद्ध हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर में राजस्थान से लगे हुये सिंध प्रांत में तो जैन धर्मावलम्बियों सीलिंग में परियों द्वारा चित्रकारी की गई थी और आज भी की संख्या काफी थी और इसी क्षेत्र में आज भी अनेक परियाँ वहाँ आती हैं। विशाल जैन मंदिर खण्डित अवस्था में विद्यमान हैं।
बोधेसर नामक शहर नगरपारकर से 3 किलोमीटर सिंध प्रांत के थारपारकर जिले में सबसे अधिक जैन | दक्षिण-पश्चिममें करूनझर पहाड़ियों के नीचे बसा है। पहले मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। हालांकि इनमें से किसी कभी यह समृद्ध शहर था और बोधेसर नगरी के नाम से भी मंदिर में कोई पूज्यनीय मूर्ति नहीं है और न ही इनकी | जाना जाता था। यहां तीन प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष कोई देखभाल हो रही है। ऐसी संभावना है कि सन् 1947 | विद्यमान हैं जो सन् 1375 और 1449 में बनाये गये थे। में हुए भारत-पाक विभाजन के समय सिंध प्रांत से भारत | इनमें से दो मंदिर कंजूर और रेडस्टोन द्वारा बनाये गये थे. आते समय जैन धर्मावलम्बी अपने साथ पूज्यनीय मूर्तियाँ | जो अब जानवरों को रखने के उपयोग में लाये जाते हैं। भी मंदिरों से उठाकर ले आये होंगे। इसीलिए पाकिस्तान तीसरा मंदिर जो एक बड़े चबूतरे के ऊपर बना है वह के इन जैन मंदिरों में अब कोई मूर्तियाँ नहीं हैं। सबसे सुंदर था लेकिन अब यह उपेक्षित रहने से, खण्डित सिंध प्रांत के थारपारकर जिले के नगरपारकर तालुका
होता जा रहा है। में जैन मंदिरों के सबसे अधिक भग्नावशेष पाये जाते हैं। नगरपारकर से लगभग 24 कि.मी. दक्षिण में वीरवाह नगरपारकर तालुका में इसी नाम का मुख्य शहर 24° 21° शहर स्थित है। इससे लगी हुई पुरानी बस्ती परीनगर में उत्तरांश तथा 70° 47° पूर्वांश पर छोटी पहाड़ियों की तलहटी अनेक जैन पुरावशेष अभी भी विद्यमान हैं। परी नगर में बसा है। ऐसा कहा जाता है कि बहुत पहले यह क्षेत्र पांचवीं शताब्दी में स्थापित हुआ था और समृद्ध और घनी समुद्र का भाग था। जिसे पार करना पड़ता था, इसीलिये आबादी वाला कस्बा था। लेकिन बारहवीं शताब्दी में यह इसे पारकर कहा जाने लगा। यह पूर्व में भारत के जोधपुर नष्ट होने लगा। अब यहाँ केवल खण्डहर रह गये हैं। इन्हीं (राजस्थान) से जुड़ा रहा है और पहले यहाँ के व्यापारी खण्डहरों के बीच एक छोटा जैन मंदिर शेष खड़ा है। जैन थे जो जोधपुर और जैसलमेर से संबंधित थे। सफेद संगमरमर के खम्भों से बने इस मंदिर की नक्कासी पाकिस्तान के पाँच प्रमुख प्रसिद्ध जैन मंदिरों में से
सुंदर है। इस मंदिर का एक बहुत ही सुंदर संगमरमर का तीन बोधेसर में, एक गोरी में तथा एक बीरवाह में है।
नक्कासीदार पैनल करांची म्यूजियम में प्रदर्शित है। नगरपारकर तालुका के इस्लामकोट के समीप गोरी मंदिर __नगरपारकर शहर के मध्य बाजार में भी एक जैन सबसे अच्छा माना जाता रहा है। हालांकि पुराना हो जाने, मंदिर स्थित है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार और भीतरी खम्भों ब्रिटिश मिलिट्री अभियान के दौरान आग लगजाने और पर भव्य नक्कासी है तथा मंदिर के अंदर दीवारों पर सुंदर 26 जनवरी 2001 को आये भूकंप के कारण यह मंदिर मूर्तियां एवं चित्रकारी अंकित है। काफी क्षतिग्रस्त हो गया है। फिर भी यह अन्य मंदिरों की
- जिस तरह भरत में नालन्दा प्रचीन काल में बौद्ध धर्म अपेक्षा काफी अच्छी स्थिति में है। ऐसा माना जाता है कि
का प्रमुख केन्द्र रहा है, उसी प्रकार पाकिस्तान में तक्षशिला सोधा काल के स्वर्णिम दिनों में सन् 1376 के आस-पास
भी एक प्रमुख बौद्ध केन्द्र रहा है। सम्राट अशोक ने यहां इस मंदिर का निर्माण हुआ। 38 मीटर लम्बा तथा 15
अनेक बौद्ध स्मारक, स्तूप, मंदिर, विद्या केन्द्र बनवाये थे। मीटर चौड़ा यह मंदिर संगमरमर से बना हुआ है और
कालान्तर में जैन धर्म का भी इस क्षेत्र में काफी प्रचार 22 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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हुआ। ऐसा कहा जाता है कि प्रसिद्ध जैन ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र | विभिन्न जैन मंदिरों में पूजित होती रही हैं पर विभाजन के
और लघु शांति स्त्रोत तक्षशिला में ही लिखे गये थे। यहाँ पश्चात जैन श्रावक न रह जाने से संग्रहालय पहुंचा दी गईं। खण्डित अवस्था में एक जैन स्तूप आज भी विद्यमान है। रावलपिण्डी-लाहौर मार्ग पर पोठोहर क्षेत्र में काफिर कोट्स ____ पाकिस्तान में सबसे अधिक जैन धर्मावलम्बी लाहौर
में भी एक जैन मंदिर खण्डित स्थिति में अभी भी विद्यमान में रहते थे। यहाँ अनारकली बाजार के पास शालमी चौक
है। पाकिस्तान के एक अन्य प्रमुख शहर मुल्तान में बहुत पर एक विशाल जैन मंदिर था। शहर का दूसरा जैन मंदिर
सुंदर जैन मंदिर स्थित था, जिसकी शिखरबंदी और पट्टे लक्ष्मीचौक के पास था। इनके अलावा चुभुरजी क्षेत्र में
पालिताना के मंदिरों के समान थे। जयपुर के एक दिगम्बर श्यामनगर और कृष्णनगर में भी छोटे-छोटे मंदिर थे। 1947
जैन मंदिर में मुल्तान से लाई गई कई मूर्तियाँ पूजी जा रही के विभाजन के बाद भी शहर के मध्य होने के कारण ये
हैं। इसके अलावा सियालकोट, भेरा (पेशावर के निकट),
खन्का देवरा (लाहौर के निकट 1926 में निर्मित), रामनगर मंदिर सलामत रहे, परन्तु बाबरी मस्जिद ढह जाने से
(अकलगढ़ के निकट), देरगाजी खान, काला बाग, बन्न पाकिस्तान में उभरे आक्रोश के चलते ये सभी मंदिर नष्ट कर दिये गये। पाकिस्तान के लाहौर संग्रहालय में अनेक
और जिरा में भी जैन मंदिर रहे हैं, जो खण्डहरों में परिवर्तित जैन मूर्तियाँ संग्रहीत हैं। इनमें से कुछ तो पूर्णतः अखण्डित
हो चुके हैं। तथा अधिक से अधिक सौ वर्ष पुरानी हैं। ये प्रतिमायें
यूनिवर्सल केबिल्स लिमिटेड, सतना म.प्र. 485005
कोल्ड ड्रिंक्स से कीटों का सफाया। पेप्सी या कोकाकोला में कीटनाशक की मौजूदगी के विवाद को याद कीजिए और जबलपुर की मझौली तहसील के कृषकों से मुलाकात कीजिये, जो कोल्ड ड्रिंक्स का इस्तेमाल इल्ली और कीटों के सफाए के लिए कर रहे हैं। इन कृषकों का दावा है कि पिछले साल जब पूरे प्रदेश में चने की फसल का इल्लियों ने सफाया कर दिया था, तब यहाँ के कृषकों ने प्रति एकड़ 8 बोरे चने की पैदावार ली थी। फिलहाल यहाँ के कृषक उड़द की फसल में लगे कीटों का खात्मा कोल्ड ड्रिंक्स के स्प्रे से कर रहे हैं। एक एकड़ के लिए 1.5 लीटर पेप्सी या कोकाकोला उपयोग होता है जबलपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर अन्धोरा गाँव के सभी कृषक 500 रुपए प्रति लीटर कीमत वाले कीटनाशक
वर्षों से कीटनाशक की बजाए कोल्ड ड्रिंक्स का ही उपयोग की जगह 35-40 रुपये प्रति लीटर वाले कोल्ड ड्रिंक्स का
कर रहे हैं। एक अन्य कृषक बब्बू यादव ने बताया कि डेढ़ प्रयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। कृषक मनोज यादव बताते हैं
लीटर कोल्ड ड्रिंक्स का उपयोग एक एकड़ के लिए करते कि 3 वर्ष पूर्व जब उनके खेत में चना लगा हुआ था तो
हैं और हर फसल में लगने वाले कीट, इल्लियाँ, फफूंद उन्होंने इल्लियों पर आधा पिया कोकाकोला उड़ेल दिया
इसके आगे बेदम हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि ग्रामवासियों था। संपर्क में आते ही इल्लियां मर गईं। और उस वर्ष
ने कोल्ड ड्रिंक पीना भी छोड़ दिया है। दूसरी ओर पिछले वर्षों की तुलना में बेहतर नतीजे मिले। बाद में
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान अन्य फसलों में लगे कीट और फफूंद पर भी उन्होंने
विभाग के अध्यक्ष डॉ. ए. के. खत्री का कहना है कि इसका प्रयोग किया और सफलता मिलने पर अन्य कृषकों
इल्लियाँ या कीटों के मरने की वजह कोल्ड ड्रिंक में को जानकारी दी। अन्धोरा गाँव मझौली तहसील में इन्द्राणा
उपयोग किया गया कोई तत्त्व नहीं बल्कि स्प्रेयर से तेजी कस्बे के समीप है। यहाँ के कृषक तेजीलाल भी पिछले दो
से निकलने वाला स्प्रे भी हो सकता है।
(जबलपुर अक्टूबर, भास्कर से साभार)
अक्टूबर 2004 जिनभाषित 23
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प्राकृतिक चिकित्सा
गांधी जी का जीवन में बहुत पहले से ही आधुनिक दवाओं से विश्वास नहीं रहा था। उनका यह पक्का विश्वास था कि अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए केवल इतना ही जरूरी है, कि आहार के सम्बम्ध में मनुष्य कुदरत के नियमों का पालन करे। शुद्ध और ताजी हवा का सेवन करे, नियमित योगासन करे, साफ स्वच्छ वातावरण में रहे और अपना हृदय शुद्ध रखे। ऐसा करने के बजाय आज मनुष्य को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कारण जी भरकर विषयभोगों में लीन रहने का स्वास्थ्य और सदाचार का हर नियम तोड़ने का और बाद, केवल व्यापार के लिए तैयार की जाने वाली दवाओं के जरिये शरीर का इलाज करने का प्रलोभन मिलता है। इसके प्रति मन में विद्रोह की भावना होने के कारण गांधीजी ने अपने लिए दवाओं के उपयोग के बिना रोगों पर विजय पाने का मार्ग खोजने का प्रयत्न किया। आज की चिकित्सा पद्धति रोग को केवल शरीर से संबंध रखने वाली चीज मानकर उसका उपचार करना चाहती है, परन्तु गांधी जी तो उसको सम्पूर्ण और समग्र रूप में देखते थे । इसलिए वे अनुभव से ऐसा मानते थे कि शरीर की बीमारी मुख्यतः मानसिक या आध्यात्मिक कारणों से होती है और उसका स्थाई उपचार केवल तभी हो सकता है, जब जीवन के प्रति मनुष्य का सम्पूर्ण दृष्टिकोण ही बदल जाये। इसलिए उनकी राय में शरीर के रोगों का उपचार मुख्यतः आत्मा के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य द्वारा सिद्ध होने वाले आत्मसंयम तथा आत्मजय में स्वास्थ्य के विषय में कुदरत के नियमों के ज्ञान पूर्ण पालन में तथा स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के लिए अनुकूल भौतिक और सामाजिक वातावरण निर्माण करने में खोजा जाना चाहिए। अतः कुदरती उपचार की गांधी जी की कल्पना उस अर्थ से कहीं अधिक व्यापक है जो आज उस शब्द से सामान्यतः समझा जाता है। कुदरती उपचार रोग के हो जाने के बाद केवल उसे मिटाने की पद्धति नहीं है परन्तु कुदरत के नियमों के अनुसार जीवन बिताकर रोग को पूरी तरह रोकने का प्रयत्न है। और गांधी जी मानते थे कि कुदरत के नियम वही हैं, जो ईश्वर के नियम हैं । इस दृष्टि से रोग के कुदरती उपचार में केवल मिट्टी, पानी, हवा, धूप, उपवासों तथा ऐसी दूसरी वस्तुओं के उपयोग का ही समावेश नहीं होता है। बल्कि
24 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
क्या कहते थे बापू
डॉ. वन्दना जैन
उससे भी अधिक उसमें ईश्वर के कानून के द्वारा हमारे शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक सम्पूर्ण जीवन को बदल डालने की बात आती है। इसलिए रामनाम जपने का अर्थ है मनुष्य के ह्रदय का तथा उसकी जीवन पद्धति का सम्पूर्ण परिवर्तन, जिससे ईश्वर के साथ उसका मेल होता है । और सम्पूर्ण जीवन के मूल स्रोत ईश्वर से वह ऐसी शक्ति और जीवन प्राप्त करता है, जो रोगों पर सदा ही विजयी सिद्ध होते हैं ।
गांधीजी के मन में रोगियों की सेवा-सुश्रुषा करने तथा गरीबों की सेवा करने की उत्कंठा बनी रहती थी । चूंकि भारत एक विकासशील और गरीब देश है। इसकी 80 प्रतिशत आबादी गावों में रहती है। लोग आधुनिक दवाओं में उतना पैसा खर्च नहीं कर सकते तथा उनसे फायदा भी उन्हें उतना नहीं मिल पाता। यही कारण है कि वे भारत में प्राकृतिक चिकित्सा लाना चाहते थे। कुदरत के समीप रहकर बिताये जाने वाले सादे और सरल जीवन की वे बहुत कीमत करते थे। ऐसा सादा और सरल जीवन जीकर ही उन्होंने स्वास्थ्य के सादे नियम बनाये थे । और उन पर अमल किया था। शाकाहार और अन्नाहार में उनकी धार्मिक आस्था थी इसीकारण से उन्होंने आहार संबंधी अनेक सुधार किये थे। जिनका आधार व्यक्तिगत प्रयोगों से प्राप्त प्रत्यक्ष परिणामों पर था। डॉ. कूने ने जो कुदरती उपचार पर लिखा है, उससे गांधी जी बहुत अधिक प्रभावित हुये थे। उनका यह विश्वास था कि स्वास्थ्य के सादे नियमों का पालन करके मानव शरीर मन और आत्मा को पूर्ण स्वस्थ स्थिति में रखा जा सकता है। उन्होंने सामान्य रोगों
कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया और उसके लिए कुदरती उपचार के सादे इलाज बताये ।
उन्होंने अपने इस विश्वास के साथ 'उरूली कांचन' में कुदरती उपचार का केन्द्र खोला, कि गरीब लोग मंहगी दवाऐं नहीं ले सकते और मंहगे इलाज नहीं करवा सकते। इस केन्द्र की स्थापना के पीछे एक कारण यह भी था कि गांधी जी ऐसा मानते थे कि स्वास्थ और आरोग्य विज्ञान के विषय में उन्होंने जीवन भर जो प्रयोग किये उनका लाभ देश के गरीब लोगों को उठाने का मौका देना उनका परम कर्त्तव्य है ।
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मनुष्य शरीर एक अदभुत और सम्पूर्ण यंत्र है। जब | अगर उपवास करके,एनीमा द्वारा आँतें साफ करके, वह बिगड़ जाता है, बिना किसी दवा के अपने को सुधार | कटिस्नान,घर्षणस्नान वगैरह विविध स्नान लेकर तथा शरीर लेता है। बशर्ते उसे ऐसा करने का मौका दिया जाए। अगर | के विभिन्न अंगों की मालिश करके भीतर के विष से मुक्त हम अपनी भोजन की आदतों में संयम का पालन नहीं | होने की इस प्रक्रिया में हम अपने शरीर की सहायता करें करते, या हमारा मन आवेश भावना या चिंता से क्षुब्ध हो | तो वह फिर से पूर्ण स्वस्थ हो सकता है। कम शब्दों में जाता है, तो हमारा शरीर अन्दर की सारी गंदगी को बाहर कुदरती उपचार से गांधी जी का यही मतलब था कि नहीं निकाल सकता और शरीर के जिस भाग में गंदगी | उन्होंने स्वयं हिंद स्वराज में लिखा है, 'अस्पताल पाप की बनी रहती है,उसमें अनेक प्रकार के जहर पैदा होते हैं। ये जड है। उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं जहर ही उन लक्षणों को जन्म देते हैं, जिन्हें हम रोग कहते | और अनीति को बढ़ाते हैं '.... अंग्रेजी या यूरोपियन पद्धति हैं। रोग शरीर का अपने भीतर के विष से मुक्त होने का | की डाक्टरी सीखना गुलामी की गांठ को मजबूत करने प्रयास ही है।
जैसा ही होगा। कार्ड पैलेस, वर्णी कालोनी, सागर म.प्र.
बोध कथा
श्रद्धा और विवेक की परम्परा
वाराणसी नगरी के राजा एक दिन प्रजा के दुःख-सुख । ब्राह्मण ने कहा- तपस्या का महत्व ब्राह्मण से भी अधिक को जानने के लिए राज पुरोहित के साथ राज्य में भ्रमण करने | है। तप के द्वारा जो ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है उससे ब्रह्मकर्म से निकले। उन्होंने वेश बदल लिया ताकि कोई उन्हें पहचान न | भी अधिक लोकहित की संभावना बनी रहती है। तपस्या का सके। भ्रमण करते-करते वे किसी उपनगर में पहुँचे। पुरोहित साहस कोई विरले ही करते हैं सो उस पुण्य परम्परा का नित्य कर्म करने दूर गये थे। राजा पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे। | पोषण आवश्यक है। मैंने स्वार्थ का नहीं उपयोगिता का ध्यान उधर से एक सद्गृहस्थ निकला तो सुन्दर आभा वाले इस | रखा और आगत भोजन तपस्वी को दे दिया। तेजस्वी व्यक्ति को अतिथि समझ कर घर से भोजन लेने चला ___गृहस्थ ने तपस्वी से पूछा- आपने वह भोजन भिक्षु को गया। लौटकर आया तो उनके व्यंजनों से सुसज्जित थाल किस कारण दे डाला भगवन्! उसके हाथ में था। उसे अतिथि के आगे रख दिया। तब तक ___तपस्वी ने शान्त स्वर से कहा- भद्र, मैं इन्द्रियों को पुरोहित भी वापस आ चुके थे। राजा ने स्वयं भूखे होते हुए भी | जीतने की साधना कर रहा हूँ। इसके लिये हठ पूर्वक उनका वह थाल पुरोहित को दे दिया। पुरोहित ने उसे खाया नहीं। वे | विरोध करना आवश्यक है। स्वादिष्ट व्यंजनों का आहार मेरी कुछ देर सोचते रहे और थोड़ी दूर तपश्चर्या में निरत एक | स्वादेन्द्रिय को विचलित करने वाला, बाधक सिद्ध होता, सो तपस्वी को वह भोजन अर्पित कर दिया। तपस्वी ने चारों ओर | मैंने यही उचित समझा कि अपने से अधिक सत्पात्र उस दृष्टिपात किया तो उसे एक भिक्षुक दिखाई दिया। तपस्वी ने | अपरिग्रही भिक्षु को दे दूँ। गृहस्थ ने भिक्षु से पूछा- आपने थाल का भोजन भिक्षु के भिक्षा पात्र में डाल दिया। भिक्षु ने | किस कारण से वह भोजन स्वयं ही कर लिया? भिक्षु बोलाउसे सन्तोषपूर्वक खा लिया। जो सद्गृहस्थ थाल लेकर आया हे सद्गृहस्थ! मैं विवेक को जागरण करने के लिये द्वार-द्वार था, उसने यह सब देखा और आश्चर्य चकित हो अतिथि से | पर परिभ्रमण करता हूं ताकि व्यक्ति स्वार्थी न बने उपयोगिता पूछा-"बन्धु! आपके लिये आगत भोजन को स्वयं न करके | का ध्यान रखकर ही उपलब्ध साधनों का उपभोग किया जाय। दूसरे को दे देने का क्या कारण है?"
यह प्रशिक्षण मेरे जीवन का व्रत है। इन तीनों में इस पुण्य अतिथि ने उत्तर दिया- "मैं साधारण
परम्परा को फलित होते मैंने देखा और प्रेम-पूर्वक भोजन कर उपयोगिता मेरे निज के जीवन तक ही सीमित है। किन्तु यह | लिया। अतिथि ने सद्गृहस्थ को और भी अधिक स्पष्टता से ब्राह्मण जिन्हें मैंने उपलब्ध भोजन दिया संसार के लिये अधिक | समझाते हुए कहा- विवेक ही इस संसार का मेरुदण्ड है। उपयोगी है। इनका शरीर असंख्य मानवों को ज्ञान-दान करके मनुष्य स्वार्थ ही सोचे और उपयोगिता एवं लोकहित की उन्हें सन्मार्ग पर लगाता है, इनकी उपयोगिता अधिक है। बात को भुला दे तो फिर यहां नरक और अशान्ति के अतिरिक्त इसलिये मैंने अपनी तुलना में उन्हें अधिक उपयोगी पाया और | और कुछ शेष न रहेगा। यह धरती पुण्य के बल पर ही चलती वह भोजन उन्हें दे दिया।"
है। सो हे सद्गृहस्थ! हम सबको श्रद्धा और विवेक की गृहस्थ ने ब्राह्मण से पूछा- भगवन्, भला आपने अपना | पारमार्थिक पुण्य परम्पराओं को भूखे रहकर भी सींचते रहना भोजन दूसरे को क्यों दे दिया?
चाहिये।
'आत्मोत्कर्ष की गौरव गाथाएं'
अक्टूबर 2004 जिनभाषित 25
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - सौ. उज्ज्वला सुरेश गोसावी, औरंगाबाद। | फूलों को तोड़कर जीवहिंसा क्यों की जाए? धर्म तो अहिंसा
जिज्ञासा - जिस मूर्ति के चरणों पर चन्दन लगा हो या | प्रधान कहा गया है। मूर्ति के ऊपर फूल चढ़े हुए हों वह मूर्ति दर्शनीय है या नहीं? | जिज्ञासा - "धर्म फलसिद्धांत" लेखक - पं.
समाधान - प्रतिमा के ऊपर या चरणों में चन्दन । माणिकचंद जी कौन्देय, फिरोजाबाद, में लिखा है कि तीर्थंकर लगाने के बहुत प्रकार होते हैं। आगरा में भ.शीतलनाथ जी प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध संक्लेश परिणामों से होता है। की एक प्रतिमा श्वेताम्बरों के अधिकार में है। कई बार तो | तो क्या तीर्थंकरों के भी संक्लेश परिणाम होते हैं? उस प्रतिमा पर आँख लगाने की तथा आभरण पहनाने की समाधान - आ. पंडित जी ने बिल्कुल ठीक लिखा है। कोशिशें हुई हैं, परन्तु उनको सफलता नहीं मिली। या तो | गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा-136 में तीर्थंकर प्रकृति की लगाने वाला अन्धा हो जाता है या उसे दिखना बंद हो जाता | उत्कृष्ट स्थितिबंध करने के संबंध में लिखा है- "तित्थयरं है। अब वे उस प्रतिमा पर इस प्रकार चन्दन लगाते हैं कि । चमणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेदि॥ 136 ॥ अर्थ- तीर्थंकर प्रतिमा आभूषण पहने जैसी लगे। परन्तु कई स्थानों पर मात्र | प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही चरणों के एक अंगूठे पर चन्दन की एक बिन्दी लगाई जाती | बांधता है। विशेषार्थ- जिस मनुष्य ने मिथ्यात्व की अवस्था है। इन दोनों तरीकों में बहुत अंतर है। पहले तरीके में तो - में दूसरे या तीसरे नरक की आयु का बंध कर लिया हो तथा मूर्ति की वीतरागता ही नष्ट हो जाती है। जबकि दूसरे में ऐसा | बाद में जिसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ हो। ऐसा नहीं। अतः जिन मूर्तियों पर ऐसा चन्दन लगा हो जिससे | मनुष्य यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ कर ले, तो उसके मूर्ति की वीतरागता नष्ट हो जाये उस मूर्ति के दर्शन करने के | मरण से अन्तर्मुहूर्त पूर्व सम्यक्त्व नष्ट होकर मिथ्यात्व रूप भाव ही नहीं होते। हम वीतरागता के उपासक हैं अतः ऐसी | परिणाम होना अवश्यंभावी है। तो ऐसा वह मनुष्य जब मरणं मूर्तियों के दर्शन करना उचित नहीं है। लेकिन जिन मूर्तियों | से अन्तर्मुहूर्त पहले संक्लेश परिणामों के कारण चतुर्थ गुणस्थान पर मात्र चरणों में एक चन्दन की बिन्दी आदि लगी हो | से गिरकर प्रथम गुणस्थान के सम्मुख होता है तब उसके उनके दर्शन करने में आपत्ति नहीं माननी चाहिए।
चतुर्थ गुणस्थान के अंतिम समय में तीर्थंकरप्रकृति का उत्कृष्ट जहाँ तक मूर्ति के ऊपर फूल चढ़ाने का रिवाज है वह | स्थिति बंध होता है। जैसे- श्री कृष्ण नारायण ने मिथ्यात्व बिल्कुल गलत है। उससे तो वीतरागता नष्ट हो ही जाती है। | की दशा में नरकायु का बंध कर लिया था। बाद में सम्यक्त्व मैंने सम्मेदशिखर जी में मुनि अमितसागर जी महाराज प्राप्त करके तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी प्रारंभ कर लिया था। तथा आर्यिका स्याद्वादमति माताजी से 5-6 वर्ष पूर्व | जब उनका अंतिम समय आया तब उनके मरण से अन्तर्मुहूर्त निवेदन किया था कि 20 पंथी कोठी में मूर्तियों के ऊपर | पहले चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में गिरने से पूर्व जो फूल चढ़ाने का रिवाज है क्या यह सही है। इस पर | तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध हुआ होगा। यह भी उन्होंने उत्तर नहीं दिया। मेरे कई बार पूछने पर भी वे दोनों | ज्ञातव्य है कि तीन शुभ आयु, (तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा मौन ही रहे। उनसे अन्य कई विषयों पर चर्चा हुई। शास्त्रों में | देवायु) को छोड़कर शेष 145 प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध भी मूर्तियों के ऊपर फूल चढ़ाने का कोई प्रमाण नहीं मिला। | तीव्रसंक्लेश में ही होता है अर्थात् आहारक प्रकृति, अतः मूर्ति के समक्ष चाहे फूल चढ़ा दिए जाएं, पर मूर्ति वे | सातावेदनीय, उच्चगोत्र आदि शुभ प्रकृति का भी उत्कृष्ट ऊपर फूल कभी भी नहीं चढ़ाने चाहिए और जिस मूर्ति के | स्थिति बंध तीव्र संक्लेश में ही होता है लेकिन तब अनुभागबंध ऊपर फूल चढ़े हों उसके दर्शन भी नहीं करने चाहिए। उस | मंद रहता है।" मूर्ति को वीतराग प्रभू की मूर्ति नहीं कहा जा सकता।
उपरोक्त प्रकरण से यह भी स्पष्ट हो गया होगा कि श्रेष्ठ तो यही है कि मूर्ति पर चन्दन न लगाया जाए। । तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध रूप परिणाम तीर्थंकरों उसको पूर्णरूप से वीतराग ही बने रहने दिया जाए। तथा | के गृहस्थ अवस्था में भी नहीं होते। यह उत्कृष्ट स्थिति बंध जब शास्त्रों में अचित्त द्रव्यों से अर्थात् चावलों को पीले । तो, मात्र नरकाभिमुख मनुष्यों को ही होता है। करके पुष्प चढ़ाने का विधान दिया हुआ है तब अनावश्यक जिज्ञासा - भगवान ऋषभदेव के 100 पुत्र थे या एक
26 अक्टूबर 2004 जिनभाषित -
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सौ एक?
समाधान- भगवान ऋषभदेव के जीवनचरित्र पर सबसे प्रामाणिक वर्णन आदिपुराण लेखक आचार्य जिनसेन का माना जाता है, अतः आपके प्रश्न के उत्तर में इसी ग्रन्थ के आधार पर चर्चा करते हैं। श्री आदिपुराण पर्व 16, श्लोक नं. 4, 5, 6 में इस प्रकार कहा है- अर्थ इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले 99 पुत्र हुए (अर्थात् महाराजा भरत को मिलाकर 100 पुत्र हुए) वे सभी पुत्र चरम शरीरी तथा बड़े प्रतापी थे ॥ 4 ॥
तदनन्तर जिस प्रकार शुक्ल पक्ष पश्चिम दिशा में चन्द्रमा की निर्मल कला को उत्पन्न करता है उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के यशस्वती नामक महादेवी ने ब्राह्मी नाम की पुत्री उत्पन्न की ॥ 5 ॥ आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमेन्द्र हुआ था । वह वहाँ से च्युत होकर भगवान ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के देव के समान, बाहुबलि नाम का पुत्र हुआ । भावार्थ- भगवान ऋषभदेव के यशस्वती नामक रानी से भरत आदि 100 पुत्र और सुनन्दा नामक रानी से केवल बाहुबली उत्पन्न हुए अर्थात् कुल 101 पुत्र थे ।
किन्हीं ग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव के कुल 100 पुत्र भी कहे गये हैं I
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जिज्ञासा मिथ्यादृष्टि देवों के पीत लेश्या होती है। फिर भी वे मरकर एकेन्द्रिय क्यों बनते हैं?
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समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में सिद्धान्तसार दीपक रचियता भट्टारक सकलकीर्ति, अधिकार - 15 के श्लोक नं. 382 से 388 का अर्थ दिया जाता है। " जब सर्व देवों की छह मास पर्यन्त की अल्पायु अवशेष रह जाती है, तब उनके शरीर की कान्ति मन्द हो जाती है । दुर्विपाक से गले में स्थित उत्तम पुष्पों की माला म्लान हो जाती है और मणिमय आभूषणों
मन्द हो जाता है। इस प्रकार के मृत्यु चिन्ह देखकर मिथ्यादृष्टि देव अपने मन में इष्ट वियोग आर्तध्यान रूप इस प्रकार का शोक करते हैं कि हाय ! संसार की सारभूत स्वर्ग की इस प्रकार की सम्पत्ति छोड़कर अब हमारा अवतरण स्त्री के अशुभ, निन्दनीय और कुत्सित गर्भ में होगा ? अहो ! विष्टा और कृमि आदि से व्याप्त उस गर्भ में दीर्घकाल तक अधोमुख पड़े रहने की वह दुस्सह वेदना हमारे द्वारा कैसे सहन की जायेगी ? इस प्रकार के आर्त्तध्यान रूप पाप से भवनत्रिक और सौधर्मेशान कल्प में स्थित मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग से च्युत होकर तिर्यग्यलोक में दुखों से युक्त वादर, पर्याप्त, पृथ्वीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पति
कायिक जीवों में जन्म लेते हैं। जहाँ गर्भ का दुख नहीं होता ॥ 388 ॥
जिज्ञासा- क्या वर्तमान के शिथिलाचारी साधुओं को पुलाक- वकुश आदि निर्ग्रन्थों में माना जा सकता है? क्या शिथिलाचारी मुनि वंदनीय है?
समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में सर्वप्रथम हमको पुलाक, वकुश मुनि की परिभाषा समझ लेना आवश्यक होगा। सर्वार्थसिद्धि अध्याय-9, सूत्र - 46 की टीका में इस प्रकार कहा गया है
उत्तरगुणभावनापेतमनसोव्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तो विशुद्धपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते । नैर्ग्रन्थ्यं प्रति स्थिता अखण्डितव्रताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिनो विवक्तपरिवारा मोहशबलयुक्ता वकुशा: ।
अर्थ- जिनका मन उत्तर गुणों की भावना से रहित है जो कहीं पर और कदाचित व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं वे अविशुद्ध पुलाक (मुर्झाये हुए धान्य) के समान होने से पुलाक कहे जाते हैं। जो निर्ग्रन्थ होते हैं, व्रतों का अखण्ड रूप से पालन करते हैं, शरीर और उपकरणों की शोभा बढ़ाने में लगे रहते हैं, परिवार से घिरे रहते हैं और विविध प्रकार के मोह से युक्त होते हैं वे वकुश कहलाते हैं।
उपरोक्त दोनों भेदों को आचार्यों ने भावलिंगी अर्थात् छटवें, सातवें गुणस्थानवर्ती साधु कहा है। दोनों ही साधुओं की परिभाषा में वकुश तो व्रतों का अखण्ड रूप से पालन करते हैं परन्तु पुलाक तो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं। यहां पर 'कहीं पर और कदाचित्' शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है जो इस बात का परिचायक
किला मुनि कहीं पर कदाचित् व्रतों की परिपूर्णता को प्राप्त नहीं रहते, शेष में व्रतों का परिपूर्ण पालन करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पुलाक मुनि की परिभाषा देखकर ही आपने अपना प्रश्न लिखा है, जबकि स्पष्ट बात यह है कि लाक व्रतों की परिपूर्णता को प्राप्त रहते हैं । परन्तु उनमें क्वचित् कदाचित् दोष लगता है ।
वर्तमान के साधुओं में जो शिथिलाचार व्यास है, उसको हम पुलाक या वकुश की परिभाषा में गर्भित नहीं कर सकते। लाक में तो क्वचित् कदाचित् दोष लगते हैं, परन्तु वर्तमान
शिथिलाचारी साधुओं में तो निरंतर दोष हैं। कोई सव स्थावर जीवों की हिंसा की चिंता न करते हुए पंखे, कूलर अथवा ए.सी. में रहते हैं, कोई एषणा समिति के दोषों को ध्यान में न रखते हुए सचित्त फलों का भक्षण करते हैं, एक
अक्टूबर 2004 जिनभाषित 27
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निश्चित चौके में जाकर आहार करते हैं, अपनी इच्छानुसार | कोरा नुमाइशी ही रहता है। ऐसे मुक्ति द्वेषी, मिथ्यादृष्टि भोजन बनवाकर आहार लेते हैं, भोजन में पत्ती तथा अभक्ष | भवाभिनन्दी मुनियों की अपेक्षा देशव्रती श्रावक अविरत वस्तुओं का सेवन करते हैं, गर्म रोटी खाते हैं, आइसक्रीम | सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तो भी धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याण आदि का सेवन करते हैं। कोई स्पर्शन इन्द्रिय विजय तथा के भागी हैं........ मुनि मात्र का दर्जा गृहस्थ से ऊँचा नहीं परिषहों से डरकर गृहस्थों के विलासितापूर्ण घरों में निवास है। मुनियों में मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते हैं, करते हैं, गर्मी में साबुन लगाकर स्नान करते हैं, मच्छरदानी मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ का दर्जा ऊँचा है। यह उससे लगाकर रात्रि विश्राम करते हैं, प्रातः काल आहार के बाद श्रेष्ठ है। अविवेकी मुनि से विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और 2-3 घंटे सोते हैं आदि । कोई ब्रह्मचर्य महाव्रत का ध्यान न इसलिए उसका दर्जा अविवेकी मुनि से ऊँचा है। रखते हुए अकेली आर्यिका के साथ अकेले रहते हुए विहार ऐसे लौकिक मुनि का लौकिक कार्यों में प्रवृत्ति का करते हैं। क्षेत्रपाल- पद्मावती की आराधना एवं पूजा स्वयं आशय मुनिपद को आजीविका का साधन बनाना, ख्याति, भी करते हैं और दूसरों को करने का आदेश देते हुए गृहीत लाभ, पूजादि के लिए सब कुछ क्रियाकाण्ड करना, वैद्यक, मिथ्यात्त्व की पुष्टि में लगे रहते हैं, आदि संसार को बढ़ाने ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्रादिक का व्यापार करना, पैसा बटोरना, वाले कार्यों को करने वाले साधुओं को, जिनको अपने व्रतों लोगों के झगड़े-टन्टे में फंसना, पार्टीबंदी करना, के पालन करने की चिंता ही नहीं है केवल येन-केन- साम्प्रदायिकता को उभारना और दूसरे ऐसे कृत्य करने जैसा प्रकारेण अपने यश और मान के पुष्ट करने की ही चिन्ता है। हो सकता है, जो समता में बाधक तथा योगीजन के योग्य न उनको पुलाक की कोटि में कदापि नहीं लिया जा सकता। हो। सार यह है कि निर्ग्रन्थ रूप से प्रव्रजित-दीक्षित जिनमुद्रा
ऐसे साधुओं के बारे में श्री योगसार प्राभृत, अधिकार- के धारक दिगम्बर मुनि दो प्रकार के होते हैं- एक वे जो 8, श्लोक नं. 18 से 24 तक के श्लोकों की व्याख्या में श्री | निर्मोही, सम्यग्दृष्टि हैं, मुमुक्षु,मोक्षाभिलाषी हैं, सच्चे में जुगलकिशोर मुख्तार ने इसप्रकार कहा है
मोक्षमार्गी हैं, अलौकिकीवृत्ति के धारक संयत हैं और इसलिए यद्यपि जिन लिंग निर्ग्रन्थ जैन मुनि मुद्रा को धारण असली जैन मुनि हैं। दूसरे वे, जो मोह के उदयवश दृष्टि करने के पात्र अतिनिपुण एवं विवेक सम्पन्न मानव ही होते
विकार को लिये हए मिथ्यादष्टि हैं. अंतरंग से मक्तिद्रेषी. हैं। फिर भी जिनदिक्षा लेने वाले साधुओं में कुछ ऐसे भी
बाहर से दम्भी मोक्षमार्गी हैं लोकाराधन के लिए धर्मक्रिया निकलते हैं जो बाह्य में परमधर्म का अनुष्ठान करते हुए भी | करने वाले भवाभिनन्दी हैं, संसारावर्तवर्ती हैं, फलत: असंयत अन्तरंग से संसार का अभिनन्दन करने वाले होते हैं...... वे । हैं और इसलिए असली जैन मुनि न होकर नकली मुनि आहार आदि चार संज्ञायों के तथा उनमें से किसी के भी | अथवा श्रमणाभास हैं। दोनों की कुछ बाह्यक्रियाएं तथा वशीभूत होते हैं...... ऐसे घरों में भोजन करते हैं जहां अच्छे | वेश समान होते हुए भी दोनों को एक नहीं कहा जा सकता रूचिकर एवं गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन मिलने की अधिक | है, दोनों में जमीन-आसमान का सा अन्तर है। एक कगरु सम्भावना होती है। परिषहों के सहन से घबराते तथा वनवास । संसार-भ्रमण करने-करानेवाला है तो दूसरा सुगुरु बंधन से से डरते हैं......... ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करते हुए भी | छूटने-छुड़ाने वाला है। गुप्त रूप से उसमें दोष लगाते हैं....... पैसा जमा करते हैं, इसी से आगम में एक को वन्दनीय और दूसरे को पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं.......... अपने इष्टजनों - अवन्दनीय बतलाया है। संसार के मोही प्राणी अपनी सांसारिक को पैसा दिलाते हैं........... ताला बंद, बाक्स या अलमारी | इच्छाओं की पूर्ति के लिए भले ही किसी परमार्थतः अवन्दनीय रखते हैं...... बाक्स की चाबी कंमडलों आदि में रखते | की वन्दना-विनायादिक करें- कुगुरु को गुरु मान लें। हैं.......... पीछी में नोट छुपा कर रखते हैं, अपनी पूजाएं | परन्तु एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करेगा। भय, आशा, बनवाकर छपवाते हैं, अपनी जन्मगाँठ का उत्सव मनाते हैं, स्नेह और लोभ में से किसी के वश होकर उसके लिए वैसा जिस लोकाराधन में ख्याति, लाभ,पूजादि जैसे अपना कोई | करने का निषेध है। लोकिक स्वार्थ सन्निहित होता है, उस क्रिया को करते उपरोक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि उपरोक्त प्रकार के हैं......... जिनका धर्मसाधन पुण्यबंध ही नहीं कभी-कभी | शिथिलाचारी मुनियों को पुलाक अथवा वकुश की कोटि में दृष्टि भेद के कारण पाप बंध का कारण होता है......... | नहीं रखा जा सकता है और ऐसे साधु दर्शनीय अथवा जिनको संसार का अभिनंदन दीर्घ संसारी होने से मुक्ति की वंदनीय नहीं हैं। बात नहीं रूचती........ सब कुछ क्रियाकाण्ड ऊपरी और
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) 28 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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समाचार
आचार्यश्री द्वारा रचित ग्रंथ 'मूक माटी' | महाराज के सानिध्य में कटंगी से पधारे ब्र. संजीव भैया पर हो रहे शोध कार्य
एवं पन्द्रह अन्य विद्वत वर्ग के निर्देशन में 13 अगस्त से 22 आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित महाग्रंथ 'मूक माटी' |
अगस्त 04 तक विशाल शिक्षण शिविर संपन्न हुआ। शिविर पर लगातार शोध कार्य हो रहे हैं। अभी तक लगभग 32
में 2100 शिविरार्थियों ने छहढ़ाला/ तत्त्वार्थसूत्र/ द्रव्यसंग्रह। व्यक्ति इस महाग्रंथ पर पी.एच.डी. कर चुके हैं। और वर्ष
बालबोध विभिन्न विषयों पर मनोयोग से ज्ञानार्जन किया। 2004 में 3 शोधार्थियों ने मूकमाटी पर अपना शोध प्रबंध
प्रतिदिन सुबह मुनि श्री के उपदेश लाभ सभी शिविरार्थियों पूरा किया है। जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज सिर्फ
को प्राप्त हुआ एवं रात्रि में विद्वत वर्ग द्वारा विभिन्न विषयों अध्यात्मिक संत ही नहीं वे साधक, चिंतक, विचारक,
पर व्याख्यान हुआ। तत्त्ववेत्ता, युग पुरूष हैं। आपके द्वारा रचित मूकमाटी ग्रंथ त्रिदिवसीय पाठशाला शिक्षण प्रशिक्षण एवं इस समय शोधार्थियों के लिये एक शोध का विषय बन
संगोष्ठी समारोह गया है। पूरे भारत में विभिन्न विश्वविद्यालयों से मूकमाटी
लगभग 90 वर्ष पूर्व पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी ने जो ग्रंथ पर शोध किये जा रहे हैं। मूकमाटी ग्रंथ जिसमें दर्शन
जैन पाठशालाओं के माध्यम से जैन दर्शन पढ़ाने की अलख और आध्यात्म की जटिलतम ग्रंथियों को सहज सरल रूप
जगाई थी वह धीरे-धीरे लुप्त हो गई है। उस अलख को में खोलकर रख दिया जाता है। आचार्य श्री के साहित्य में
जगाने के दर्शन जैसीनगर नामक छोटे ग्राम में त्रिदिवसीय प्राचीनता, अर्वाचीनता, आध्यात्मिकता, सार्वभौमिकता,
पाठशाला शिक्षण प्रशिक्षण एवं संगोष्ठी समारोह में हुए। परंपरागत दार्शनिक चिंतन की गहराई है। अहिंसा की
यह शिविर पूज्य मुनिद्वय श्री 108 निर्णयसागर जी महाराज गरिमा, महिमा आयुर्वेद की महत्ता, प्रकृति का विश्लेषण
एवं अजितसागर जी महाराज तथा पू. ऐलक 105 श्री ऐसे अनेक विषय हैं जो लोक जीवन से जुड़े हैं। इसलिए
निर्भयसागर जी की प्रेरणा से उनके सान्निध्य में 5 सितम्बर इस ग्रंथ पर लगातार विभिन्न विश्वविद्यालयों से पी.एच.डी.
2004 से 5 सितम्बर 2004 तक सानंद सफलतापूर्वक कार्य हो रहे हैं। वर्ष 2004 में मूक माटी ग्रंथ पर 3 शोधार्थियों |
सम्पन्न हुआ। इस शिविर में 300 शिक्षक एवं शिक्षिकाओं ने अपने शोध प्रबंध पूरे किये है। अब्दुल्लागंज रायसेन से | ने भाग लिया। मुनि श्री निर्णयसागर जी महाराज ने श्रीमती मीना जैन ने 'मूकमाटी' का शैली परक अनुशीलन | परिचयोपरांत प्रथम सत्र में संगोष्ठी का अर्थ एवं प्रयोजन विषय लेकर अपना शोध प्रबंध बरकतउल्ला विश्वविद्यालय प्रतिपादित करते हुए जैन पाठशालाओं के शिक्षकों एवं भोपाल से पूरा किया हैं। हिंदी महाकाव्य परंपरा में 'मूक | विद्यार्थियों की समस्या पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि माटी' का अनुशीलन शीर्षक से डॉ. श्रीमती अमिता जैन, | आजकल मां-बाप लाड़-प्यार में बच्चों को बिगाड़ देते हैं। नई दिल्ली ने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से | उनमें आत्मतत्त्व के प्रति श्रद्धान नहीं होता है। तथा दूसरे पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आचार्य विद्यासागर जी
माता-पिता शिक्षक हैं। छोटी-छोटी सी बातें बच्चों को के साहित्य में उदान्त मूल्यों का अनुशीलन विषय पर डॉ. शिक्षक किस तरीके से समझायें इसका उदाहरण देते हुए रश्मि जैन, बीना, सागर ने डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय उन्होंने बताया कि चमड़े की वस्तुओं का उपयोग नहीं सागर से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
करना चाहिये क्योंकि इसमें त्रस जीव पैदा होते हैं। तथा "देशबन्धु जबलपुर से साभार
त्रस जीवों की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। बच्चों को
बैठने खड़े होने का अनुशासन सिखायें एवं प्रार्थना करायें। अशोकनगर में विशाल शिक्षण शिविर संपन्न
देखकर चलने और देखकर बैठने के पीछे अंहिसा एवं
जीव-दया का कारण समझायें। 5 वर्ष से 18 वर्ष तक के लौकिक शिक्षा विद्वान बनाती है पर विवेकवान बनने
बच्चों को प्रज्ञा एवं उम्र के अनुसार दो ग्रुप बना लेना के लिए उसे धर्मज्ञान की भी आवश्यकता है। इसी लक्ष्य
चाहिये। को लेकर आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के संघस्थ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज एवं मनि श्री भव्यसागर जी
सामान्य ज्ञान की बातें भी बताना चाहिये। धर्म की
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रक्षा हेतु अकलंक-निकलंक एवं चंदनवाला बनने की | ब्रम्हस्वरूप बताते हुए कहा कि भारत की प्रतिष्ठा यहां के प्रेरणा देना चाहिये। अवैतनिक शिक्षकों के लिये ज्ञानावरणीय साध, संतों और उनके आचरण के कारण है। टाटा, बिड़ला कर्म का क्षयोपशम, स्वाध्याय परमं तपः, तपसा निर्जरा च | और अम्बानी के कारण नहीं। उन्होंने करतल ध्वनि के ये तीन ऐसे प्रेरक तत्त्व हैं, जो उन्हें शिक्षक बनने के लिये | बीच रीवा विश्वविद्यालय में जैन धर्म पर शोध को प्रोत्साहित उत्साहित करते हैं।
करने के लिये जैन विद्या शोध पीठ की स्थापना करने की सासांरिक ज्ञान गौण है, आत्मज्ञान मुख्य है। ज्ञान
घोषणा की। उक्त अवसर पर मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज जानना मात्र है। आचरण करना चरित्र है। विषयानुराग
ने अपने सारगर्भित प्रवचन में कहा कि केवल बौद्धिक मिथ्याचारित्र है, आत्मानुराग सम्यक्चरित्र है। राग सहित
और तकनीकी विकास ही जीवन का परिपूर्ण विकास नहीं आचरण में प्रतिकूलतायें आती हैं। राग रहित जीवन में
है। जीवन के परिपूर्ण विकास के लिये इनके साथ-साथ अनुकूलतायें आती हैं। परमार्थ से जुड़ा ज्ञान समीचीन ज्ञान
नैतिक, चारित्रिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास है। विद्वान वही है जो सार्थक एवं अर्थवान् वचन बोलता
भी होना चाहिए। आजकल पश्चिमी जीवन मूल्य तेजी से है। जो अधातु सहित होता है वह रोगी है।
हावी होते जा रहे हैं वे हमें सिर्फ लर्निंग और अर्निंग की ही
प्रेरणा देते है लीविंग की नहीं। जीवन की कला ही महत्वपूर्ण विद्यार्थी को आज के दूषित वातावरण से अलग रखना
है, जो हमें भारतीय तत्व-विद्या सिखलाती है। मुनिश्री ने संभव नहीं है। किन्तु जैन पाठशाला के माध्यम से उसमें
कुलपति जी की आध्यात्मिक विचारधारा की सराहना करते हंस का स्वभाव धारण कराया जा सकता है, ताकि नीर
हए कहा कि यदि विद्या केन्द्रों के प्रमुखों में, ऐसी ही क्षीर का विवेक आ जाये। पुस्तकें वह हैं, जिनके पढ़ने से
आध्यात्मिकता आ जाए तो उसमें अध्ययनरत छात्रों का न मन प्रसन्न हो जाये, विचार शुद्ध हो जायें तथा उपयोगी हो।
केवल भविष्य बदलेगा अपितु देश का नक्शा ही बदल शास्त्र वह है, जिसके पढ़ने से आत्मा जग जाये। ग्रंथ वह है, जो मोह ग्रंथि को भेद कर, मोह निद्रा दूर करे। रोगी वह
जायेगा। मुनिश्री ने तत्त्वार्थसूत्र के माहात्म्य पर भी प्रकाश
डाला। है, जो बलहीन एवं शक्तिहीन हो और स्वस्थ तो मात्र सिद्ध परमेष्ठी ही हैं । नास्तिक वह है जिसमें देवशास्त्रगुरु के प्रति तीन दिनों तक चलने वाली यह संगोष्ठी प्रतिदिन तीन विश्वास न हो।
सत्रों में चली। जिसमें क्रमशः निम्न विद्वानों ने अपने शोध
लेख पढ़े उसमें व्रती राकेशभैया सागर (तत्त्वार्थसूत्र की इंजी. धरमचन्द्र बाझल्य, ए-92, शाहपुरा, भोपाल
व्याख्याओं का वैशिष्ट्य), श्री निर्मल जैन सतना (तत्वार्थ सतना में सर्वोदय विद्वत्संगोष्ठी सफलतापूर्वक सम्पन्न
सूत्र में रत्नत्रय की विवेचना), श्री मूलचंद लुहाडिया
किशनगढ़ (सम्यक्त्व का स्वरूप एवं साधन : एक विमर्श), संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के
श्री डॉ. श्रेयांशकुमार बड़ौत (जीव के आसाधारण भावों परम भास्वर शिष्य मुनिश्रेष्ठ 108 श्री प्रमाणसागर जी महाराज
की विवेचना आधुनिक सन्दर्भ में) श्री अशोक कुमार जैन के सतना में वर्षायोग स्थापित होते ही पूरा शहर
ग्वालियर (तत्त्वार्थसूत्र में प्ररूपित लिंग व्याख्या एवं प्रमाणसागरमय हो गया।
आधुनिक विचार), डॉ. निहालचन्द जैन बीना (अजी पतत्त्व मुनिश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 सितम्बर को आचार्य : आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में),श्री प्रा. नरेन्द्र प्रकाश जैन उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर आधारित सर्वोदय विद्वद्गोष्ठी | फिरोजाबाद(व्यक्तित्व के विकास में बाधक कारक), श्री के आयोजन ने सतना शहर में एक नया इतिहास रच पं. शिवचरणलाल मैनपुरी (तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर पुण्यदिया। देश के ख्याति प्राप्त पच्चीस विद्वानों की उपस्थिति में पाप की मीमांसा), प्रो. रतनचन्द जैन भोपाल : (कर्मास्रव होने वाली इस संगोष्ठी का उदघाटन सुप्रसिद्ध विचारक के कारण एक उहापोह), श्री सुरेशजैन आई.ए.एस., भोपाल माननीय श्री डॉ. ए.डी.एन. वाजपेयी कुलपति कप्तान अवधेश (तत्त्वार्थसूत्र - ऐन इम्पार्टेन्स सोर्स आफ इंडियन ला), श्री प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा ने दीप प्रज्जवलन कर अनपचंद जैन एडवोकेट फिरोजाबाद (सल्लेखना. समाधि किया। आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत कुलपति महोदय | भारतीय दण्ड विधान के परिप्रेक्ष्य में), श्रीमती डॉ. नीलम ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में मुनिश्री को साक्षात | जैन गुड़गांव (तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित. श्रावकाचार का समाज
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शास्त्रीय अध्ययन), श्री प्रो. एल.सी.जैन जबलपुर(जैन | सम्मेलन में देश भर के हजारों युवाओं ने भाग लिया। कर्मवाद और तत्त्वार्थसूत्र), श्री डॉ. फूलचंद जी प्रेमी | मुनिश्री ने अपने ओजस्वी प्रवचन में युवाओं को वाराणसी(ध्यान विषयक मान्यताओं का समायोजन), पं. | उद्बोधित करते हुए कहा कि युवा वर्ग राष्ट्र की सच्ची रतनलाल बैनाड़ा आगरा (मुक्त जीव एवं मुक्ति का स्वरूप) | अनुभूति है। समाज का यथार्थ बिम्ब है वह शक्ति का श्री नलिन के. शास्त्री (तत्त्वार्थसूत्र का छटवां अध्याय | प्रतीक है। ऊर्जा का पुंज है। उसके ऊपर समाज का महान मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में), डॉ. सुरेशचन्द जैन | दायित्व है, युवाओं को सामाजिक कुंठाओं और कुरीतियों दिल्ली(तत्त्वार्थसूत्र में रत्नत्रय की विवेचना) और श्री सिद्धार्थ | को खत्म कर नव निर्माण का बिगुल बजाना चाहिए। जैन सतना(असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा एक चिन्तन) प्रत्येक | मुनिश्री ने कहा कि जैन समाज इतनी प्रबुद्ध समाज है। सत्र के अंत में उसकी अध्यक्षता कर रहे विद्वानों ने अपना | समाज का युवा वर्ग सर्वाधिक सुशिक्षित होने के बाद भी समीक्षात्मक उद्बोधन दिया। गोष्ठी का समापन मुनिश्री के | इतना पीछे क्यों है? इस पर विचार करने की आवश्यकता प्रवचनों से हुआ जिसमें मुनिश्री ने प्रत्येक विद्वानों को | है। मुनिश्री ने युवाओं को अपनी बुरी आदतों को छोड़ने अपेक्षित दिशा निर्देश दिये। गोष्ठी के मुख्य संयोजक श्री | की प्रेरणा देते हुए कहा कि सामाजिक क्रान्ति और नवनिर्माण अनूपचन्द जैन एडवोकेट( फिरोजाबाद) ने अत्यंत कुशलता | हमेशा बलिदान मांगता है यदि युवा अपनी दुबलताओं पूर्वक गोष्ठी का संयोजन किया तथा स्थानीय संयोजक द्वय
और जीवन की जड़ों को कुरेदने वाली आदतों का उत्सर्ग श्री सिद्धार्थ जैन एवं श्री सिघंई जयकुमार जैन ने भी सराहनीय नहीं कर सकता, तो उससे नव निर्माण की क्या आशा की व्यवस्था बनाई। बीच-बीच में व्रती अशोक भैया का भी
जा सकती है। मुनिश्री ने सतना में आयोजित युवा सम्मेलन मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा।
को युवा चेतना के जागरण की एक अभिनव पहल बताते
हुए कहा कि इस सम्मेलन के माध्यम से युवा चेतना की ____ आखिरी दिन समापन सत्र उज्जैन से पधारे डॉ. राममूर्ति
जाग्रति का एक इतिहास बनेगा। मुनिश्री ने युवारत्न से त्रिपाठी के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ। उक्त अवसर
अलंकृत युवाओं को संबोधित करते हुए कहा कि युवाओं पर सभी विद्वानों का समाज द्वारा सम्मान किया गया।
को प्रेरणा, प्रेम, प्रोत्साहन और प्रतियोगिता के बल पर ही विद्वत समूह की ओर से प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन फिरोजाबाद
आगे बढ़ाया जा सकता है। ताड़ना और तर्जना के बल पर ने अपने उद्बोधन में संगोष्ठी को सफल संगोष्ठी निरूपित
नहीं। करते हुए कहा कि इस गोष्ठी के प्रत्येक सत्रों में श्रोताओं
__सम्मेलन के दौरान आयोजित अलंकरण सम्मान की इतनी उपस्थिति आज तक कहीं भी देखने को नहीं
समारोह में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए पांच युवाओं को मिली। उन्होंने समाज के द्वारा की गई व्यवस्थाओं की भी
सम्मानित किया गया, जो समाज सेवा व निर्माण की दिशा सराहना की और कहा कि यह सब मुनिश्री का ही प्रभाव
में निर्विवादित रहते हुए कार्य कर रहे हैं। सम्मानित होने है। डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी ने मुनिश्री के चरणों में अपनी
वालों में कवि चन्द्रसेन जैन भोपाल, शैलेश जैन जबलपुर, वंदना व्यक्त करते हुए कहा कि आप कल्पना नहीं कर
कटनी नगर पुलिस अधीक्षक मलय जैन, पार्षद पंकज जैन सकते कि मेरे मन में विराजमान मुनिश्री के प्रति कितनी
ललितपुर को मुकुट पहनाकर व शाल ओढ़ाकर सम्मानित श्रद्धा है। उन्होंने कहा कि विघटन भरे इस दौर से ये परम |
किया गया। तपस्वी मुनि-संत ही उबार सकते हैं। अध्यात्म के माध्यम
आनंद जैन, प्रचार संयोजक, सतना से ये हमारे पथ प्रदर्शक बन सकते हैं। उन्होंने मुनिश्री के चरणों में श्रीफल अर्पित किया। इसतरह एक सफल संगोष्ठी
श्री सम्मेदशिखर तीर्थ पर जैनों के का समापन हुआ।
दोनों पक्षों को समिति बनाने का आदेश सतना का जैन युवा सम्मेलन इतिहास रच गया झारखण्ड के सुप्रसिद्ध जैन श्री सम्मेदशिखर जी के विगत दिनों मुनि श्री प्रमाणसागर जी की प्रेरणा से
मालिकाना हक के बारे में झारखण्ड हाईकोर्ट में चल रहे जैन नवयुवक मण्डल के तत्त्वाधान में आयोजित युवा
एल.पी.ए. की सुनवाई मुख्य न्यायमूर्ति श्री बाला सुब्रह्मण्यम सम्मेलन पूरे देश के लिये एक मिसाल बन गया है। इस
सहित तीन न्यायमूर्तियों की डिवीजन बेंच ने आज 24 अगस्त 2004 को अपना निर्णय दिया।
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उन्होंने राज्य सरकार की ओर से डिविजनल कमिश्नर | विकास जैन/ बृजेश जैन (जलेश्वर, यूपी.), विजेश जैन/ की अध्यक्षता में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर समाज के प्रतिनिधियों विलास जैन (पहाड़ी, राजस्थान), आशीष जैन/अंशुल जैन वाली संयुक्त स्टेटयुटरी कमेटी (कानूनी समिति) बनाने (मसूरी, उत्तरांचल), दिनेश जैन/ मनोज जैन (एत्मादपुर, का निर्देश दिया।
यूपी), अंकित जैन/ शैलेन्द्र जैन (सरधना, यूपी.), नितिन लगभग 50 वर्षों से चले आ रहे विवाद निर्णय आज जैन/ विवेक जैन (खेडली, राज.), मनीष जैन/ धर्मेन्द्र हुआ है। आनंद जी कल्याण जी पेढ़ी के ट्रस्टी श्री अशोकभाई | जैन (सुखशांति नगर, इन्दौर), सौरभ जैन/ वर्धमान जैन गांधी ने कहा कि 1997 में बिहार हाईकोर्ट की रांची बेंच | (छीपा बडौद), अनेकान्त जैन/ शान्तनु जैन (आगरा, के समक्ष दिगम्बर और श्वेताम्बर समाज के द्वारा एल.पी.ए. | हरीपर्वत), सौरभ जैन/संचय जैन (हाथरस) दाखिल की गई थी, जिसे दाखिल करते वक्त अदालत ने
निरंजनलाल बैनाड़ा, अधिष्ठाता पहाड़ के ऊपर के स्थानों का कार्यभार राज्य सरकार, दिगम्बर समाज एवं श्वेताम्बर समाज के पांच-पांच सप्तम आत्म साधना शिक्षण शिविर प्रतिनिधियों द्वारा करने का निर्देश दिया था। तत्पश्चात बिहार
परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के राज्य से झारखण्ड अलग होने के कारण एल.पी.ए. रांची आशीर्वाद से सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेद शिखर जी के पादमूल में हाईकोर्ट में ट्रांसफर हो गई थी।
स्थित, उदासीन आश्रम, इसरी बाजार में पं. श्री मूलचंद ___ इस 7 जुलाई, 2004 तक लगातार सुनवाई के बाद लुहाडिया, मदनगंज (किशनगढ़) द्वारा बाल ब्र. पवन भैया
आये इस निर्णय में पहाड़ के मालिकी का हक को यथावत जी, कमल जैन जी (श्री वर्णी गुरुकुल जबलपुर) के सानिध्य रखते हुए पहाड़ के ऊपर के स्थानों का कार्यभार डिविजनल में सप्तम आत्म-साधना शिक्षण शिविर का आयोजन दिनांक कमिश्नर की अध्यक्षता में जैनों के दोनों समुदायों के
24-12-2004 से 02-01-2005 तक होने जा रहा है। प्रतिनिधियों की एक स्टैटयुटरी समिति बनाने का हुकुम | कृपया अपने आने की पूर्वसूचना आश्रम में 15-12-2004 दिया। इस निर्णय से आनंद जी कल्याणजी पेढ़ी का जमीन | तक दे देवें। का हक समाप्त हो गया है। इस निर्णय के बाद श्वेताम्बर
विशेष जानकारी के लिए सम्पर्क करें। श्री सम्पतलाल छाबड़ा पक्ष ने इस निर्णय के खिलाफ स्टे की अपील की, जिसे
118/1/जी, मानिकतला रोड, कोलकाता-700054 हाईकोर्ट ने रद्द कर दी है।
मुंबई समाचार
शोक संदेश पर्दूषण पर्व में श्रमण ज्ञान भारती, मथुरा द्वारा भारतवर्षीय दि.जैन तीर्थक्षेत्र मुम्बई के अध्यक्ष, शाश्वत धर्म प्रभावना
तीर्थराज सम्मेदशिखर जी ट्रस्ट के अध्यक्ष, अखिल
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद के अध्यक्ष, भारतीय श्री 1008 जम्बूस्वामी दि. जैन सिद्धक्षेत्र
ज्ञानपीठ के मैनेजिंग ट्रस्टी, सम्पूर्ण जैन समाज के लिए चौरासी(मथुरा) में संस्थापित श्रमण ज्ञान भारती (छात्रावास)
आदर्श साहू रमेशचन्द्र जी के निधन पर सारा सांगानेर जैन विद्या निकेतन द्वारा प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी पर्वाधिराज समाज एवं प्रबन्धकारिणी कमेटी श्री दिगम्बर जैन अतिशय पयूषण पर्व में प्रवचन हेतु 18 स्थानों पर छात्रों एवं विद्वानों क्षेत्र मन्दिर सांगानेर ने आज 23.9.2004 को प्रात: 8.00 को भेजा गया
बजे दो मिनिट का मौन रखकर स्व.श्री रमेश चन्द्र साहू को _जिनेन्द्र जैन 'शास्त्री' (अधीक्षक)। नमन जैन ! श्रद्धांजली अर्पित की। (खातेगांव देवास, एमपी), अरुण जैन 'प्राध्यापक' /अमित
महावीर प्रसाद बज, जयपुर . जैन (कर्रापुर सागर, एमपी), पं. कोमल चन्द्र जैन (आनन्दपुरी, मेरठ, यूपी), अभिषेक जैन/ अमोल जैन
दशलक्षण व्रत किये (पालवीचला, अजमेर, राजस्थान), केतन सिंघई/ अनुज धर्मनिष्ठ महिला श्रीमती अनोपदेवी जैन धर्मपत्नी श्री जैन (बुरहानपुर, एमपी), सौरभ जैन (कमर्शियल कालोनी, पुखराज जी पांड्या ने दशलक्षण व्रत किये जिसका पारणा बांसवाड़ा, राजस्थान), अमोल जैन/प्रशांत जैन (भिवानी, दिनांक 28 सितम्बर को धूमधाम से सम्पन्न हुआ। इस हरियाणा), केतन जैन/ स्वतंत्र जैन (महेश्वर, एमपी), I अवसर पर 200/-रुपये जिनभाषित के लिए प्राप्त हुए। 32 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
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मुनि श्री 108 वीरसागर जी
मुनि श्री 108 आगमसागर जी
मुनि श्री 108 अचलसागर जी
मुनि श्री 108 धवलसागर जी
मुनि श्री 108 अतुलसागर जी
दिगम्बर सरोवर के राजहंस
आचार्य श्री विद्यासागर जी द्वारा नवदीक्षित मुनिगण
मुनि श्री 108 क्षीरसागर जी
मुनि श्री 108 महासागर जी
मुनि श्री 108 पुनीतसागर जी
मुनि श्री 108 सौम्यसागर जी
मुनि श्री 108 भावसागर जी
मुनि श्री 108 घीरसागर जी
मुनि श्री 108 विराटसागर जी
मुनि श्री 108 वैराग्यसागर जी
मुनि श्री 108 अनुभवसागर जी
मुनि श्री 108 आनंदसागर जी
देयोदय तीर्थ, तिलवारा, जबलपुर
मुनि श्री 108 उपशमसागर जी
मुनि श्री 108 विशालसागर जी
मुनि श्री 108 अविचलसागर जी
मुनि श्री 108 दुर्लभसागर जी
मुनि श्री 108 अगम्यसागर जी
मुनि श्री 108 प्रशमसागर जी
मुनि श्री 108 शैलसागर जी
मुनि श्री 108 विशदसागर जी
मुनि श्री 108 विनम्रसागर जी
मुनि श्री 108 सहजसागर जी
पावन वर्षा योग 2004
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________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी द्वारा 21 अगस्त 2004 को दयोदय तीर्थ तिलवारा घाट, जबलपुर में नवदीक्षित मुनियों की संशोधित सूची क्र. मुनिनाम निवासी शिक्षा B.Tech. MBA.CFA 1 108 मुनि श्री वीरसागर जी 2108 मुनि श्री क्षीरसागर जी 3 108 मुनि श्रीधीरसागर जी पूर्व नाम ब्र.शैलेश जी ब्र.विशाल जी ब्र.राजकुमार जी नागपुर गंजबासौदा इंदौर M.E., (Power System) M.Com., MA (Sans). MBA, LLB D.M.T.C B.Com..C.A. M.Com 4 108 मुनि श्री उपशमसागर जी 5 108 मुनि श्री प्रशमसागरजी 6108 मुनि श्री आगमसागर जी 7 108 मुनि श्री महासागर जी 8 108 मुनि श्री विराटसागर जी 9 108 मुनि श्री विशालसागरजी 10 108 मुनि श्री शैलसागर जी 11 108 मुनि श्रीअचलसागर जी 12 108 मुनि श्रीपुनीतसागर जी M.A.(Double) ब्र.मिलनजी ब्र.धवल जी ब्र. भूपेन्द्र जी ब्र.अजित रानू'जी ब्र.अमित जी ब्र.रविजी ब्र.राकेश जी ब्र. प्रदीप जी ब्र. अतुल जी महुवा मुंबई मंडीबामोरा बुढ़ार हाटपीपल्या हाटपीपल्या B.Com B.Com टड़ा M.A. सागर B.Com औरंगाबाद B.E.(Civil) Gold Medalist B.A. Horticulture Ind Yr. 13 108 मुनि श्री वैराग्यसागर जी 14 108 मुनि श्री अविचलसागरजी 15 108 मुनि श्री विशदसागर जी 16 108 मुनि श्री धवलसागर जी 17 108 मुनि श्री सौम्यसागरजी ब्र. बालासाहेब जी दानोली ब्र.अमोल जी दानोली ब.राजेश राजू जी शराजू जामगावली ब्र.विनोद जी चाँदामऊ ब्र.नीतेश जी मुंगावली B.Com M.A. M.Com.,LLB. Ayd. Ratna B.E.(Electronics) 18 108 मुनि श्रीअनुभव सागर जी बुढ़ार अजनास M.Com. बुढ़ार Higher Secondary ब्र.अमित जी (एलआईसी) ब्र.नितेश जी ब्र.अमित जी ब्र.राजीव जी ब्र.मनीष जी ब. सुधीर सोनू'जी ब्र.अभिषेक जी ब्र.पवन जी 19 108 मुनि श्री दुर्लभसागरजी 20 108 मुनि श्री विनम्रसागर जी 21 108 मुनि श्री अतुलसागर जी 22 108 मुनि श्री भावासागर जी 23 108 मुनि श्री आनंदसागर जी 24 108 मुनि श्री अगम्यसागर जी 25 108 मुनि श्री सहजसागर जी B.Sc.(Maths) मंडी बामोरा ललितपुर बंडा B.A. Higher Secondary B.E.(Electronics) बुढ़ार कवठेसार B.A. स्वामित्व एवं प्रकाशक, मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। a